शिवताण्डवस्तोत्रम्
श्लोक १०
Shloka 10 Analysisअखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमंजरी
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ।।
अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमंजरी | → | अखर्व + सर्वमंगला + |
कलाकदम्ब + मंजरी | ||
अखर्व | = | महती, भव्य |
सर्वमंगला | = | सर्वलोकहितकारी |
कलाकदम्ब | = | कला-वृन्द, कला-समूह |
मंजरी | = | फूलों का गुच्छा, अभिव्यक्ति |
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् | → | रसप्रवाह + माधुरी + |
व्रिजृम्भणा + मधुव्रतम् | ||
रसप्रवाह | = | मकरन्द |
माधुरी | = | मधुरिमा |
व्रिजृम्भणा | = | मुख खोले हुए, तत्पर |
मधुव्रतम् | = | मधुकर, भंवरा |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं | ||
स्मरान्तकं | = | मदन का अंत करने वाले |
पुरान्तकं | = | त्रिपुर को नष्ट करने वाले |
भवान्तकमं | = | भवभय का अंत करने वाले |
मखान्तकं | = | (दक्ष) यज्ञ को नष्ट करने वाले |
गजान्तकान्धकान्तकं | → | गजान्तक + अन्धकान्तकं |
गजान्तक | = | गज (असुर) का अंत करने वाले |
अन्धकान्तकं | = | अन्धकासुर का अंत करने वाले |
तमन्तकः | = | यमराज |
तमन्तकान्तकं | = | यमराज का अन्त करने वाले |
भजे | = | आराधना करता हूं |
अन्वय
अखर्व सर्वमंगला कला – कदम्ब मंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृम्भणा मधुव्रतम् स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तक अन्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ।
भावार्थ
महीयसी देवी सर्वमंगला (पार्वती) की कलामाधुरी के शिव रसिक हैं । देवी के कलाविलास की मधुरिमा का वे मुंह बाये भँवरे की तरह रसपान करते हैं । शिव विविध लोकमंगलकारी कलाओं से मिलने वाले आनन्द के रसिक हैं । मैं मदनरिपु, त्रिपुररिपु, भवभयहारी, (दक्ष) यज्ञ-विध्वंसक, गजासुर-अन्धकासुर के हन्ता और यमभयहारी शिव की आराधना करता हूं ।
व्याख्या
शिवताण्डवस्तोत्रम् के दसवें श्लोक में शिव के लोकरंजक, लोकमंगल रूप का वर्णन मिलता है । साथ ही पार्वतीवल्लभ के रूप में अपनी भव्या पत्नी की कला-प्रवणता के प्रति उनकी रसिकता को भी रावण ने रेखांकित किया है । रावण का कहना है कि अखर्वसर्वमंगला यानि महीयसी देवी सर्वमंगला (जो कि देवी पार्वती का ही एक नाम है) की कला-माधुरी का शिव परागप्रेमी भ्रमर की भाँति रसपान करते हैं । खर्व का अर्थ होता है बौना, लघु । अखर्व का अर्थ है जो लघु न हो, अर्थात् महान् व उच्च हो । देवी सर्वमंगला महाशक्ति अथवा परमशक्ति हैं । आचार्य हजारीप्रसाद माता आदिशक्ति के विषय में बड़ी श्रद्धा से लिखते हैं कि “नाम उसके अनेक हैं, रूप उसके विपुल हैं, पर वह है एकमात्र संवित् — चिद्रूपा भगवती । रूप, रस, वर्ण, गन्ध से भरे इस विश्व की सूत्रधारिणी संविद्रूपा महामाया :
त्रैलोक्यसौभगे देवि विश्वरूपस्य सौत्रिके ।
संविद्रूपे महामाये परस्पंदस्वरूपिणी ।।”
सर्वमंगलमांगल्या देवी महनीया व परम पूजनीया हैं । देवी सरस्वती के स्वरूप में वे ही कला की अधिष्ठात्री देवी हैं । कला की विभिन्न सुचारु अभिव्यक्तियां मानो उनके कला-कदम्ब की मंजरियां हैं, प्रस्फुटन हैं । उनकी इस मंजरी-माधुरी का शिव मुग्धमना हो कर रसपान करते हैं । इसीलिये शिव को विजृम्भणामधुव्रतम् कहा है । विजृम्भण का अर्थ है मुँह पूरा खोलना तथा मधुव्रतम् कहते हैं भ्रमर को । जगज्जननी मंगलकरणी महेश्वरी के कलात्मक लीलाविलास के रसिक हैं भगवान शिव । शिवा का लास्य, नाट्य, अभिनय और उनका गायन-माधुर्य महेश को मुदित करता है । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने निबन्ध राष्ट्रीय एकता के प्रतीक : शिव में शिव-पार्वती के नृत्य के विषय में लिखते हैं,
“ संसार जब असुर-अत्याचार से त्राहि-त्राहि कर उठा था, तो उन्होंने त्रिपुरासुर का संहार किया; पर जब आनन्दोल्लास में स्वयं उन्मत्त हो कर ताण्डव किया तो त्रैलोक्य काँप उठा । वे नटराज हैं । उनके विराट उद्दाम ताण्डव का प्रचार ताण्डव मुनि नामक उनके शिष्य ने किया । पार्वती ने उन्मत्त धूर्जटि को प्रसन्न करने के लिये जो सुकुमार नृत्य किया, वही लास्य है ।”
अखर्वसर्वमंगलाकलाकदंबमंजरी से एक अन्य अर्थ भी ध्वनित होता है । सर्वमंगला शब्द में मंगल व कल्याण का भाव निहित है । अतएव सभी श्रेयस्करी कलाओं के विशेषण के रूप में भी इसे देखा जा सकता है । सब का शिव (शुभ) करने वाले भगवान शिव समस्त महिमामयी, श्रेयस्करी कला रूपी पुष्प-गुच्छ के माधुर्य का रसास्वादन करने के लिये मुंह खोले हुए भंवरे की भांति तत्पर हैं, तात्पर्य यह है कि लोकमंगलकारी कलाओं के वे रसिक व रसज्ञ हैं । साथ ही उनके मंगलकर्ता रूप के अर्थ रावण कहता है कि वे कामदलन हैं, भवभय के हर्ता तथा त्रिपुर एवं दक्ष-यज्ञ के ध्वंसक हैं , साथ ही वे गजासुर तथा अन्धकासुर के हन्ता होने के अलावा यमराज के भी अंतकर्ता हैं । ऐसे भगवान शिव की मैं आराधना करता हूँ ।
प्रस्तुत स्तोत्र के दसवें श्लोक के प्रारम्भ में भगवान शिव का सर्वलोकसुखावह, कलाप्रवर्तक रूप मुखरित हुआ है । वस्तुतः भगवान शिव सकल विद्याओं के प्रवर्तक हैं । भागवत का कथन है “ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वदेहिनाम्”। उनकी प्रेरणा-प्रसाद से विविध कलाएं स्फुरित व स्फुटित होती हैं । श्रुति उनका गुणगान करती है । उनके लोकसंग्रहकारी कला-कलाप से अभिभूत रावण कहता है कि वे सर्वश्रेयस्करी, सर्वलोकहितकारी कलाओं के सहृदय रसिक हैं । मुदित मन से मदविह्वल मिलिंद की भांति वे कला-किसलयिका से विनिःसृत मधुरिम रस का आस्वादन करने के लिए सदैव समुत्सुक रहते है, उसी तरह जैसे भ्रमर मुख खोले हुए मकरंद-पान के लिए प्रस्तुत रहता है । कलाकदम्ब से अभिप्रेत है, गुच्छ-गुम्फित कलिकाओं की भांति विविध कलाएं, कलावृन्द या बहुकलाएं । जैसे कई शब्दों में अनेकता का बोध कराने के अर्थ उनके साथ ‘ग्राम’ प्रत्यय लगाया जाता है, इन्द्रियग्राम’, ‘भूतग्राम’, ‘गुणग्राम’ आदि , उसी तरह कलाओं की अनेकता का वाचक है ‘कदम्ब’ शब्द । कला-कदम्ब अर्थात् कला-वृन्द । ‘कदम्ब’ शब्द में श्लेषार्थ ( एक शब्द के दो या उससे अधिक अर्थ होना) भी निहित है । इसका एक अर्थ है, वृन्द या समूह और दूसरा अर्थ हुआ कला रुपी कदम्ब तरु । कला-वृन्द अर्थात् बहुविध कलाएं, जिनके वे रसज्ञ एवं मर्मज्ञ हैं । दूसरा अर्थ भी अनेकता का वाचक है जिसके अनुसार कला रूपी कदम्ब-तरु और उसकी मंजरी यानी कलियों-कोंपलों का गुच्छ अर्थात् कलाओं की विविध विधाएं एवं उनकी अनेकविध अभिव्यक्तियां—कलाकदम्बमंजरी । कला की प्रत्येक अभिव्यक्ति चेतना से परिपूरित होती है और सहृदय के अंतःकरण को अपने रस-प्रवाह में निमज्जित कर देती है । सुधिजन चाहे पाठक हो, श्रोता अथवा दर्शक, उसके प्रभाव से अछूता नहीं रहता । वस्तुतः कला मनुष्य की ऊर्ध्वमुखी चेतना की परिचायक है ।उसकी अनुभूतियाँ कभी वाद्ययंत्र के तारो से झंकृत होती हैं, तो कभी चित्र में ढले रंगों से रंजित होती हैं । कहीं अभिनय, कहीं गीत-माधुरी, कहीं काव्य, कहीं मूर्ति-शिल्प, कहीं धातु कला, कला की अजस्र धारा कई कुल्याओं से बहती है । कला कोई भी हो उसमें अंशतः अन्य कलाएं भी आकर जुड़ जाती हैं, परन्तु इन सभी का लक्ष्य एक समान होता है । कला भावुक के अंतस्तल में अलसित चेतना की तन्द्रा दूर कर उसे सृष्टि-चैतन्य अथवा समष्टि-चैतन्य के महाप्रवाह से जोड़ती है । अपने उत्कृष्ट रूप में सहृदय को भाव-विभोर करती हुई कला उसे लोकोत्तर आनंद में आप्लावित कर देती है । कला-साधक और आस्वादक दोनों ही सुध-बुध भूल जाते हैं । समष्टि से एककारिता शिव से ऐक्य है । भारतीय कला के लगभग सभी अंगों पर शिवजी की छाप देखी जा सकती है । उन्होंने तंत्रशास्त्र की भी रचना की है । शिवपुराण में भगवान विष्णु द्वारा शिव के सहस्रनाम कीर्तन में लिखा है, ” ब्रह्मवेदनिधिर्निधि “, जिसका अर्थ प॰ श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार है ‘वेदों के प्रादुर्भाव होने का स्थल’ । श्रुति का वचन ‘महतो भूतस्य निःश्वत ऋग्वेद’ उक्त नाम के अर्थ को पुष्ट करता है, जिसका अर्थ है ‘इस महान देव का निश्वास ही ऋग्वेद है’ । शिव सुधि रसिक अर्थात् सुध रखने वाले रसिक के माध्यम से रसास्वादन करते हैं । इसी तथ्य को रावण इन शब्दों में व्यक्त करता है कि महादेव मुंह खोले हुए मतवाले मधुकर की भांति कला-कदम्ब की मंजरी के माधुर्य का रस-पान करते हैं । अज्ञेय की लम्बी कविता असाध्य वीणा इस सत्य का सुन्दर उदाहरण है । कविता का एक अंश प्रस्तुत है, जिसमें वज्रकीर्ति नामक संगीतकार की अपूर्व साधना से उसकी मन्त्रपूत तरु से निर्मित वीणा किसी भी कलावंत से न सध सकने के कारण ‘असाध्य वीणा’ के नाम से ख्यात हो गई थी । उसकी विशिष्टता यह भी कही जाती थी कि जब उसे कोई सच्चा स्वरसिद्ध गोद में लेगा तब ही वह बज सकेगी । वज्रकीर्ति ने सारा जीवन इसे गढ़ने में लगाया था, जिस दिन वह पूरी बन गई थी, उसी दिन उस साधक की जीवनलीला भी पूरी हो गई थी । अब राजा साधक प्रियंवद के सम्मुख उस वीणा को रख देते हैं । पूरी कविता साधक की ‘सत्यं’, ‘सुन्दरं’ भावनुभूतियों से भरे स्पर्श की, सच्चे साधक के नीरव एकालाप की अनूठी अभिव्यक्ति है । अंततः वीणा के उसके द्वारा साध लेने पर सबके द्वारा अभिनंदित उस स्वरजित् साधक कलाकार के मुख से यह उद्गार निकल पड़ते हैं:
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में —
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब-कुछ को सौंप दिया था —
सुना आप ने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब-कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त , अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है ।”
मनीषियों ने काव्य में सात्विक भावों की प्रधानता से होने वाली रसनिष्पत्ति को, काव्यानन्द को ‘मधुमती भूमिका’ कहा है । उसीको रावण ने रसप्रवाहमाधुरी कह कर व्यक्त किया है । भ्रमर अपनी मकरंद-प्रियता के कारण मकरंद-बंधु, गंध-बंधु, आदि कई नामों से जाना जाता है, यहाँ उसे मधुव्रतम् कहा है , क्योंकि वह पुष्पों के सार को ग्रहण करता है,”सर्वतः सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पदः ” काष्ठ को भी भेद सकने की क्षमता रखने वाला वह भृंगी पुष्प की कोमल पंखुड़ी में बंद हो कर प्राण गंवाता है । मधुव्रतम् कहने से तात्पर्य रसास्वादन के सातत्य से भी है । यह अंत अथवा तृप्ति का नहीं, निरन्तरता का द्योतक है । तन्मयता का आनंद, साधना की समाप्ति में नहीं, अपितु उसके मध्य में है । तैरने का आनंद लहरों के बीच में है, कूल की रेत पर नहीं । भक्त-ह्रदय भी तो इष्ट के पादारविन्द का भ्रमर बन कर रहने में प्रसन्नता पाता है । ब्रज की गोपियाँ कृष्ण के वियोग में सदैव कृष्णनुभूति में तन्मय होकर मुक्ति को ठुकराती हैं । प. श्रीराम आचार्य का कथन है कि, “जो आनंद प्रयत्न में है, भावना में है, वह मिलन में कहाँ ? गंगा उस मिलन से तृप्त नहीं हुई, उसने मिलन-प्रयत्न को अनंत काल तक जारी रखने का व्रत लिया हुआ है” । यह शब्द सचमुच ही द्योतक है इस बात का कि आनंद प्रक्रिया की गतिशीलता में वर्त्तमान रहता है ।
अनन्य अनुराग एवं निष्ठां की भित्ति पर ही कला रचित होती है । भगवान शिव इस कला-वृन्द के आदि आचार्य हैं । श्रीमद्भागवत महापुराण में कहा गया है “ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वदेहिनाम्” महान वैयाकरण पाणिनि ने संस्कृत-व्याकरण के १४ सूत्रों की रचना इन्हीं के प्रेरणा-प्रसाद से की है । शालातुर ग्राम में जन्मे तथा महर्षि पाणि व उनकी भार्या दाक्षी के पुत्र पाणिनि उपवर्षाचार्य के शिष्य थे । पाणिनि के विषय में यह इतिवृत्त प्रसिद्ध है कि उन्होंने प्रयाग में अक्षयवट के नीचे जहाँ सनकादि ऋषिगण तपस्या कर रहे थे, वहीँ जाकर घोर तपस्या की । कुछ दिनों बाद उनकी दारुण तपश्चर्या से प्रसन्न होकर आशुतोष भगवान शंकर ने ताण्डव करते हुए उनको दर्शन दिये तथा चौदह बार अपना डमरू बजा कर उन तपस्वियों का अभीष्ट सिद्ध किया ।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धाः नेतद्विमर्षम् शिवसूत्रजालम् ।
पाणिनि को उसी डमरू के शब्दों से चतुर्दश (चौदह) माहेश्वर सूत्र उपलब्ध हुए, जिसके आधार पर उन्होंने सुबद्ध अष्टाध्यायी की रचना की । ‘अ’ से ‘ह’ तक जो वर्णमाला शिवजी के डमरू बजाने से पाणिनि को प्राप्त हई, उसे अक्षरसाम्नाय कहते है । यह प्रबल मान्यता है कि भगवान शंकर को अपना ‘अक्षरसमाम्नाय’ अत्यंत प्रिय है । आज भी प्राचीन संस्कारों से युक्त आचार्यगण चतुर्दश सूत्रों से भगवान शंकर का स्तवन करते हैं । इस प्रकार रावण का यह कथन यहाँ सही चरितार्थ होता है कि शिवजी श्रेयस्करी कलाओं के माधुर्य का मधुविह्वल भ्रमर की भांति आस्वादन करते हैं । इसके आगे के इतिवृत्त में यह भी आता है कि पाणिनि के व्याघ्र द्वारा ग्रसित होकर शिवलोकवासी होने पर तथा उनके शब्दानुशासन को नष्ट होता हुआ देख कर महादेव ने शेषशायी भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि शेषनाग पाणिनीय व्याकारण पर महाभाष्य करने के लिए भूतल पर अवतार ग्रहण करें । फलतः पतंजलि के रूप में शेषावतार हुआ और पतंजलि महेश्वर के अनुग्रह से व्याकरण शास्त्र में पारंगत होकर विश्व-विभूति बने । श्रीहर्ष ने भी उनके महाभाष्य को फणिभाषितभाष्य कहा है । तात्पर्य यह कि महेश्वर ने उस कला को नष्ट न होने दिया और उसकी धारा अविरत बहती रही । यहाँ रावण द्वारा प्रयुक्त शब्द मधुव्रतम् भी सार्थक सिद्ध होता है ।
अपने ‘अक्षरसमाम्नाय’ की भांति महेश्वर को ताण्डव-नृत्य भी बहुत प्रिय है । भारत के कला, दर्शन, साहित्य शिव-महिमा से मंडित हैं । वे धनुर्वेद को भी प्रकट करने वाले गुणराशि हैं, ( “धनुर्धरो धनुर्वेदी गुणराशिगुणाकरः” –शिवपुराण) । भरत मुनि की नाट्य-कला भी उन्हीं की देन है । वे वाद्य-विशारद भी हैं । शिव-कथाओं में बाणासुर की कथा आती है । परम भागवत प्रह्लाद के पुत्र हुए विरोचन । दैत्यराज बलि इन्हीं के पुत्र थे, और बाणासुर इन राजा बलि का पुत्र था । वह भगवान शंकर का अनन्य भक्त था और बाणासुर ने उनसे सहस्र भुजाएं पाईं थीं । शिव-पार्वती ने उसे अपना पुत्र माना था । सहस्र भुजाएं पाकर हर्ष और श्रद्धा के अतिरेक में उसने उन सहस्रों हाथों से ताली बजा-बजा कर उमा-महेश्वर की स्तुति की एवं शिवजीके ताण्डव-नृत्य करने पर उसने पूरे पांच सौ वाद्य उठा लिए सहस्र करों में । “सहस्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽ तोषयन् मृडं” ( श्रीमद्भागवत महापुराण १०/६२/४ ) । वह अकेला ही बड़े से बड़े वाद्य-मण्डल से बड़ा था । वह मुख से स्तवन करता जा रहा था । भगवान आशुतोष तब अत्यंत प्रसन्न हो उठे और उनके कहने पर उसने अपना अभीष्ट उनके चरणों में निवेदित किया । उन्हें अपनी राजधानी शोणितपुर चलकर अपने समीप रहने के लिए कहा, जिसे महादेव ने स्वीकार किया तथा वे वहां नगर-रक्षक बने व उसे अपना सामीप्य प्रदान किया । इस प्रकार रावण का कथन शिव की कला-प्रियता के विषय में सर्वथा समीचीन है ।
प्रस्तुत श्लोक के पूर्वार्ध में कला-साधना और उसकी माधुर्य रुपी मंजरी की बात कहने के उपरांत रसप्रवाहमाधुरी रुपी सार ग्रहण करने वाले भगवान शंकर के दैत्यनाशक , मृत्युनाशक एवं कामनिपातक, त्रिपुरनिहन्ता तथा भवान्तक रूप के रावण द्वारा स्मरण करने से तात्पर्य यह है कि इन सब के नाश से ही जीव को सुचारू रूप से जिया जा सकता है, उसकी पूरी गरिमा के साथ, आह्लाद के साथ । जीवन जीने की कला भी अन्य कलाओं की भांति अपनी महत्ता रखती है । काम, भय और दर्प से, अहंकार के मद से विमुक्त जीवन ही वास्तव में सार्थक जीवन है । यज्ञ किया लेकिन यज्ञ-स्वरूप की अवमानना की, पद पाया तो मद भी उत्कट हो गया, आकर्षण पाया तो दर्प-स्फीत हो गए, अपने इष्ट का अनुग्रह पाया तो अमर होने की स्पृहा जग गई, शक्ति का वर पाया तो अत्याचारी बन बैठे, यह तो जीवन की कला नहीं है, न ही जीवन का श्रेय है । कुपात्र के हाथ में तो ज्ञान भी निरापद नहीं, वहां तो कला-ज्ञान-विज्ञान सभी का दुरुपयोग होता है । जिसमें उपर्युक्त विकारों को जीतने का शौर्य हो वही शौर्य स्तुत्य है । ऐसा शौर्यवान व्यक्ति ज्ञान एवं कलाओं को प्रश्रय दे सकता है । ऐसे ही व्यक्ति के हाथों कला सर्वमंगला बनती है । जो स्वयं भयभीत हो, जिसके अस्तित्व या संपदा पर संकट मंडराता हो, वह न कला और न ही लोक का हित कर सकता है ।
प्रस्तुत श्लोक की अगली पंक्तियों में अपने आराध्य का स्तवन करते हए गौरवान्वित अनुभव करता हुआ रावण कहता है कि मैं उन भगवान शिव की आराधना करता हूँ जो कामदलन हैं, स्मरहर हैं । शिवमहिम्न:स्तोत्रम् में पुष्पदंत ने भी उनके मदनारि रूप की महिमा गायी है । एक उदहारण द्रष्टव्य है ।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसधारणमभूत
स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्यः परिभवः ।। (१५ )
अर्थात् देव-असुर-मानव से परिपूर्ण जगत में जिस कामदेव के बाण असिद्ध नहीं होते वह, हे ईश ! आपको एक साधारण देव समझ कर नाम मात्र का हो गया । जितेंद्रियों का अपमान कल्याणकारी नहीं होता । पुष्पदंत ने भी भगवान शिव को त्रिपुरहर, पुरमथन आदि नामों से पुकारा है । तारकासुर के पुत्र विद्युन्माली, तारकाक्ष तथा कमलाक्ष के त्रिपुर को उन्होंने दग्ध कर दिय था, अतः रावण ने यहाँ उन्हें पुरान्तकम् कह कर पुकारा है । रावण अपने आराध्य को गर्व से’ भवान्तकं भी कहता है । सत्य ही है, वे भव रुपी सागर से पार लगाने वाले हैं, अतः इन्हें शिवपुराण में ‘उत्तरो गोपतिगोप्ता ‘ कहा गया है, आवागमन रूपी रोग-दुःख काटने वाले हैं, अतः ‘महौषधिः’ तथा मोक्षादि की कामना पूर्ण करने के कारण’ अर्थिगम्यः ‘एवं गंगाप्लवोदकः’ भी कहा गया है । प्रजापति दक्ष ने मन में शिव के प्रति दुर्भावना रखते हुए उनका अपमान करने के लिये यज्ञ का आयोजन किया था, जो इनके द्वारा नष्ट किये जाने पर इन्हें मखान्तकम् कह कर पुकारा गया । देवशत्रु गजासुर व अन्धकासुर का अंत करने के कारण रावण इन्हें गजान्तकान्धकान्तम् कह कर पुकारता है । वे काल के भी काल हैं, अर्थात यम का भी अंत कर दें ऐसे सामर्थ्यवान हैं, अतः तमन्तकान्तकम् कहते हुए उनकी स्तुति करता है । भगवान शंकर का स्तवन मृत्युंजय मन्त्र से भी किया जाता है । स्कंदपुराण में एक स्थल पर देवी गायत्री और देवी सरस्वती भगवान महेश्वर का स्तवन करती हुईं उन्हें “जगदंतकरक्रूरः ! यमान्तकः” कहती हैं ।
जगदंतकरक्रूरः ! यमान्तकः ! नमोस्तुते ।
अर्थात्, हे जगत को मोहित करने वाले, पंचशर का नाश करने वाले, हे यम का भी अंत करने वाले देव !आपकी सेवा में हमारा नमस्कार अर्पित है । महाभारत की एक कथानुसार शिवाराधक द्रोणाचार्य ने शिवजी से अपने पुत्र अश्वत्थामा का अमरत्व माँगा था, जिससे उनके पुत्र के प्रलय-पर्यन्त जीवित रहने का उन्हें वर प्राप्त हुआ । मृकण्ड मुनि के पुत्र मार्कण्डेय, जो अल्पायु थे, यम से महादेव द्वारा बचाये गए । इस प्रकार रावण ने सुन्दर और सशक्त शब्दों में अपनी निष्ठा को अपने आराध्य के प्रति अर्पित किया है । जाह्नवी-जलार्द्र शीशवाले जटा -शंकर समाज में एक दूसरे के सानुकूल रहने का संदेश देते हुए जीने की कला सिखाते हैं ।
प्रस्तुत श्लोक में भगवान शंकर का लोकरंजक एवं लोकरक्षक रूप लक्षित होता है ।
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ख़र्च के बदले खर्व होगा मैडम इसे सुधार ले।आपका ये प्रयास सराहनीय है और मुझ जैसे शिव के उपासक के लिए अमृत समान है।
आदरणीय मनीष कुमारजी , आपने कृपापूर्वक इस अशुद्धि पर हमारा ध्यान खींचा, इसके लिये आपका आभार प्रकट करती हूँ । इसे सुधार दिया है । इति शुभम् ।
बहुत बहुत धन्यवाद।