शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक २६
Shloka 26 Analysisत्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह-
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥ २६ ॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह – | ||
त्वमर्कस्त्वं | → | त्वम् + अर्क: + त्वम् |
त्वम् | = | आप |
अर्क: | = | सूर्य |
त्वम् | = | आप |
सोमस्त्वमसि | → | सोम: + त्वम् + असि |
सोम: | = | चन्द्र |
त्वम् | = | आप |
असि | = | हैं |
पवनस्त्वं | → | पवन: + त्वम् |
पवन: | = | वायु |
त्वम् | = | आप |
हुतवहस् | = | हुतवह:, अग्नि |
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च | ||
स्त्वमापस्त्वं | → | (स्) त्वम् + आप: + त्वम् |
त्वम् | = | आप |
आप: | = | जल |
त्वम् | = | आप |
व्योम | = | आकाश |
त्वमु | → | त्वम् + उ |
त्वम् | = | आप |
उ | = | ही |
धरणिरात्मा | → | धरणि: + आत्मा |
धरणि: | = | धरती |
आत्मा | = | आत्मा |
त्वमिति | → | त्वम् + इति |
त्वम् | = | आप |
इति | = | बस ((इतना केवल) |
च | = | तथा |
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं | ||
परिच्छिन्नामेवं | → | परिच्छिन्नाम्+ एवम् |
परिच्छिन्नाम् | = | संकुचित, सीमित |
एवम् | = | इस प्रकार |
त्वयि | = | आपके विषय में |
परिणता: | = | पण्डित जन |
बिभ्रतु | = | (भले ही) बोलते रहें, प्रकाशित करते रहें |
गिरम् | = | वाणी को |
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि | ||
न | = | नहीं |
विद्मस्तत्तत्त्वं | → | विद्म: + तत् + तत्वम् |
विद्म: | = | जानते हैं |
तत् | = | उस |
तत्त्वम् | = | पदार्थ को, शरीर को |
वयमिह | → | वयम् + इह |
वयम् | = | हम |
इह | = | जगत् में |
तु | = | तो |
यत्त्वं | → | यत् + त्वम् |
यत् | = | जो |
त्वम् | = | आप |
न | = | नहीं |
भवसि | = | हों (अर्थात् आप असीम हैं) |
अन्वय
भावार्थ
(हे प्रभो !) आप ही सूर्य हैं, आप चन्द्र हैं, आप वायु हैं, आप अग्नि हैं, आप जल हैं, आप आकाश हैं, आप धरती हैं तथा आत्मा भी आप ही हैं । भगवन् ! आपकी ये आठ मूर्तियां हैं, कुछ इस प्रकार परिपक्व बुद्धिवाले पण्डित जन आपके विषय में ऐसी संकुचित वाणी (बात) भले ही बोलते हों (किन्तु) हम तो इस संसार में ऐसा कोई तत्त्व (पदार्थ) जानते ही नहीं, जो आप न हों, अर्थात् सम्पूर्ण चराचर प्राणी आप ही हैं ।
व्याख्या
शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के पिछले अर्थात् २५वें श्लोक में स्तुतिगायक गन्धर्वराज पुष्पदन्त ने प्रतिपादित किया कि भगवान शिव परम तत्त्व हैं और अन्तस्थ शिव के साक्षात्कार से असीम आह्लाद होता है । अब २६वें श्लोक में उसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे अपने आराध्य के त्रैलोक्य-वन्दित चरणों में निवेदन करते हैं कि हे प्रभो ! संसार में कहीं भी ऐसा कोई तत्त्व या पदार्थ नहीं, जो आप न हों, अर्थात् सब कुछ आप ही आप हैं, भले ही कुछ प्रवीण व प्रौढ़ मति के पण्डितों ने आपको आठ रूपों की संकुचित सीमा-मूर्ति में भजा हो । आप सीमा में कहाँ बद्ध हो सकते हैं ? आप तो सर्वतोव्याप्त हैं । तत्पश्चात् वे महादेव के उन आठ रूपों पर प्रकाश डालते हैं । भगवान शिव के भिन्न-भिन्न पावन रूपों को लेकर उनकी उपासना व पूजा-अर्चा का विशद विवरण शास्त्रों में हमें मिलता है । महादेव के पावन रूपों में से अष्टमूर्ति रूप में भी उनकी उपासना की जाती है । शिवसहस्रनाम में अष्टमूर्ति: भगवान् भूतभावन का एक नाम भी है ।
प्रस्तुत स्तोत्र के प्रथम व द्वितीय पाद (पहली व दूसरी पंक्ति) में स्तोत्रगायक पुष्पदन्त अष्टमूर्ति शिवजी की आठों मूर्तियों के रूप बताते हैं, वे हैं सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी एवं आत्मा । सर्वप्रथम कहा है अर्कस्त्वम् अर्थात् आप सूर्य हैं । इसके बाद कहा है सोमस्त्वमसि अर्थात् आप चन्द्रमा है । दोनों ही मूर्तियां आलोकमयी हैं और दोनों ही समय अथवा काल का बोध कराती हैं । सूर्य व चन्द्र भगवान् सदाशिव के नेत्र हैं । इसलिये सदाशिव सूर्य सोमात्मक हैं । भगवान शिव महाकाल हैं । काल अथवा समय ज्ञात होता है सूर्य तथा चन्द्रमा से । रात और दिन का निर्णय सूर्य से होता है वहीं तिथियों का विधान होता है चन्द्र से । सूर्योदय से सूर्योदय तक एक अहोरात्र (अह: रात्र) अर्थात् एक दिन-रात रहता है । आकाश में सूर्य का गमन निश्चित गति से होता है । उन्हीं से वर्ष अथवा संवत्सर का निर्णय होता है । रवि के उत्तरायण-दक्षिणायन होने पर ऋतु-परिवर्तन लक्षित होता है । इतना ही नहीं, सूर्य के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की सकती । शास्त्रों के अनुसार सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं और आधिभौतिक रूप में वे रुद्र के ही स्वरूप हैं । ऋग्वेद की घोषणा है कि सूर्य इस चराचर (चर अचर) जगत् का आत्मा है — सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च सब पदार्थों का, ऊर्जा का केन्द्र सूर्य ही है । इसीसे सब कुछ उत्पन्न व जीवित है और हिरण्यगर्भरूप इस सूर्य में ही सब विलीन हो जायेगा । कुछ इसी प्रकार का कथन है श्रुति का ब्रह्म के लिये भी— सर्वं खल्विदं ब्रह्म अर्थात् सब कुछ निस्संदेह ब्रह्म है । परमात्मा शिव प्रोक्त: अर्थात् परमात्मा अथवा ब्रह्म ही शिव कहे गये हैं । सबकी उत्पत्ति के हेतुभूत सूर्य भगवान् उन्हीं की एक मूर्ति हैं । लोक-प्रकाशक सूर्य परम प्रकाशक शिव के प्रकाश से ही उद्भासित हैं । गायत्री मंत्र द्वारा जिन भूर्भुव:स्व: की स्तुति की जाती है, वे तेजोमय भगवान् सविता अर्थात् सूर्य ही हैं । वेदों में सूर्य-स्तवन मिलता है जैसे सहस्ररश्मि: शतधावर्तमान: प्राण: प्रजानामुदयत्येष सूर्य: । सूर्यरूप में भगवान् शिव के बारह प्रकार के भिन्न सूर्यात्मक रूप हैं, जिनका तनिक विस्तृत वर्णन श्रीलिंगमहापुराण में मिलता है । सूर्य को आदिदेव कह कर भी स्तुतियों में संबोधित किया जाता है — आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसाद मे भास्कर । इन्हें प्रदत्त अर्घ्य आदि से महादेव की समस्त विभूतियां तृप्त होती हैं । शास्त्रों में यह बात वर्णित है कि सूर्य भी एक प्रकार से शिवमूर्ति या शिवलिंग है ।
अर्थात् रवि की जगमगाती हुई छवि गोलाकार शिवलिंग की तरह भासती है ।
शिवलिंग तीन प्रकार के देखने में आते हैं, कहीं गोलाकार अथवा अर्धगोलाकार, कहीं अण्डाकार और कहीं लम्बाकार । ज्योतिषाचार्य डा. नेमिचन्द्र शास्त्री अपनी पुस्तक भारतीय ज्योतिष में लिखते हैं कि इस विश्व अथवा सृष्टि को भगवान का ही द्वितीय रूप कहा गया है, जिसके दोनों चक्षु चन्द्र व सूर्य कहे गये हैं । यहां कवि महादेव के दूसरे रूप को चन्द्ररूप में बताते हैं । शिवजी की सोमरूपी मूर्ति समस्त औषधियों को पोषित करती है । वह अपनी अविनाशी सुधा से देवताओं और पितरों को सदा तृप्त करती रहती है । श्रीशुक्राचार्य ने शिव-स्तुति करते हुए उनके चन्द्ररूप के हेतु से उन्हें हे हिमांशु पुकारते हुए निवेदन किया है कि आप अमृत की किरणों से युक्त हैं, हे अमृतमय आपको नमस्कार है — हिमांशो पीयूषपूरपरिपूरित तन्नमस्ते । चन्द्र को अपने शीश पर धारण करके महादेव चन्द्रशेखर कहलाते हैं ।
ऋग्वेद के पुरुषसूक्त मे्ं चन्द्र को विराट पुरुष के मन से समूद्भूत बताया गया है चन्द्रमा मनसो जात: । चन्द्रमा मन हैं । शिवजी का चन्द्ररूप शरीर सभी जीवों के मन में प्रतिष्ठित है । सूर्यो आत्मा जगतस्य सूर्य को जगत् का आत्मा कहा गया है और चन्द्र को मन । चन्द्र के जिस भाग पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है, वह भाग आलोकित हो जाता है, शेष भाग प्रकाशरहित रहता है । ठीक इसी भाँति मन भी आत्मा के प्रकाश से प्रकाशित होता है । बिना आत्मा के मन का कोई अस्तित्व नहीं है । विद्यानिवास मिश्र अपने निबंध चन्द्रमा मनसो जात: में लिखते हैं कि मन की पर्तों को समझने के लिये चन्द्रमा की पर्तों को समझना आवश्यक हो जाता है । उनके शब्दों में “… चन्द्रमा विराट पुरुष के मन से उत्पन्न हुए हैं । मन से उत्पन्न हुए हैं तभी तो बुध के पिता हैं और मनोभव के अभिन्न मित्र । और तभी तो अन्तर्जगत के समस्त सौन्दर्य के और जीवन के निश्शेष अमृतत्व के अकेले प्रतीक हैं । चन्द्रमा का कलंक है और उनकी क्षमता भी मानव-मन की क्षीणता है । अमृत-साधना का मन्त्र चन्द्रमा ने मन से ही तो पाया है, मन भी पार्थिव मन ।” लेखक ने ललित शैली में मानव-मन के साथ चन्द्रमा का संबंध निरूपित किया है । सच तो यह है कि चन्द्रमा इस जगत् की भाव-सम्पदा के आश्रय हैं । चन्द्र के रूप में भगवान चन्द्रमौलि की मूर्ति उनके सौम्य रूप की परिचायक है और यह छवि सुधा का अपार पारावार है । जीवन में सरसता तो प्रेम व भावनाओं से आती है । चन्द्ररूप से उपासित शिव प्रेमस्वरूप हैं । श्रीलिंगमहापुराण के अनुसार शिव का सोमात्मक रूप सभी देहधारियों में शुक्र (वीर्य) रूप से व्यवस्थित है । शास्त्रों में कहा गया है कि चन्द्र ज्योतिर्मय गोलाकार शिवलिंग है । चन्द्र को सोम कहते हैं । सोम का तो अर्थ ही उमासहित (स + उम) होता है तथा उमासहित शिव सौम्यमूर्ति होते हैं । यह बात निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट होती है ।
उमया सहित: सोम: सौम्यमूर्तिमहेश्वर: ॥
भगवान शिव की पूजा व व्रत आदि विशेषतया सोमवार को किये जाते हैं । पूज्यते भगवान् शम्भूर्विशेषयात् सोमवासरे ।
भगवान् शिव की अष्टमूर्ति में उनका एक रूप पवन अर्थात् वायु भी है । पृथ्वी के चारों ओर वायुमण्डल है, अत: पवन भी गोलाकार है । पवन भी शिवलिंग है । यही भाव निम्नलिखित श्लोक में विवक्षित है —
पृथिवी परितो वायुमण्डल गोलकाकृति ॥
हृदय में बसने वाले प्राण को भी पण्डितजन शिवलिंग कहते हैं —किं च प्राणो हृदिस्थोऽयं शिवलिंगं निगद्यते । गन्धर्वराज पुष्पदन्त ने अपने आराध्य को पवनस्त्वम् कह कर शिवजी की वायुरूप में तीसरी मूर्ति आलोकित की है । ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में कहा गया है कि श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च अर्थात् विराट पुरुष के कर्ण से वायु व प्राण समुद्भूत हुए हैं । इस तरह वायु जगत् के प्राणियों का प्राण है । पृथ्वी पर जीवन पवन के बिना सम्भव ही नहीं है । अभिज्ञान शाकुन्तलम् में महाकवि कालीदास ने वायु के लिये यही बात यया प्राणिन: प्राणवन्त: कह कर व्यक्त की है ।
सृष्टि की समस्त गति का आधार है वायु । वायु के व्यापकत्व का कोई ओर-छोर नहीं है । वायु सीमित नहीं होता । स्पर्श वायु की तन्मात्रा है तथा त्वचा इसकी इन्द्रिय है, जो समूचे शरीर में व्यापक है । प्राणवायु में किसी प्रकार का स्पर्शदोष नहीं आता । दूसरे के मुँह से निकली हुई वायु ही हम सब लेते हैं, किन्तु वह जूठी अथवा ग्रहण करने के अयोग्य नहीं हो जाती । श्रीनिरंजनपीठाधीश्वर स्वामी महेशाानन्द गिरिजी का कथन है कि “ जैसे ब्रह्म नित्य शुद्ध है वैसे वायु भी नित्य शुद्ध है । वायु को गन्धवाह भी कहते हैं और गन्ध जैसी भी हो, वायु दूर तक, देर तक उसे अपने साथ नहीं रखता । वायु नियंत्रण में हो तो मन नियंत्रण में रहता है । योगियों का सब अभ्यास वायु पर आधारित है । विद्वान लेखक सुदर्शनसिंह चक्र का कथन है कि महाशक्ति कुण्डलिनी वायुरूपा है । तैत्तिरीय उपनिषद् में वायु को साक्षात् ब्रह्म कहा गया है — नमस्ते वायु । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । श्रीलिंगमहापुराण का कथन है कि ब्रह्माण्डों के भीतर तथा बाहर स्थित और जीवों के शरीर में स्थित जो वायु है, वह शिव की महिमामय मूर्ति ही है । हम सब को यह बात विदित है कि त्रेतायुग में भगवान् शंकर अपने अंश से पवनपुत्र हनुमान बन कर अवतरित हुए और आकल्पान्त रहेंगे । गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित चित्र-पुस्तक एकादश रुद्र (शिव) में भगवान् रुद्र की वायुमूर्ति का उल्लेख है । यह वायुमूर्ति बालाजी से उत्तर आर्किटेक्चर ज़िले में स्वर्णमुखी नदी के तट पर अवस्थित है । इस मूर्ति को काल-हस्तीश्वर वायुलिंग कहा जाता है । प्रचलित मान्यता के अनुसार यहाँ एक विशेष वायु के झोंके के रूप में भगवान् स्थाणु रुद्र विराजमान रहते हैं । यहां की शिवमूर्ति चौकोर है ।
स्तुतिगायक पुष्पदन्त भगवान् भूतभावन को हुतवहस्त्वम् (हुतवह: त्वम्) कह कर उनके अग्निरूप को रेखांकित करते हैं । हुतवह: अग्नि का ही दूसरा नाम है । हवन करते समय देवताओं को दी जाने वाली आहुति अग्निदेव ही उन सब तक पहुंचाते हैं । अग्रे नीयते अर्थात् आगे पहुंचा देते हैं । वेद ने अग्नि को इसी कारण पुरोहित कह कर पुकारा अग्निमीले पुरोहितम् …। पुरोहित का अर्थ है जो आगे के हित के विषय में बताये । (इसी कारण ब्राह्मण को भी पुरोहित कहा गया, क्योंकि वह मनुष्य का हित-साधन करने हेतु आगे का मार्ग बताता है ।) अग्नि परमात्मा की शक्ति से ही देवताओं को हव्य व पितरों को कव्य प्राप्त कराती है तथा अर्पित किये हुए नैवेद्य को वह आगे पहुंचाती है । श्रीलिंगमहापुराण के कथानुसार ब्रह्माण्डों के भीतर व बाहर व्याप्त एवं यज्ञविग्रह में स्थित अग्नि ,भगवान् शिव की श्रेष्ठ अग्निरूप मूर्ति है । इसके अलावा जीवों के देहों में जठराग्नि रूप से परमात्मा शिव की ही कल्याणमयी मूर्ति विराजमान है । इस प्रकार हुतवह: शिवजी का ही दूसरा रूप है ।
अग्निदेव सृष्टि के आरम्भ से ही पूजे जाते रहे हैं । सतयुग, त्रेता व द्वापर युग में अग्नि की पूजा अनिवार्य होती थी । ( कलियुग के आरम्भ में भी अग्निदेव का सम्मान वर्तमान रहा, किन्तु आगे चल कर कल्मष बहुत बढ़ जाने पर सभी देवों की तरह अग्निदेव भी उपेक्षा के पात्र बन गये ।) ऊर्जा अग्नि का ही दूसरा नाम है । लोक में दावाग्नि, बड़वाग्नि, जठराग्नि, वैद्युताग्नि व काष्ठाग्नि इत्यादि से जानी जाने वाली ऊर्जा अग्नि के ही रूप हैं । आकाशीय बिजली के अलावा हम सभी को मिलने वाली बिजली भी अग्नि ही है । व्यापक रूप से अग्नि अपवित्र मल आदि को भस्म करती है । पारद, आसव (एसिड) व विषाग्नि भी एक प्रकार से अग्नि ही हैं । अग्निरूप में भगवान् त्रिलोचन के क्रुद्ध व कातर होने पर सब कुछ महाविनाश की विभीषिका में दग्ध हो जाता है ।
श्रुतियां प्रतिपादित करती हैं कि रुद्र अग्नि हैं । वे कहती हैं कि अग्निमुखा हि देवा: । अग्निमुख से तात्पर्य है अग्निमूल । श्रुति के अनुसार अग्निरूप शिव की पूजा से सभी देवता पूजित होते हैं । अग्नि को दीर्घ वर्तुलाकार शिवलिंग कहा गया है — अग्निश्च शिवलिंगं स्याद्दीर्घवर्तुलसंलक्षणम् । दीपकलिका अथवा दीपिका के रूप में वह रूप दृष्टिगोचर होता है । अग्निरूप शंकर की पूजा वेदों में अति प्रसिद्ध है ।
प्रस्तुत श्लोक में भगवान् शिव के पाँचवें रूप को आपस्त्वम् (आप:त्वम्) कह कर जलरूप में प्रकाशित किया गया है । आप: का अर्थ जल है । जल को भी शिवलिंग कहा गया है — आपश्च शिवलिंगम् स्युस्तच्च नानाविध मतम् । समुद्र पृथ्वी के चारों ओर गोलाकार लहरा रहा है । बाबा बर्फ़ानी अर्थात् बाबा अमरनाथ के दर्शन दीर्घवर्त्तुलाकार होते हैं —तथा चामरनाथस्य गुहायां दीर्घवर्त्तुलम् ।
श्रीनिरंजनपीठाधीश्वर स्वामी महेशानन्द गिरिजी जल की पवित्रता व महत्ता पर प्रकाश डालते हुए निरुक्त का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि “शिव ही जल है । निरुक्त में बताया गया है कि अप् इति कर्मनाम् अर्थात् कर्म को अप् या जल कहते हैं । जल से आचमन करके ही कोई कर्म प्रारम्भ होता है । जल हर कर्म के लिये अपेक्षित होता है ।” जल के बिना कर्म नहीं होता है, यह रेखांकित करते हुए आगे वे जो कहते हैं उसका सार यह है कि शतपथ ब्राह्मण में यह बताया गया है कि जीव जब यहाँ से जाकर हिरण्यगर्भ से वापस आता है तब जल के साथ आता है । तात्पर्य यह कि वापसी के रास्ते में जल की ही प्रधानता होती है । सूर्यरश्मियों से जल समुद्र, बादल, धरती, वनस्पति में आता है, तत्पश्चात् उदर में और फिर वह शुक्र-शोणित रूप लेता है । यह सब जलरूप ही हैं । इस प्रकार शतपथ ब्राह्मण में जल के द्वारा ही सारा आवागमन बताया गया है । इस प्रकार जल का प्रयोग होने से कर्म को जल कहते हैं । घी आदि भी बहते हैं, अत: उन्हें भी जल ही समझा जाना चाहिये । श्रीलिंगमहापुराण के अनुसार नदियों, समुद्रों के अमृतमय सारे जलों में शिव ही सर्वदा व्याप्त हैं । उनकी यह जलमूर्ति समस्त जीवों को जीवन देने वाली व उन्हें पवित्र करने वाली है । श्रीशुक्राचार्य जलरूप महादेव का स्तवन करते हुए कहते हैं कि हे जलरूप ! हे परमेश्वर ! हे जगत्पवित्र ! आप निश्चय ही विचित्र उत्तम चरित्र वाले हैं । हे विश्वनाथ ! आपका यह अमल पानीय रूप अवगाहन मात्र से विश्व को पवित्र करने वाला है —
चित्रं विचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम् ।
विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ
पानीयागाहनत एतदतो नतोऽस्मि ॥
जल तत्व की तन्मात्रा रस है व उसकी इन्द्रिय है स्वादेन्द्रिय । ऋषियों ने कहा है रसो वै स: । यहां स: से ब्रह्म विवक्षित है । जलमूर्तिरूप में शिवजी की उपासना अनेक प्रकार से होती है । नहर में स्थित शंकर को प्रणाम, सरोवर में स्थित शंकर को प्रणाम, नदी में स्थित शंकर को प्रणाम इत्यादि कह कर नाना प्रकार से भक्त अपने परमाराध्य (परम आराध्य) को नतशीश प्रणाम निवेदित करते हैं ।
जल के पश्चात् स्तुतिगायक ने भगवान् शिव की अगली मूर्ति व्योम के रूप में बतायी है । व्योम का अर्थ है आकाश । पंचतत्वों में से एक तत्व आकाश है । इसकी तन्मात्रा (गुण) शब्द है और इसीसे श्रवणेन्द्रिय प्रकट हुई है । पलक झपकते पुस्तक में विद्वान लेखक श्री सुदर्शन सिंह चक्र लिखते हैं कि आकाश का अपना स्वरूप ओंकार की अक्षरत्रयी सम्मिलित घण्टानाद । अब तो विज्ञान के लिये इन्द्रियातीत शब्द केवल सिद्धान्त की बात नहीं रहा , उसे व्यावहारिक बना लिया गया है । यह शब्द ही आकाश की तन्मात्रा है । शब्द ही आकाश का वास्तविक स्वरूप है । नितान्त शून्य को आकाश नहीं कहा जा सकता । पंच महाभूतों में केवल आकाश तत्व ही अखण्ड और अपरिवर्तनीय है ; जबकि शेष चारों तत्व परिवर्तनीय प्रकृति के हैं तथा अहर्निश परिवर्तित होते रहते हैं । उपनिषदों में आकाश शब्द का प्रयोग ब्रह्म के लिये किया गया है । ब्रह्म व्यापक है तथा लोक में आकाश भी व्यापक है । आकाश में सभी कुछ घटित होता है, किन्तु उससे आकाश में विकार नहीं आता है । ब्रह्म में भी इसी प्रकार कोई विकार लक्षित नहीं होता । परमात्मा में अनन्त व्रह्माण्ड समाये हुए हैं तथापि वह इन सबसे परे हैं, निर्लिप्त व निर्विकार हैं । आकाश को भी वर्त्तुलाकार शिवलिंग कहा गया है — व्योमापि भगवल्लिंगम् । पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य के कथानुसार हर ठोस पदार्थ में पर्याप्त आकाश होता है, क्योंकि परमाणु के नाभिक (न्यूक्लियस) के आसपास इलैक्ट्रोन्स घूमते हैं व दोनों के बीच इतना ख़ाली स्थान होता है, जितना पृथ्वी व सूर्य के बीच होता है । यह ख़ाली स्थान आकाश है ।
खगोलशास्त्र के अनुसार हमारी नीहारिका का नाम देवयानी है , इस देवयानी नीहारिका के पार दूसरा नीहारिका-मण्डल है व उसके पार अगला तथा उसके पश्चात् और अगला—इस प्रकार इनकी संख्या व इनका क्रम अकल्पनीय और अननुमेय है । वस्तुत: जो अनन्त है वह एक सीमित व नन्हे मन-मस्तिष्क में कैसे आ सकता है ? अर्थात् नहीं आता है । ये अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड और इसके असंख्यासंख्य प्राणी, ये सभी रूप व रचना जिस परमात्मा की है वे ही चिदाकाश (चिद् आकाश) कहे गये हैं । चिदाकाश से स्फुटित अर्थ है चैतन्यस्वरूप आकाश । उन्हें त्वं व्योम कहने से यही भाव विवक्षित है कि हे महातपा ! आप नित्यचैतन्य तथा ब्रह्मस्वरूप हो । आप व्योम हो, आकाश हो, जिसमें सबको पर्यवसान है, जो सब में है और सबसे पृथक भी । सूक्ष्म आकाश में एवं महा आकाश में महाकाल का नित्य वास है, साथ ही ये दोनों हम सब के भीतर भी तरंगायित हैं । प्रकृति और परमात्मा आकाश में सर्वत्र विद्यमान हैं ।
शास्त्र सम्पूर्ण पृथ्वी को भी गोलाकार शिवलिंग कहते हैं — धरणि: शिवलिंगं स्यात्तदिदं वर्तुलाकृति । भूगोल आदि शब्द से पृथ्वी को गोलक कहा गया है । जैसे समूचा कैलाश पर्वत पूरा शिवलिंग है, वैसे पूरी पृथ्वी शिवलिंग ही है ।
तथा कृत्स्नंयं पृथिवी शिवलिंगं निगद्यते ॥
कवि के कथन त्वमु धरणि: (त्वम् उ धरणि) से विवक्षित है भगवान् कैलाशाधिपति की धरणिरूपी या पृथ्वीरूपी मूर्ति । कवि कहते हैं कि हे महेश्वर ! आप (त्वम्) ही (उ) पृथ्वी (धरणि) हैं । पृथ्वी सब को धारण करती है, अत: उसे धरणि भी कहते हैं । शास्त्र भगवान् शिव की धरारूपी मूर्ति को समस्त चराचर प्राणियों को धारण करने वाली बताते हैं । परमात्मा भी अपनी समस्त रचना को, इस सकल विश्व को सेतु बन कर धारण किये रहते हैं । इसलिये वे धरारूप में निश्चित ही एक पवित्र मूर्ति हैं । शिवसहस्रनाम में शिवजी का एक नाम सेतु भी है । पुराणों की भाषा में बात की जाये तो धरणि अथवा भूदेवी अगाध जल में (दूसरे शब्दों में रस में) निमग्न थीं । (वराह अवतार में भगवान् विष्णु ने उनका उद्धार किया तथा जल के ऊपर उन्हें स्थापित किया ।) पृथ्वीरूप में वह विराट मूर्त्त हो उठता है कल-कल बहती सरिता में, सरित्पति (समुद्र्) में, पर्वत और शिलाओं में । सघन-साँवली हरीतिमा से परिवेष्टित वनों में उन्हीं का विलास है, जो मन को विभोर करता है । वनस्पति, शाक-धान्य व अन्न इत्यादि मात्र में ही नहीं अपितु मनुष्य व इतर जीवों में विलसित होती है भगवान् की धरणिमूर्ति ।
शिवजी की अष्टमूर्तिरूप की आठवीं मूर्ति आत्मा के रूप में विवक्षित है । प्रस्तुत श्लोक के द्वितीय पाद अथवा दूसरी पंक्ति में भगवान् विश्वनाथ की आठवीं मूर्ति को आत्मा के रूप में कवि ने दर्शाया है आत्मा त्वमिति च कहते हुए, अर्थात् आत्मा आप ही हैं । इस आत्मा के लिये सर्वसारोपनिषद् (यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद से संबद्ध है।) में कहा गया है कि आत्मा ही ईश्वर और जीव स्वरूप है, वही शरीर में अहंभाव जाग्रत् कर लेता है, अर्थात् मैं शरीर हूं, जीव ऐसा मानने लगता है । जो आत्मा समस्त शरीरों में माला के मनकों में धागे की तरह पिरोया हुआ प्रतीत होता है, उसे अन्तर्यामी कहते हैं … मणिगणे सूत्रमिव सर्वक्षेत्रेष्वनुस्यूतत्वेन यदा काश्यते आत्मा तदान्तर्यामीत्युच्यते । ज्ञान के महान् स्रोत हमारे ये उपनिषद् जीव व शिव के एकत्व की घोषणा करते हैं । स्कन्दोपनिषद के शब्दों में —
तुषेण बद्धो व्रीहि: स्यात्तुषाभावेन तण्डुल: ॥
इसका अर्थ है कि जीव ही शिव है और शिव ही जीव है । वह जीव विशुद्ध शिव ही है । जीव व शिव ऐसे हैं जैसे धान का छिलका लगा रहने पर उसे व्रीहि तथा छिलका दूर हो जाने पर उसे चावल कहते हैं । प. हजारीप्रसाद द्विवेदी का अपने उपन्यास अनामदास का पोथा में आत्मा-विषयक कथन है कि सचराचर रूपराशि भगवन्त् रूप-रूप में अपने को व्यक्त कर रहे हैं । हर मनुष्य में वे अपने को व्यक्त कर रहे हैं । वे ही आत्मा रूप में हर व्यक्ति में विराजमान हैं । प्रत्येक का अपना-अपना अलग स्वभाव है । पर है सभी परमात्मा की अभिव्यक्ति ।
ज्ञानी पण्डितजन जीवात्मा को हृदय-प्रदेश में स्थित दीपकलिकाकार निरूपित करते हुए आत्मा को दीर्घवर्तुलाकार शिवलिंग कहते हैं —
त दीपकलिकाकार हृदिस्थ पण्डिता विदु: ॥
जीवात्मा को अंगुष्ठमात्र: पुरुष: श्रुति कहती है । अंगुष्ठ शिवलिंगाकार होता है । साथ ही यह पुण्डरीक के आकार का होने से हृदयकमल कहा जाता है, क्योंकि उनके अनुसार पद्मपुष्प की आकृति शिवलिंग जैसी होती है —शिवलिंगाकृति: पद्ममुकुलस्योपलभ्यते ।
प्रस्तुत श्लोक के तृतीय पाद अथवा तीसरी पंक्ति में कवि कहते हैं कि इस प्रकार परिणता अर्थात् प्रौढ़-मति प्रवीण जन अष्टमूर्ति-रूप के माध्यम से अनन्त व अलक्ष्य शिवजी के विभु रूप को आठ रूपों के संकुचित व सीमित आकार में वर्णित करके रख देते हैं । गन्धर्वराज पुष्पदन्त को अपने परमाराध्य के विषय में यह बात मान्य नहीं । उनके अनुसार शिवजी सीमातीत हैं । कवि के अनुसार उन परात्पर प्रभु को विद्वज्जन चाहे किसी भी गिरम् अर्थात् वाणी में प्रकाशित करें अर्थात् उनका परिसीमित रूप बतायें पर हम तो हे वरद ! आपको साकार व निराकार, दोनों रूपों से परे समझते हैं । हम तो इस जगत् में ऐसा कोई तत्व अथवा पदार्थ जानते ही नहीं, जो आप न हों यत्त्वं न भवसि । मैं केवल इन मूर्तियों मे नहीं अपितु समस्त चराचर जगत में आप ही को देखता हूं । आप ही की झांकी यत्र तत्र सर्वत्र नयनगोचर होती है अर्थात् इस जगत् में सब कुछ आप ही हैं । आप ही निखिल विश्व हैं व विश्व का कण-कण हैं । सर्वतोव्याप्त सदाशिव से पृथक कोई सत्ता नहीं है ।
श्लोक के अन्तिम पाद में स्तुतिगायक सर्व साधन का सार बता देते हैं कि सब कुछ शिव ही हैं । मन में उनका कोई भी रूप आ जाये, तो क्या मनोमल अवशिष्ट रह सकता है ? आत्मा रूप में कल्याणकारी शिव की मूर्ति यजमान नाम से भी जानी जाती है । उनकी कोई भी एक मूर्ति दूसरी मूर्ति से न्यून या अधिक नहीं है । जैसे वृक्षमूल को सींचने से उसकी शाखा व फल-फूल-पल्लव आदि पोषित होते हैं, वैसे ही मूर्ति उन महेश्वर की चाहे जिस किसी रूप में हो, उसकी पूजा उनकी सभी विभूतियों को संतुष्ट करती है । आचार्य नरेन्द्रनाथ ठाकुर अपने लेख द्वादश ज्योतिर्लिंगों की अवतरण-मीमांसा में प्रतिपादित करते हैं कि “भगवान का अवतार आप्तकाम पुरुषों को नि:श्रेयस-प्रदानार्थ ही हुआ करता है । अण्ड-पिण्ड सिद्धान्तानुसार जो अण्ड में है, वही पिण्ड में भी है अर्थात् सर्वज्ञ भगवान् विराट पुरुष होकर अनन्त ब्रह्माण्डों के स्वामी बन जाते हैं तथा वे ही पुन: एक शिवलिंग में भी समाहित हो जाते हैं ।” प्राणी-प्राणी में प्रच्छन्न (छिपे हुए) वे परमोदार पालक हमारे हित सतत सचेष्ट हैं ।
श्लोक २५ | अनुक्रमणिका | श्लोक २७ |
Respected Dr Bhatia, greetings of the day, Kindly favor me by informing at rk.bhatnagar@outlook.com ( I have subscribed too) when the remaining Shlok Vyakhya (27 to 43) will be available. Thanks.
आदरणीय आर.के.भटनागरजी, सधन्यवाद नमस्कार । श्लोक २७ शंकर-कृपा से अगले सप्ताह तक प्रकाशित कर दिया जायेगा तथा एक एक करके शेष श्लोकों के अविलम्ब प्रकाशन का प्रयास भी वर्तमान है । इति शुभम् ।
आदरणीय, सस्नेह सादर अभिवादन??
आपने भगवान महादेव जी की अनन्य कृपा का जो वर्णन किया है, वह निश्चय ही अनिर्वचनीय अकथनीय है । हम आपके आभारी हैं ।
आदरणीय हीरेश पाण्डेयजी, आभार केवल जगत्पूज्य जगदीश्वर का …!!! इति शुभम् ।