महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

श्लोक ८

Shloka 8

अयि शरणागतवैरिवधूजनवीरवराभयदायिकरे
त्रिभुवनमस्तकशूलविरोधिशिरोधिकृतामलशूलकरे ।
दुमिदुमितामरदुन्दुभिनादमुहुर्मुखरीकृतदिङ्निकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।

अयि शरणागतवैरिवधूजनवीरवराभयदायिकरे
अयि = हे
शरणागतवैरिवधूजनवीरवराभयदायिकरे शरणागत + वैरिवधूजन + वीरवर + अभयदायिकरे
शरणागत = शरण में आईं हुईं
वैरिवधूजन = शत्रु-पत्नियां
वीरवर = शूरवीर पति
अभयदायिकरे = (हे) अभयदान देने वाले वाले हाथ वाली
त्रिभुवनमस्तकशूलविरोधिशिरोधिकृतामलशूलकरे
त्रिभुवनमस्तकशूलविरोधिशिरोधिकृतामलशूलकरे त्रिभुवन + मस्तक + शूलविरोधी + शिर: + अधिकृत + अमल + शूलकरे
त्रिभुवन = तीन लोक (तीनो लोकों में)
मस्तक = सबसे ऊंचा
शूलविरोधी = ( माँ के) त्रिशूल के विरुद्ध है जो
शिर: = सिर
अधिकृत = अधिकार में किया हुआ
अमल = मलरहित, चमकता हुआ
शूलकरे = (हे) हाथ में त्रिशूल रखने वाली (माँ)
दुमिदुमितामरदुन्दुभिनादमुहुर्मुखरीकृतदिङ्निकरे
दुमिदुमितामरदुन्दुभिनादमुहुर्मुखरीकृतदिङ्निकरे दुमिदुमित + अमर + दुन्दुभि + नाद: + मुहु: + मुखरीकृत + दिङ्निकरे
दुमिदुमित = दुम् दुम् इस प्रकार से गूँजती ध्वनि
अमर = देवता
दुन्दुभि = यह एक प्रकार का ढोल है
नाद: = ध्वनि
मुहु: = बार-बार
मुखरीकृत = शब्दमय बनाती हुई
दिङ्निकरे = (हे) दिशा- समूह को (गुंजायमान करती हुई देवी)
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते
महिषासुरमर्दिनी महिषासुर + मर्दिनी
महिषासुर = यह एक असुर का नाम है ।
मर्दिनी = घात करने वाली
रम्यकपर्दिनि रम्य + कपर्दिनि
रम्य = सुन्दर, मनोहर
कपर्दिनि = जटाधरी
शैलसुते = हे पर्वत-पुत्री

अन्वय

अयि शरणागत वैरिवधूजन वीरवर अभयदायिकरे (हे) त्रिभुवन मस्तक शूलविरोधी शिर: अधिकृत अमल शूलकरे (हे) दुमिदुमित अमर दुन्दुभि नाद: मुहु: मुखरीकृत दिंग्निकरे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।

भावार्थ

शरण में आई हुईं पतिपरायण शत्रुपत्नियों के योद्धा-पतियों को अभय प्रदान करने वाले हाथ हैं जिसके ऐसी हे देवी एवं अपने त्रिशूल-विरोधी के मस्तक को, चाहे  वह त्रिभुवन का स्वामी ही क्यों न हो, अपने उज्जवल त्रिशूल से अपने अधिकार में करने वाली हे (त्रि)शूलधारिणी और हे  दुमि-दुमि की ताल पर बजने वाली देवताओं की  दुन्दुभि के नाद को दिशाओं में बार-बार शब्दायमान करवाने वाली,  हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिनन्दिनि तुम्हारी जय हो, जय हो !

व्याख्या

महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् के छठे श्लोक में देवी के रणचंडी रूप के दर्शन होते हैं, जहाँ वे केवल कोपमयी ही नहीं, कृपामयी भी हैं । रण में जब देवी का क्रोध फूटता है, तो शत्रु-पत्नियों के भाग फूटते हैं । क्रोध से भरी हुई देवी को रण में शत्रुओं का विनाश करते हुए देख कर वैरियों की पतिव्रता पत्नियों के हृदय सिहर उठते हैं  और भयभीत हो कर अपने सौभाग्य की रक्षा के लिए वे उनकी शरण में आती हैं । माँ दुर्गा तो हैं ही अखण्ड सुहाग की देवी । वे सर्वमंगला तब उनके शूरवीर योद्धा स्वामियों को अभय प्रदान कर उन पर कृपा करती हैं । अभय देने से तात्पर्य है कि उन्हें मृत्यु-भय से मुक्त करती हैं, उनके प्राणों का हरण नहीं करतीं । इस प्रकार वे दयालु देवी शरणापन्न वैरिवधूवर (शत्रु-पत्नियों) के सुहाग-सिन्दूर की रक्षा करती हैं ।

देवी रण में कुपित हो कर घूमती हैं, बाणों की वर्षा करती हैं, खड्ग से दैत्यों का शिरोच्छेदन करती हैं तथा शत्रुदल में हाहाकार मच  जाता है । इस श्लोक में कवि कहता है कि उनके अमल अर्थात् पावन  त्रिशूल का जो कोई भी विरोधी होता है, चाहे वह त्रिभुवनमस्तक अर्थात् तीनों लोकों का अधिपति  ही क्यों न हो, वे उसके मस्तक को अपने पावन त्रिशूल से अपने अधिकृत कर लेती हैं, उसे त्रिशूल से बींध देती हैं । उनके त्रिशूल का विरोधी होने से तात्पर्य है अधर्मी होना, अत्याचारी और परपीड़क होना । एतदर्थ देवी को त्रिभुवनमस्तकशूलविरोधिशिरोऽधिकृतामलशूलकरे कहा । इस संबंध में ब्रह्मलीन धर्मसम्राट स्वामी करपात्रीजी महाराज के लेख में कही गई उनकी यह बात बड़ी युक्तियुक्त लगती है, “संग्राम करते हुए भी भगवती के हृदय में दया ही बनी रहती है । कर्कशता के साथ तीक्ष्णातितीक्ष्ण शस्त्रास्त्र-प्रयोग करते समय भी उनके हृदय में दया ही बनी रहती है । अन्यथा कुपित दृष्टि से ही वे विश्व के समस्त दैत्यों का संहार कर सकती थीं, फिर शस्त्र-प्रयोग की क्या आवश्यकता थी ? शस्त्र-प्रयोग तो केवल इसलिये था कि शस्त्रों से पवित्र हो कर दुष्ट दैत्य लोग भी सद्गति को प्राप्त कर लें ।” इससे स्तुतिकार द्वारा देवी के शूल को अमल  पवित्र कहने की बात स्पष्ट रूप से समझ में आती है ।

आगे वर्णन है कि देवता दुन्दुभि (एक प्रकार का बडा ढोल) बजा कर तुमुल नाद कर रहे हैं । दुन्दुभि एक वैदिककालीन वाद्य है और तब इसका प्रयोग मंगलोत्सव व विजयोत्सव पर किया जाता था । यह एक रणवाद्य है और रण में दुन्दुभि का नाद जयघोष करने के लिये किया जाता है । दुमदुमित से तात्पर्य है दुमदुम की ध्वनि को ध्वनित होते हुए बताना और अमर का अर्थ है देवता । देवों द्वारा उल्लास से नाद करना,  विजय की घोषणा करने का सूचक है । यह देवों द्वारा किया गया आनन्ददायक घोष है, देवी का जयनाद है । अब यहां मुखरीकृत शब्द को समझना आवश्यक है । मुखरित एवं मुखरीकृत के अर्थों में एक छोटा-सा अन्तर यह है कि मुखरित होने का अर्थ है शब्दायमान होना तथा मुखरीकृत का अर्थ है शब्दायमान करना अथवा करवाना । दिङ्निकर का अर्थ है दिशा-समूह, दिङ् शब्द से दिशा तथा निकर शब्द से समूह का बोध होता है । (इसका व्याकरण-सम्मत, सन्धि-विच्छेद सहित रूप नीचे अगले परिच्छेद में बताया गया है।) दुष्टदमनी देवी दैत्यों को काटती हुए उनकी आर्त्त चीत्कारों से, अपनी रौद्र हुंकारों से दुन्दुभि-नाद से प्रतिध्वनित वातावरण को, दिङ्निकर अर्थात् दिशाओं के समूह को और भी अधिक भयंकरता से भर देती हैं और महामृत्यु शब्दायमान हो उठती है ।

इधर रण में देवी उग्रता से शत्रुओं के शिरोच्छेद करने पर कटिबद्ध है । महिषासुर के साथ इस महासंग्राम में क्रुद्ध देवी का रूप, उनका शौर्य उनका आक्रमण, उनका गर्जन सभी कुछ चण्ड है । उनकी गर्जना की भयोत्पादक प्रतिध्वनियों से रिपुओं के कलेजे  सिहर उठते हैं  कराल काल के समान दैत्यों को कंपायमान करती देवी का प्रखर तेज दुस्सह है । यह उनका उग्रचण्डा रूप है । देव-दुन्दुभि का तुमुल नाद उग्र तथा उज्ज्वल देवी के प्रभूत पराक्रम से प्रबल हो कर सप्राण हो उठता है । वे तेजस्विनी देवी सुतप्त भी हैं और सुदीप्त भी, अर्थात् उनमें प्रचण्ड ताप भी है तथा स्नेह की सौम्य दीप्ति भी, वे जलाती भी हैं और जगमगाती भी हैं । क्यों न हो, उनका आविर्भाव देवताओं द्वारा प्रदान किये गये उनके अपने अपने सात्त्विक तेज़ के अंशों से जो हुआ था, उन्हीं के अभीष्ट कार्य को सिद्ध करने के लिये । इस प्रकार तेजोपुंज देवी के उग्रचण्डा रूप की सक्रिय करालता देव-दुन्दुभिनाद द्वारा  निर्मित वातावरण को उत्तेजित और ऊर्जस्वित करके और अधिक कोलाहलमय कर देती है । देवी को दिङ्निकरे कह कर यहां संबोधित किया है । इसमें सन्धियुक्त शब्द दिङ्निकरे में दिङ् + निकरे यह दो शब्द हैं, सन्धि अलग करने से यह बनता है दिक् + निकरे । अब व्यंजन सन्धि के नियमानुसार क् के बाद अनुनासिक न् के आ जाने से दिक् शब्द का शब्दान्त (पदान्त) अनुनासिक हो जायेगा और यदि पंचम वर्ण हो तो उसके स्थान पर भी पंचम ही वर्ण पहले शब्द के अन्त में लगेगा । दिक् के बाद निकरे में नि तवर्ग का पंचम वर्ण है, अतएव दिक् का दिङ् बन जाता है, क्योंकि ङ् पंचम वर्ण है कवर्ग का । ( उदाहरण के लिये इस तरह के कुछ अन्य शब्द हैं, षट् + मासा: = षण्मासा: , वाक् + मयम् = वाङ्मयम् , चिद् + मय = चिन्मय इत्यादि ) यहां क्योंकि यह संबोधन है दिङ्निकरा का, इसलिये दिङ्निकरे हो गया, जो पूरे बड़े शब्द के साथ मिल गया है । इससे अभिप्रेत अर्थ है कि देव-दुन्दुभि के घोष को बार-बार (अपने कराल पराक्रम से) शब्दायमान करके दिशा-निकर अर्थात् दिशा-समूह को गुंजित करने वाली हे देवी । देवी की भयंकरी व शुभंकरी प्रखरता पर प्रकाश डाला है । दैत्य-समूह को आतंकित करने से वे भयंकरी हैं व देव-समाज को आनन्दित करने से शुभंकरी हैं ।  कवि कह उठता है कि दशों दिशाओं को बार-बार कोलाहल-त्रस्त करती हुईं तथा अपने अमित विक्रम से वातावरण व उसमें गुंजरित नाद को और भीषण बना कर रिपु को कम्पायमान कर देने वाली हे  दिङ्निकरे !  हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिनन्दिनि तुम्हारी जय हो, जय हो !

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7 comments

  1. संदीप कुमार says:

    “दिङ्मकरे” के स्थान पर “तिग्मकरे” होना चाहिए। कृपया पुनः अवलोकन करें।

  2. संदीप कुमार says:

    कृपया “तिग्मकरे” का अर्थ का भी व्याख्या में उल्लेख करें।

    • Avinash Bhatia says:

      Dear Sandeep ji,

      Your suggested corrections, along with meaning is now up on this page.

      Thank you for your interest and initiative!

      With regards,
      Avinash

  3. ks says:

    दिंग्निकरे ka sandhi viched kare to ding plus nikare ,,,दिङ्ग ka matlab dictionary me to nahi mila but …दिङनिकरे ka sandhi viched sahi ho sakta hai दिङ plus निकरे
    .दिङ matlab dish ya disha..or nikar matla — a treasure, the best of anything, a treasure belonging to कुबेर, abundance… kripya check kriye…

    • Kiran Bhatia says:

      आपकी शंकाओं का विस्तार से आठवें श्लोक की व्याख्या में आज ही समाधान कर दिया गया है, कृपया पृष्ठ पर उसे पढ़ लें । फिर भी कोई शंका शेष हो तो निस्सन्देह आप प्रश्न कर सकते हैं । आजकल ङ् के स्थान पर बिन्दु का प्रचलन हो गया है, कुछ तो सुगमता के कारण व कुछ इसलिये कि हर कम्प्यूटर में हिन्दी की font में यह वर्ण लब्ध नहीं है । इति शुभम् ।

    • Kiran Bhatia says:

      देवीस्तोत्ररत्नाकर पुस्तक में पृष्ठ संख्या २३९ (239) पर है, श्रीसंकटास्तुति: शीर्षक से । पुस्तक का code no. 1774 है ।

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