शिवताण्डवस्तोत्रम्
श्लोक ५
Shloka 5 Analysisसहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर –
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ।।
सहस्रलोचनप्रभृत्य शेषलेखशेखर | → | सहस्रलोचन + प्रभृति + अशेष + |
लेख + शेखर | ||
सहस्रलोचन | = | देवराज इंद्र |
प्रभृति | = | आदि, इत्यादि, से ले कर |
अशेष | = | सकल, सभी |
लेख | = | पंक्ति |
शेखर | = | शीश, मुकुट |
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः | → | प्रसूनधूलि + धोरणी + विधूसर + |
अङ्घ्रि + पीठभू | ||
प्रसून | = | फूल |
धूलिः | = | रज, धूलकण |
प्रसूनधूलिः | = | पुष्परज, मधुकण, पराग |
धोरणी | = | अविच्छिन्न श्रेणी |
विधूसर | = | रंजित, धूसरित |
अङ्घ्रिः | = | चरण |
पीठ | = | आधार, पृष्ठ |
भू | = | भूमि, तल |
पीठभू | = | पदतल भूमि |
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः | → | भुजंगराज + मालया + निबद्ध + |
जाटजूटकः | ||
भुजंगराज | = | सर्पराज (यहाँ वासुकि) |
मालया | = | माला से |
निबद्ध | = | बंधा हुआ |
जाटजूटकः | = | जटाजूट |
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः | ||
श्री | = | लक्ष्मी, संपदा |
चिराय | = | लम्बे समय तक, दीर्घ काल तक |
जायतां | = | बनी रहे |
चकोर | = | एक पक्षी जो चंद्रकिरणों का पान करता है |
बंधु | = | मित्र, प्रेमास्पद |
शेखरः | = | मुकुट, शीश का आभूषण |
अन्वय
( यस्य ) अंघ्रिपीठभू: सहस्रलोचन: प्रभृति अशेष शेखर लेख प्रसूनधूलि धोरणी विधूसर ( यस्य) जाटजूटक: भुजंगराज मालया निबद्ध ( स:) चकोरबन्धुशेखर: ( में ) श्रियै चिराय जायताम् ।
भावार्थ
भगवान शिव के चरणों में नमस्कार निवेदन करने के लिये इन्द्र सहित समस्त देवता उपस्थित हुए हैं और उन सभी देवों के सिरों की दूर-दूर तक लंबी पंक्ति दिखाई पड़ती है अर्थात् एक बड़ी संख्या में देव वहां उपस्थित हैं । और इन सभी देवताओं के मस्तकों पर स्थित फूलों से पराग की धूल ही धूल उड़ती जा रही है, झरती जा रही है । इस तरह परागकणों के निरन्तर शिवपदों पर झरते रहने के कारण शिवजी की पादपीठ पुष्पधूल से धूसरित हो रही है । शिवजी का जटाजूट महासर्प की माला से बंधा हुआ है । रावण अभ्यर्थना करते हुए भगवान से विनय करता है कि हे चंद्रशेखर ! मेरी श्री अर्थात् राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक अक्षुण्ण बनी रहे ।
व्याख्या
शिवताण्डवस्तोत्रम् के रचयिता रावण का कहना है कि भगवान शिव के चरणों में प्रणिपात करने के लिये सहस्रलोचन अर्थात् देवराज इन्द्र सहित सभी देवता जब शम्भु के आगे समागत होते हैं, तब दूर-दूर तक इनके शीशों की मुकुटावली दृष्टिगोचर होती है । सब ओर मुकुट-मण्डित मस्तकों की श्रेणियां-ही-श्रेणियां । शिव के पावन पदों में नमन करने के लिए देवगण झुकते हैं, तब उनके मुकुटों पर अवस्थित पुष्पों की अविरत और अविरल प्रसूनधूलि अर्थात् पुष्पधूल धूर्जटि के पदों पर बिखरती-बिछलती हुई उनकी पादपीठ को धूसरित कर देती है विधूसरांघ्रिपीठभू: । परागकणों की पुष्कलता ही बताती है कि चंद्रमौलि के चरणों के स्पर्शाभिलाषी सुरगण एक बड़ी संख्या में समुपस्थित हैं । परागकणों के सतत झड़ने से शिवजी के पादपीठ के तल पर तह बन गई है फूलधूल की । स्तोत्रकार रावण अभ्यर्थना करता है उन सर्वेश्वर की, जो सुरेश सहित सकल सुरवृन्द से वन्दित हैं तथा पादपीठ है जिनकी प्रचुर पुष्परज से पगी हुई । वह सुरासुरवन्द्य देवाधिदेव से विनय करता है कि उसकी संपदा, उसकी श्री चिरकाल तक अक्षुण्ण रहे ।
भगवान शिव के परम आराधक रावण ने अगली पंक्ति में भगवान महाजटी के जटाजूट का भव्य रूपांकन किया है । शंकर ने अपने केशों को ऊपर उठा कर अपने जटा-कलाप को भुजंगराज से बाँध रखा है । केश-वेश भयावना भी है, भव्य भी है और अद्भुत भी । ध्यातव्य है कि भुजंगराज से तात्पर्य शेषनाग से नहीं है, जैसा कि सामान्यतः मान लिया जाता है । सुधी पाठक के मन में यह प्रश्न उठता है कि शेषनाग की शैय्या पर तो श्रीविष्णु आसीन हैं तो उन भुजंगराज की माला से शिवजटा से कैसे बद्ध हो गई ! वस्तुतः वासुकि भी सर्पराज या भुजंगराज कहे जाते हैं । भुजंगराज वासुकि ने अपनी भक्ति से शिव-सान्निध्य का वरदान प्राप्त किया था, जिसके फलस्वरूप वे करुणासिन्धु शिव के कंठहार बने । अपनी जटाजूट को जिन्होंने महासर्प की माला से बाँधा हुआ है, उन शिव की रावण स्तुति करता है तथा उन्हें चकोरबन्धुशेखर कह कर पुकारता है व कहता है कि वे भगवान चन्द्रशेखर उसकी साम्राज्य-लक्ष्मी को चिरस्थायिनी बनाये रखें । वस्तुतः चकोर वह पक्षी-विशेष है जिसके लिए प्रसिद्ध है कि चन्द्र की किरणें ही उसका आहार हैं । बन्धु से आशय मित्र अथवा प्रीतिभाजन या प्रेमास्पद (व्यक्ति) से है । इस तरह चन्द्रमा ने प्रीति पाई चकोर की, अतएव रावण ने उन्हें चकोरबन्धु कहा है । इस प्रकार चकोरबन्धुशेखर का अर्थ होता है, जिसने धारण किया है चकोरबन्धु को अपने शीश पर । दूसरे शब्दों में कहें तो चन्द्रशेखर अर्थ व्यक्त होता है । चकोरबंधु के अलावा चँद्रमा को कुमुदबंधु तथा कैरवबंधु भी कहते हैं । कुमुद तथा कैरव का अर्थ श्वेत कुमुदिनी है, जो चन्द्रोदय के समय खिलती है । विनयविभोर रावण कहता है कि भगवान चंद्रशेखर उसकी श्री को, साम्राज्य-लक्ष्मी को अक्षुण्ण रखें, चिरस्थायिनी बनायें रखें ।
रावण अकूत एवं अकल्पनीय सम्पदा का स्वामी था । उसकी स्वर्णलंका की शोभा के सम्मुख अमरावती निष्प्रभ लगती थी । श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में लंका तथा रावण के प्रासाद का विशद वर्णन प्राप्त होता है । रावण के प्रासाद में मणियों की सीढ़ियां तथा सोने की खिड़कियां बनी थीं । उसका भूतल स्फटिक मणि से बना था, जहाँ बीच-बीच में हाथीदांत से विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनी थीं मोती, हीरे, मूंगे, चांदी व सोने के द्वारा भी उसमें अनेक प्रकार के आकार अंकित किये गये थे । पुष्पक विमान सहित रावण की विपुल लक्ष्मी का और भी भव्य विवरण आदि कवि ने दिया है ।
स्तोत्रगायक रावण अपनी स्वर्णिम साम्राज्य-लक्ष्मी को सदा अनपायिनी और चिरस्थायिनी बनाये रखने की प्रार्थना भगवान महाकाल से करता है ।
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इन्द्र को सहस्रलोचन क्यों कहा जाता है जबकि सहस्त्र का अर्थ है दस हजार और लोचन का अर्थ है नेत्र
‘ सहस्रलोचन ‘ का केवल शाब्दिक अर्थ ही न लिया जाये। हजार आंखों वाला होना से जागरूकता के अर्थ का भी बोध होता है। ‘ सहस्राक्ष ‘ शब्द का संस्कृत-हिंदी कोश के अनुसार एक अर्थ होता है जागरूक अथवा सजग । वेदों व पुराणों में इंद्रदेव का उल्लेख स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है । पौराणिक कथाएं पढ़ने पर ज्ञात होता है कि देवराज इंद्र को अनेक कारणों से सजग रहना पड़ता है, जैसे देवासुर-संग्राम ,लोक में किसी की कठोर तपस्या, स्वर्ग की रक्षा और कभी इंद्रासन की चिंता । रामायण की कथानुसार वे राम-रावण युद्ध के समय प्रभु श्रीराम के लिए दिव्यरथ एवं अपना सारथि भेजते हैं । अनगिनत कथाएं हैं पुराणों में । अहल्या द्वारा अभिशप्त होने पर उनकी देह सहस्र व्रणों से भर गई थी, वे व्रण अथवा घाव बाद में इंद्र के अनुताप-पीड़ित होने एवं क्षमा-याचना करने पर गौतम ऋषि की करुणा से नेत्रों में बदल गए थे, व तब से वे सहस्राक्ष या सहस्रलोचन कहलाये, ऐसी कथाएं भी लब्ध होती हैं । आशा है, आपकी शंका का समाधान हो गया होगा । इति शुभम् ।
आपके उत्तर में दिए गए उदाहरणों से मैं पूरी तरह से संतुष्ट हूं। धन्यवाद।
आपका स्वागत है । ‘महिषासुरमर्दिनी’ विषयक आपके प्रश्नों के उत्तर यथाशीघ्र माता की कृपा से शब्दार्थ व सन्धि-विच्छेद सहित दे दिये जायेंगे । क्रमानुसार कार्य हो रहा है व कुछ श्लोक हमने पाठकों के सुझावानुसार लगा भी दिये हैं । कृपया अवलोकन करें । इति शुभम् ।
क्या ‘अनविच्छिन्न’ का अर्थ ‘अखंडित’ से है?
आदरणीय दीपक अवस्थीजी, सही शब्द है अनवच्छिन्न , जिसका अर्थ है अखण्डित, अपृथक्कृत, अबाधित व सीमारहित । इसका विलोम शब्द अवच्छिन्न है और इसका अर्थ है पृथक् किया हुआ, सीमित, विकृत आदि । एक और शब्द है अविच्छिन्न , जिसका अर्थ है अविभक्त, अवियुक्त, गुप्त आदि । आपके द्वारा पूछे गये शब्द अनविच्छिन्न में यदि अन् उपसर्ग लगा कर अविच्छिन्न जोड़ा गया है तो यह रूप होगा – अन् + अविच्छिन्न , तब यह अविच्छिन्न का विलोम हो जाने के कारण खण्डित, विभक्त आदि अर्थ देगा, किन्तु ऐसा कोई शब्द देखने में नहीं आया है ।
इति शुभम् ।
नमस्कार.. मैं ‘धोरिणी’ के अर्थ को लेकर शंकित था.. कृपया ऊपर दिए गए अर्थ के आधार पर धोरिणी के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट कीजिए
सर्वप्रथम आपका भूरिश: धन्यवाद । पाँचवें श्लोक में ‘अनविच्छिन्न’ शब्द, जो कि ग़लत टाइप हो गया था, उसे सुधार कर एवं सरल करके ‘अविच्छिन्न’ लिख दिया गया है । सही शब्द था ‘अनवच्छिन्न’ । इस प्रमाद के लिये आपसे व अन्य पाठकों से, जिन्होंने अब तक इसे ग़लत पढ़ा है, क्षमा-प्रसाद पाना चाहूंगी ।
पाँचवें श्लोक में आये हुए ‘धोरणी’ शब्द का अर्थ है किसी वस्तु अथवा क्रिया की अटूट श्रृंखला व दूसरा अर्थ है निरन्तरता, इसमें लगातार होने का भाव निहित है । प्रस्तुत श्लोक में ‘धोरणी’, जिसे ‘धोरणि:’ भी लिखा जाता है, से अभिप्रेत है, शिव-पादपद्मों में नमन निवेदित करते समय देवताओं के किरीटों में लगे पुष्पों से मधुकणों के झड़ने की निरन्तरता, अर्थात् इस क्रिया का सातत्य (सततता) ‘धोरणी’ से लक्षित होता है ।
इति नमस्कारान्ते ।
धन्यवाद.
डॉक्टर किरण भाटिया जी जाटजूटक: के स्थान पर जटाजूटक: आएगा ।। मेरी किताब शिव उपासना पं• शशिमोहन बहल की किताब में जटाजूटक: ही लिखा हुआ है ।। कृपया इस त्रुटि को ठीक करना ।। सबसे उत्तम व्याख्या वह भी परम सुन्दर सटीक शब्दों में है इसके लिए आपका कोटि-कोटि बार तहेदिल से धन्यवाद ।।
आदरणीय अजीतसिंहजी, आपने कृपा करके कतिपय शब्दों की ओर हमारा ध्यान खींचा है । यह देखने में आया है कि भिन्न-भिन्न पुस्तकों में प्राय:पाठभेद मिलता है, अतएव समीचीन है समूचा पाठ एक ही पुस्तक से लेना, ताकि उस पुस्तक-विशेष के साथ पाठ की एकरूपता और शुद्धता बनी रहे । हम यह नहीं कर सकते कि एक पुस्तक से कुछ शब्द तथा अन्य-अन्य पुस्तकों से अलग-अलग शब्द लेकर मूलपाठ को प्रस्तुत करें । हमारी स्रोत-पुस्तक गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक है, जिसकी शुद्धता व प्रामाणिकता हमारे धर्मप्राण जनमानस द्वारा स्वीकृत है । आपने रुचि ली, इसके लिये धन्यवाद । इति शुभम् ।
परम आदरणीया किरण भाटिया जी धोरणी = कतार , श्रेणी , अजस्र आना , ताँता लग जाना , आने का किंवा जाने का क्रम लग जाना , ।। प्रसून धूलि धोरणी विधूसरांघ्रि पीठभू: का अर्थ देवताओं के मुकुट पारिजात के लाल पुष्पों से मण्डित होते हैं ।। जब निलिम्प अध्यक्ष इन्द्र सहित सारे देवता जब भगवान् शिव के प्रफुल्ल कमल के भीतर की परम सुकोमल पंखुड़ियों ( LOTUS PETALS ) के सदृश सुकोमलतम प्रगाढ़तम लाल चरणों में जो बिम्ब फल की अरुणाई को चुरा रहे होते हैं और सच तो यह है ।। उनके चरणकमलों का प्रगाढ़तम लाल रंग त्रिलोकी से अतीत है वैसी अरुणाई परम अद्वितीय है ।। इस अरुणाई की कहीं उपमा तो परम वन्दनीया भगवती सरस्वती जी के पास भी नहीं है और किसी लाल वस्तु से वे करती भी हैं वो उपमा थोरी है ।। कहने का अर्थ अगर हमने परम दिव्य चिन्मयी प्रगाढ़तम अनन्य अनुराग से आप्लावित परम अनुपमी अनपायनी भक्ति में आकण्ठ गोता लगाते हुए भाव से उपासना करके उनके प्रत्यक्ष दर्शन पाकर उनके परम सुकोमल नूतन कमल की परम सुकोमल पंखुड़ियों की सुकोमलता को चुरा लेने वाले परम अद्वितीय प्रगाढ़तम अरुण चरण कमल के अमृत से शतधा सुमिष्ट मकरन्द को आस्वादित कर लें तो मन प्राण और आत्मा में उनके लिए परम अद्वितीय अनुपम अनुराग की हिलोरें उठकर स्नात कर दे ।। रावण कहता है कि ऐसे चरणों की रज पाने के लिए जब वे शीश नवाते हैं तो उस समय उनके मुकुटों में जटित पारिजात पुष्पों का मकरन्द उनके परम अद्वितीय अरुण चरणकमलों पर अजस्र बहता हुआ उनके प्रगाढ़तम चरणों पर निर्झर सदृश गिरता रहता है उस समय उनके परम अद्वितीय चरण कमल परम रस से लबालब भरे और परम कमनीय नीके जान पड़ते हैं ।। उनके चरण उन पुष्पों की रज से वे चरण धूसरित हो जाते हैं उन पुष्पों की रज से और भी अरुण होकर परम सुन्दर भासते हैं ।। नीके लगते हैं ।। भाते हैं ।। मेरी इस व्याख्या से आप परम प्रसन्न हो तो मुझे क्षमा कर देना ।। अगर कोई इस व्याख्या में कहीं तनिक सी भी त्रुटि हो तो मुझे अवगत करवाना ।। आशा है इस व्याख्या से आपके इस शिव तांडव स्तोत्र की परम अनुपमी परम सुन्दर व्याख्या में चार चाँद लग जाएँगे और हर किसी की शंका मिट जाए ।। एक विनीत दास का छोटा सा प्रयास
मान्यवर, आपकी अतीव सुंदर व्याख्या के लिये साधुवाद । मैंने श्लोकों की व्याख्या करते समय अपनी मानस-भूमि पर उतरते-उभरते भावों को व्यक्त किया है । इति नमस्कारान्ते ।
परम आदरणीया किरण भाटिया जी आपके मेरी व्याख्या के प्रति परम सुन्दर भाव देखकर चित्त गद्गद हो गया कि मेरी यह व्याख्या किसी के काम तो आएगी ।। मेरा यह छोटा सा प्रयास सफल रहा ।। मेरी इस व्याख्या को पढ़कर परम आह्लादित होकर आपके भीतर भगवान् शिव के प्रति आपका परम अनन्य अनुराग हुआ है तभी तो आपने लिखा है कि मैंने अपनी मानस भूमि पर उतरकर अपने भाव व्यक्त किए हैं क्या मेरा लिखना शत प्रतिशत सही है ? मेरे भीतर यही भाव बना रहा ।। मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ कि मैंने अपनी किताब में से शिव तांडव स्तोत्र के पाठ भेद की ओर आपका ध्यान आकृष्ट किया ।। आपने ठीक ही लिखा था अपने- अपने स्थान पर पाठभेद मिल भी जावें तो हम वैसा भी गा सकते हैं ।। मैं तो प्रतिदिन ऊपर लिखित शब्दों से ही गा लेता हूँ ।। यह सब ठीक ही है ।। आप मेरे लिए परम वन्दनीया हैं ।। किरण भाटिया जी सब के प्रति शुद्ध भाव हो तो शिव तांडव स्तोत्र कैसे भी गाओ वैसा ही वो सही है ।। क्या मैंने जितना लिखा है उससे आप प्रसन्न हैं ? भगवान् मुझे परम दिव्य चिन्मयी बुद्धि दे जिसके भीतर सबके प्रति परम सुकोमल भाव हों ।। शिव तांडव स्तोत्र की परम सुन्दर व्याख्या ने मेरे जीवन को परम धन्य कर दिया ।। आप पर भगवान् शिव की , उन शितिकण्ठ की परम अनुपम कृपा है जो भगवती शिवा के प्राण सर्वस्व हैं ।। तभी तो आपने इतनी सुन्दर व्याख्या की है अन्यथा इनकी कृपा के बिना एक शब्द लिख पाना तो बहुत दूर उनका भाव ही प्रकट नहीं हो सकता है ।। भगवान् शिव आपको परम अनन्य अनुराग से आप्लावित भक्ति प्रदान करें ।। आपका यह प्रयास आपको आगे तक लेकर जाए ।। मैं आपके परम सुन्दर सद्गुणों की सच्चे मन से अभिलाषा करता हूँ ।। आशा है बीच – बीच मेरी इस व्याख्या से आपके भीतर परम दिव्य अनुपम अनुराग बढ़ेगा ।। परम आदरणीया किरण जी भगवान् शिव आपको सदा परम प्रसन्न रखें ।। आपके भीतर परम दिव्य सद्गुणों का परम अक्षुण्ण , अकूत भण्डार भरा रहे ।। जब मैंने ये व्याख्या की उस समय मेरे भीतर यही भाव चल रहा था ।। मेरी यह व्याख्या आपको अतिशय सुन्दर लगी और आपके भीतर भगवान् शिव के प्रत्यक्ष दरशण की परम अनुपमी महती उत्कण्ठा उदित अवश्य हुई होगी कि शब्दों के भीतर स्वयम् भगवान् शिव ही ये परम सुन्दर शब्द बन गये ।। आपके लिए सदा मंगलमय भाव लिए यहीं तक ही लिख सका ।।
आदरणीय अजीतसिंहजी, पाठकों को हमारी सामग्री अच्छी व उपयोगी लगी, हमारे लिये इतना पर्याप्त है । प्रशंसा-प्रचुर भाषा से कृपया बचें व कमेण्ट को यथासंभव संक्षिप्त रखें । आप विद्वान हैं, अत: जानते हैं कि भक्तजनों के लिये प्रशंसा अपथ्य है । शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद । इति नमस्कारान्ते ।