शर-कान्तार
चिंतन-तरु से लिपट चली विमूढ़ मन की कुंजलता
प्रेय-श्रेय के शर-कान्तार में मूक हो गई मादकता
नन्हा-सा हृत्पिंड तृषा-तुषारापात में ठिठुर गया
रोम-रोम के कनक-कूप से ऐरावत गुजर गया ।
रश्मिरेखा मंद हास की किसी उघड़ती सीपी-सी
कपोलपालि पर तैर गई रहस्य के घूँट पीती-सी
रुनझुन हुई शिराओं में गूंजा स्वर जो कर्ण-कुहर में
चिंगारी-सी चटक गई चटुल नेत्रों के तारा युगल में ।
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