शिवताण्डवस्तोत्रम्
श्लोक १४
Shloka 14 Analysisनिलिम्पनाथनागरी कदम्बमौलिमल्लिका-
निगुम्फनिर्भर क्षरन्मधूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहर्निशं
परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चयः ।।
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका | → | निलिम्पनाथ + नागरी |
कदम्ब + मौलि + मल्लिका | ||
निलिम्पनाथ | = | अमरनाथ , शिव |
नागरी | = | चतुर स्त्री |
निलिम्पनाथनागरी | = | शिवजी की प्रवीण पत्नी, पार्वती |
कदम्ब | = | समुच्चय , गुच्छा |
मौलि | = | शीश |
मल्लिका | = | मल्लिका (चमेली) के पुष्प |
कदंबमौलिमल्लिका | = | मल्लिका (चमेली) पुष्पों की माला |
निगुम्फनिर्भरक्षरन् मधूष्णिकामनोहरः | → | निगुम्फ + निर्भर + क्षरन् + |
मधूष्णिका + मनोहरः | ||
निगुम्फ | = | गुम्फित |
निर्भर | = | पूरित |
क्षरन् | = | झरते हुए |
मधूष्णिका | = | मधुकण, पराग |
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीमहर्निशं | → | तनोतु नो मनोमुदं |
विनोदिनीम् + अहः + निशं | ||
तनोतु | = | रक्षा करें |
नो | = | नः (= हमारी) |
मनोमुदं | = | मन को मुदित करने वाली |
विनोदिनीम् | = | सुप्रसन्न, हर्षिता |
अहः | = | दिन, दिवस |
निशं | = | रात |
परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चयः | → | परश्रियं परं पदं |
तद् + अंगज + त्विषां + चयः | ||
परश्रियं | = | परम श्री |
परं पदं | = | परम पद |
तद् | = | वह |
अंगज | = | अंग से प्रस्फुटित |
त्विषां | = | प्रभा, तेज |
चयः | = | पुंज, राशि |
अन्वय
भावार्थ
पार्वती के केशपाश में गुंथी हुई चमेली के फूलों की पुष्पमाल से झरते हुए मधुकणों से पूरित और अपने अंगों से निःसृत तेजोराशि से शिव की देह मनोहर कांतिमय, सुरभिमय हो रही है । निशि-दिवस हमें प्रसन्न रखने वाली, मुदित रखने वाली परम शोभा-शालिनी श्री के देने वाले तथा परम पद अर्थात् मोक्ष के प्रदाता भगवान शिव हमारी रक्षा करें ।
व्याख्या
शिवताण्डवस्तोत्रम् के १४ वें श्लोक में रावण अपने आराध्य से प्रार्थना करता है कि देवी पार्वती के केशपाश में गुंथी हुई चमेली के फूलों की पुष्पमाल से झरते हुए मधुकणों से पूरित, मनोहारी और अपने अंगों से निःसृत तेजोराशि से कांतिमय तथा परम पद प्रदाता एवं दिन-रात हमें प्रसन्न रखने वाली, मुदित रखने वाली परम शोभा-शालिनी श्री के देने वाले शिवजी हमारी रक्षा करें ।
प्रस्तुत श्लोक में भगवान शिव के माधुर्यमय एवं परं पद अर्थात् मोक्ष-प्रदाता रूप के दर्शन होते हैं, साथ ही भक्तों को उनका मनोवांछित फल देने के हेतु वे महामायापति परम लक्ष्मी का वरदान देकर उनका अभीष्ट भी सिद्ध करते हैं । इस प्रकार इनका परम श्री-प्रदाता रूप भी इस श्लोक में नयनगोचर होता है । यहाँ शिव तथा शक्ति की अभिन्नता भी लक्षित होती है । शिव उमेश, गिरिजाधव, पार्वतीनाथ, भवानीपति हैं और देवी पार्वती शर्वाणी, शिवकांता, महेशानी हैं, शिवजी की प्रवीण पत्नी हैं । शिवजी निलिम्पनाथ हैं, क्योकि देवगण उन्हीं से सनाथ हैं । निलिम्प का अर्थ देवता होता है ।अतः स्तुतिकार ने उनकी कुशल कुटुम्बिनी (गृहिणी) देवी पार्वती को निलिम्पनाथनागरी कह कर पुकारा है । चारुविलास-चंचला होने से उन्हें नागरी कहा । मन्दहासमुदित वे विनोदिनी अपने केशपाश में गुंथे हुए पुष्पों से महक रही हैं । वे ऐश्वर्यों को देने वाली परम शोभा से समन्वित परं श्री हैं, उन्हीं से शिव श्रीकण्ठ और श्रीनिवास कहलाये जाते हैं । वे शिव की शक्ति भी हैं और भक्त भी । शिव ही शिवा हैं और शिवा ही शिवरूपिणी हैं, अतएव ललितापति शिव का रूप लावण्य-माधुर्य युक्त है । स्तुतिकार का कहना है कि शिववल्लभा पार्वती की वेणी के पुष्पों से क्षरित मधुकणों से, परिमल-पराग से प्रपूरित होकर पार्वतीनाथ मनोहारी छटा से शोभित हो रहे हैं, सुरभित हो रहे हैं । यह उनकी शक्ति की सुगंध है, उनकी अर्धांगिनी की सुगंध है । यहाँ उनका सुरभित होना चन्दन आदि अंगराग अथवा अन्य पुष्पों से नहीं है, अपितु उनकी प्राणवल्लभा के केश-कलाप में गुम्फित मल्लिका-पुष्पों के झरते हुए मधुकणों से हैं । यहाँ देवाधिदेव की मनोहारिता पर देवेश्वर-दयिता अथवा देवेश्वर-मोहिनी की रूप-माधुरी का प्रतिबिम्ब स्पष्ट है । रावण ने उन्हें तदंगजत्विषाम् चय: कह कर पुकारा है अर्थात् अपने श्रीअंग से प्रस्फुटित प्रभा-पुंज की कान्ति से वे तेजोराशि देदीप्यमान हैं । शिवपुराण में श्रीविष्णु ने शिवजी के सहस्रनामों का कीर्तन किया है तथा हिरण्यरेता, ओजस्वी, प्रकाशात्मा, प्रकाशक, ज्योतिस्तनुज्योतिः, रोचिष्णु आदि नामों से उन्हें पुकारा है, यह सभी नाम भगवान शिव के तेजोराशि-रूप के वाचक हैं । वहां उनका एक नाम परमं भी है,जिसका अर्थ विद्वान लेखक आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार है ‘परम शोभा से समन्वित अथवा मुक्तिस्वरूपिणी लक्ष्मी के दाता’ । शिवपुराण में पुष्पमयकेशकलाप से युक्त माता पार्वती के लिए बहुत ही सुन्दर शब्द-प्रयोग मिलता है – विचित्रपुष्पसंकीर्णकेशपाशशोभिताम् ।
श्री सदैव अपूर्व शोभा से समन्वित हिरण्यमयी हैं । वे भक्तों को सर्वथा तृप्त करती हैं । श्रीसूक्तम् में उन्हें आर्द्रा, तृप्ता और तर्पयन्ती आदि कह कर पुकारा गया है, जिसका अर्थ है दया और करुणा से आर्द्र ह्रदय वाली, सर्वथा तृप्त एवं भक्तों को भी तृप्त करने वाली । उन परम शक्ति की कृपा-दृष्टि मन को मुदित करने वाली है, और अहर्निश सुख देने वाली है । वे ही महामाया, इच्छास्वरूपा तथा विरक्ति-स्वरूपा हैं । देवी भागवत में लिखा है कि भगवती विश्व का उपसंहार करके अपने रहस्यपूर्ण कृत्य पर इस प्रकार प्रमुदित होती हैं, जिस प्रकार मनोहारी नाटक की रचना पर सफल नट संतुष्ट होता है । ऐसी महिमामयी परम श्री की शोभा से समन्वित हैं भगवान उमानाथ ।
परम पद के प्रदाता भी शम्भु ही हैं । स्कन्दपुराण का कथन है कि,
यद्रृच्छयादैवगत्या शिवं संसेवते नरः ।।
अर्थात् संसार-चक्र में बहुत से लोग भ्रमण किया करते हैं । ईशकृपावशात् मनुष्य भगवान शिव का सेवा-स्तवन-अर्चन करता है । ऐसे शिव-परायण लोगों का मायावरण हट जाता है । वे गुणों से अतीत हो जाते हैं । गुणातीत मनुष्य मोक्ष का अधिकारी हो जाता है । भगवान शिव सकल भी हैं व निष्कल भी । सगुण रूप से वे सकल अर्थात अपनी कला के सहित, अपनी समस्त लीलाओं से साकार रूप में हैं तथा निर्गुण रूप में वे कला से रहित हैं । `स्कंद पुराण` के अनुसार शिवलिंग की अर्चना का प्रभाव तो ऐसा है कि पशुगण भी परम पद को प्राप्त कर लिया करते हैं, फिर मनुष्य आदि की तो बात ही क्या है, “पशवोऽपि परं याता किं पुनर्मानुषादयः”। ऐसे अपने आराध्य अमर्त्यनाथ,निलिम्पनाथ से रावण अभ्यर्थना करता है कि वे हमारी रक्षा करें ।
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नमस्कार। मूल श्लोक में विनोदिनींमहनिशं में महर्निशं आएगा।
ध्यान खींचने के लिये धन्यवाद ।
किरन जी जय भोले नाथ,,
आपने इतना अध्ययन किया तांडव स्तोत्र पर सराहनीय है ??पर यदि य़ह बताएँ कि शिव तांडव स्तोत्र किस पुराण या किस ग्रंथ मे उपलब्ध है तो अति कृपा होगी
अभिलाष तिवारीजी, नमो शिवाय ! मुझे पता नहीं है कि शिवताण्डवस्तोत्रम् किस पुराण में उपलब्ध है । आपके उत्तर के लिये रावण संहिता मैंने देखी, किन्तु वहाँ नहीं मिला । संस्कृत साहित्य में स्वतंत्र स्तोत्रादि की सदानीरा पयस्विनी चिर काल से प्रवहमान है । हाँ, उपर्युक्त जानकारी लब्ध होने पर अवश्य साझा कर ली जायेगी । इति शुभम् ।
डॉ किरण भाटिया जी निर्भर: के स्थान पर निर्झर: आएगा ।। निर्झर = मकरन्द का अजस्र बहाव ।। पूरित , भरा हुआ ।। क्षरन् = वेणी में गुम्फित मल्लिका के फूलों का टूटकर गिरने से ।। यह अर्थ आएगा ।। किरण जी मैंने जिन त्रुटियों से आपको अवगत करावाया है उसे संशोधित शब्दों का प्रयोग कीजिए ।। आपके शिव तांडव स्तोत्र की व्याख्या परम उत्तम हो जाएगी ।।
मान्यवर, आपका बताया हुआ अर्थ सुन्दर है । किन्तु हमारा समवबोध ही हमें सही जंचता है । कुछ शब्दों के आपके द्वारा सुझाये गये बदलाव, जिन्हें आपने त्रुटियों की संज्ञा है, हमें मान्य नहीं हैं । हम आपकी शुभ भावनाओं का सम्मान करते हैं । इति नमस्कारान्ते ।
आपकी ये व्याख्या पुस्तक के रूप मे मिल जाएगी क्या ??
नमस्कार ! अभी हमारी कोई भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है ।
आदरणिय ड़ा किरण भाटिया जी नमस्कार ।इस श्लोक में तनोतु का अर्थ रक्षा करना है ।प्रथम श्लोक में विस्तार करना।कृपया स्पष्ट करें।
आदरणिय ड़ा किरण भाटिया जी नमस्कार ।इस श्लोक में तनोतु का अर्थ रक्षा करना है।प्रथम श्लोक में विस्तार करना।कृपया स्पष्ट करें।
दोनों अर्थ सही हैं ।