शिवताण्डवस्तोत्रम्

श्लोक ५

Shloka 5 Analysis

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर –
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ।।

सहस्रलोचनप्रभृत्य शेषलेखशेखर सहस्रलोचन + प्रभृति + अशेष +
लेख + शेखर
सहस्रलोचन = देवराज इंद्र
प्रभृति = आदि, इत्यादि, से ले कर
अशेष = सकल, सभी
शेखर = मुकुट, शीश का आभूषण
लेख = पांति, पंक्ति
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः प्रसूनधूलि + धोरणी + विधूसर +
अङ्घ्रि + पीठभू
प्रसून = फूल
धूलिः = रज, धूलकण
प्रसूनधूलिः = पुष्परज, मधुकण, पराग
धोरणी = अविच्छिन्न श्रेणी
विधूसर = रंजित, धूसरित
अङ्घ्रिः = चरण
पीठ = आधार, पृष्ठ
भू = भूमि
पीठभू = पदतल भूमि
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः भुजंगराज + मालया + निबद्ध +
जाटजूटकः
भुजंगराज = सर्पराज (यहाँ वासुकि)
मालया = माला से
निबद्ध = बंधा हुआ
जाटजूटकः = जटाजूट
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः
श्री = लक्ष्मी, संपदा
चिराय = लम्बे समय तक, दीर्घ काल तक
जायतां = बनी रहे
चकोर = एक पक्षी जो चंद्रकिरणों का पान करता है
बंधु = मित्र, प्रेमास्पद
शेखरः = मुकुट, शीश का आभूषण

अन्वय

( यस्य ) अंघ्रिपीठभू: सहस्रलोचन: प्रभृति अशेष शेखर लेख प्रसूनधूलि धोरणी विधूसर ( यस्य) जाटजूटक: भुजंगराज मालया निबद्ध ( स:) चकोरबन्धुशेखर: ( में ) श्रियै चिराय जायताम् ।

भावार्थ

शिवजी के चरणों में नमस्कार निवेदन करने के लिये इन्द्र सहित समस्त देवताओं की पंक्तियाँ ही पंक्तियाँ उपस्थित हैं । इन्द्रादि समस्त देवताओं के मुकुटों पर स्थित फूलों की परगधूल के निरन्तर झरते रहने से शिवजी की पादपीठ धूल-धूसरित हो रही है । शिवजी का जटाजूट भुजंगराज अथवा महासर्प की माला से बंधा हुआ है । रावण अभ्यर्थना करते हुए भगवान से कहता है कि हे शशिशेखर ! मेरी श्री अथवा राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक अक्षुण्ण बनी रहे ।

व्याख्या

3128218966 (1)शिवताण्डवस्तोत्रम् के रचयिता रावण पांचवें श्लोक में कहते हैं कि जिनका पादार्चन करने के अर्थ इंद्र आदि सभी समुपस्थित देवों के सिरों की दूर दूर तक कतारें दीख पड़ती हैं (उन सभी के सिरों की पंक्तियां ही पंक्तियां दिखाई देती हैं) एवं चरणों में प्रणिपात करने हेतु झुके हुए उनके (इन्द्रादि देवोँ के) मुकुटवर्ती पुष्पों से झरती हुई पुष्पधूल से जिनके पगतल धूसरित अथवा पराग-रंजित हो रहे हैं और अपनी जटाजूट को जिन्होंने भुजंगराज से बाँधा हुआ है वे चन्द्रमाँ से सुशोभित शीश वाले शिव (वे चंद्रशेखर) मेरी संपदा को, मेरी लक्ष्मी को अक्षुण्ण, चिरस्थायिनी बनाएं रखे ।

भगवान शिव सुर, असुर, यक्ष, नाग, किन्नर, सिद्धों, ऋषि-मुनियों सभी द्वारा सदैव वन्दित हैं । उनके पाद-सेवन के निमित्त सहस्रलोचन अर्थात इंद्र सहित सकल देवगण समुद्यत और समुत्सुक रहते हैं क्योंकि वही चरण परमानंद-प्रदाता हैं, जिनका वेद भी गुणगान करते हैं । हमारे शास्त्रों द्वारा देवयोनि भोगयोनि मानी गई है, और मनुष्य योनि व् पशुयोनि क्रमशः कर्मयोनि व दुःखयोनि । देवता यज्ञ-भोक्ता होते हैं तथा प्राक्जन्मकृत पुण्य-संचय के कारण स्वर्ग के सुदुर्लभ भोगों के भोक्ता भी । देवता शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के दिव् धातु से हुई है जिसका अर्थ ‘प्रकाश’ है । इनकी प्रकाश-देह मानी जाती है । देवगण सात्त्विक अहंकार से सृजित होने के कारण पावन व वरदायी हैं । लेकिन वे भी माया से विमोहित रहते हैं । अहंकार से शून्य वे भी नहीं हैं । 8511f565084dfeeab3a61a1958540291वे भोगपरायण हैं । यद्यपि हमारी संस्कृति भोगों का निषेध नहीं करती किन्तु इन भोगों पर धर्म का नियंत्रण अवश्य मानती है । भोगातिशयता पतन की ओर ले जाती है । अतः उन्माद या अभिमान में आ कर की गई गलतियों के कारण स्वर्गलोक के जीव भी शापित हो कर पतित होते हैं । कभी राक्षसों का तपोबल अत्यधिक बढ़ जाने पर भी देवता उनके द्वारा त्रास पाते हैं और त्रिदेवों की शरण में जाते हैं । भगवान शिव अमित ऐश्वर्यों से संपन्न हो कर भी निर्विकार रहते हैं । इंद्र सहित सभी देवता इनके निकट अभ्यर्थना के लिए पहुंचते हैं । शिव-पुराण से एक उदाहरण द्रष्टव्य है, जब तारकासुर से त्रस्त सुरगण सहायतार्थ शम्भु के निकट जा कर प्रार्थना करते हैं ।

त्वं धाता सर्वजगतां त्रातुमर्हसि न प्रभोः ।
त्वं विना कस्समर्थोस्ति दुखनाशे महेश्वरः ।

अर्थात हे महेश्वर ! आप त्रिभुवन के विधाता और रक्षक हैं, अतः आप हमारी रक्षा करें । आपके अतिरिक्त दुःख का नाश करने में अन्य कोई समर्थ नहीं है । और आगे के श्लोकों में कहा है कि सबसे प्रताड़ित और तिरस्कृत हो कर समस्त सुरगण, मुनि-वृन्द और सभी सिद्ध लोग यहाँ आपके पुण्यमय दर्शन के हेतु उपस्थित हुए हैं । इस प्रकार समाधिस्थ महादेव से उत्पीड़ित एवं व्याकुल सकल देव-मुनि-सिद्ध समाज की ओर से नन्दिकेश्वर ने विज्ञप्ति की ।

प्रभुप्रस्तुत श्लोक में रावण का कहना है कि सुरासुरमुनीन्द्र-वन्दित शिव पादपद्म के अमृत-संचारी स्पर्श के अभिलाषी देवता जब अपने अधिपति  सहस्रलोचन अर्थात इंद्र सहित भगवान शिव के सम्मुख समुपस्थित होते हैं तब दूर दूर तक इनकी मुकुटावली ही दृष्टिगत होती है । सब ओर मुकुट-मंडित शीशों की श्रेणियाँ दीख पड़ती हैं । कतारों में खड़े वे सब जब शिव के पदों में नमन करने के लिए झुकते हैं, तब उनके मुकुटों पर अवस्थित पुष्पों की अविरत और अविरल पुष्प-रेणु अथवा पुष्प-धूल महादेव के पदों पर बिखर-बिखर कर उनके पगतल व पगतलधरा को पराग के पिंगल रंग में रंजित कर देती है । इन देवताओं की संख्या बहुत बड़ी है । अतएव शीशों से झरती पुष्परेणु की पुष्कळता या प्रचुरता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । पराग की इसी प्रचुरता के कारण शिव के पगतल व पगतलभूमि पुष्परजकणों से धूल-धूसरित हो उठती है और उनके पगतल पराग के पिंगल रंग से रंजित हो जाते हैं । इस प्रकार उनके सुरंजित पाद-पद्मों की महिमा बखानी है । महादेव उत्कंठित प्राणों को परितृप्ति प्रदान करते हैं ।

भगवन शिव के पदतल के अलावा रावण ने शिव के जटाजूट का भी भव्य रूपांकन किया है । शिव ने अपने केशों को ऊपर उठा कर जटा बाँध ली है और उस जटा-कलाप को भुजंगराज से बाँध लिया है । केश-वेश भयावना भी है तथा भव्य भी । ध्यातव्य है कि भुजंगराज से तात्पर्य शेषनाग से नहीं है, जैसा कि सामान्यतः मान लिया जाता है, अतः सुधी पाठक के मन में यह प्रश्न उठता है कि शेषनाग की शैय्या पर तो श्रीविष्णु आसीन हैं तो वे शेष यहाँ शिवजटा से कैसे बाँध लिए गए ! वस्तुतः वासुकि भी सर्पराज या भुजंगराज कहे जाते हैं । भुजंगराज वासुकि ने अपनी भक्ति से शिव- सान्निध्य का वरदान प्राप्त किया था, जिसके फलस्वरूप वे शिव के कंठहार बने । वासुकि वही विशाल महासर्प हैं, जिन्हें समुद्र-मंथन के समय नेती अर्थात मथने की डोरी बनाया गया था । ‘ब्रह्माण्ड-पुराण’ से एक छोटा सा उद्धरण प्रस्तुत है,

मन्थानम् मंदरं कृत्वा योक्त्रं तु वासुकिम्
प्रारेभिरे प्रयत्नेन मन्थितुम् यादसाम् पतिम् ।

अर्थात् मन्दराचल को मथानी, वासुकि को योक्त्र अर्थात् मथने की डोरी बनाया गया था । फिर सभी ने मिलजुल कर क्षीरसागर को मथने का कार्य प्रबल प्रयास से करना प्रारम्भ कर दिया था ।

रावण आएगे चल कर भगवान चंद्रशेखर से विनय करता हुआ उन्हें चकोरबन्धुशेखर कह कर पुकारता है । ‘चकोर’ वह पक्षी-विशेष है जिसके लिए कहा जाता है कि चन्द्र की किरणें ही उसका आहार हैं । अतः चँद्रमा को यहाँ चकोरबंधु कहा है, बंधु से आशय मित्र, प्रीतिभाजन या प्रेमास्पद (व्यक्ति) से है । इन चकोरबंधु या चन्द्र को शीश पर धारण करने से शिव को चकोरबन्धुशेखर के नाम से अभिहित किया गया । चकोरबंधु के अलावा चँद्रमा को कुमुदबंधु तथा कैरवबंधु भी कहते हैं । कुमुद तथा कैरव का अर्थ श्वेत कुमुदिनी है, जो चन्द्रोदय के समय खिलती है ।

विनयविभोर रावण कहता है कि भगवान चंद्रशेखर उसकी लक्ष्मी को अक्षुण्ण रखें, चिरस्थायिनी बनायें । रावण अकूत एवं अकल्पनीय सम्पदा का स्वामी था । उसकी स्वर्णलंका की शोभा के सम्मुख अमरावती निष्प्रभ लगती थी ।  श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में लंका तथा रावण के प्रासाद का विशद वर्णन प्राप्त होता है । एक छोटी से वानगी यहाँ प्रस्तुत है,

मणिसोपानविकृतां हेमजालविराजिताम्
स्फटिकैरावृत्ततलाम् दांतांतरितरूपिकाम्
मुक्तवज्रप्रवालैश्च रूप्यचामीकरैरपि ।

अर्थात् रावण के प्रासाद में मणियों की सीढ़ियां तथा सोने की खिड़कियां बनी थीं । उसका भूतल स्फटिक मणि से बना था, जहाँ बीच-बीच में हाथीदांत से विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनी थीं मोती, हीरे, मूंगे, चांदी व सोने के द्वारा भी उसमें अनेक प्रकार के आकार अंकित किये गये थे । पुष्पक विमान सहित रावण की विपुल लक्ष्मी का और भी भव्य विवरण आदि कवि ने दिया है । यहाँ एक दृष्टांत ही यथेष्ट है । रावण अपने अतुल पराक्रम से अर्जित अपनी लक्ष्मी को सदा अनपायिनी (अक्षुण्ण) और चिरस्थायिनी बनाये रखने की प्रार्थना पुष्परेणु से सुरंजित पद वाले और भुजंगराज से बंधी हुई जटाजूट वाले भगवान चंद्रशेखर से करता है । तथा उसकी यह प्रार्थना सचमुच समुचित है ।

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15 comments

  1. Sandeep Kumar says:

    इन्द्र को सहस्रलोचन क्यों कहा जाता है जबकि सहस्त्र का अर्थ है दस हजार और लोचन का अर्थ है नेत्र

    • Kiran Bhatia says:

      ‘ सहस्रलोचन ‘ का केवल शाब्दिक अर्थ ही न लिया जाये। हजार आंखों वाला होना से जागरूकता के अर्थ का भी बोध होता है। ‘ सहस्राक्ष ‘ शब्द का संस्कृत-हिंदी कोश के अनुसार  एक अर्थ होता है जागरूक अथवा सजग । वेदों व पुराणों में इंद्रदेव का उल्लेख स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है । पौराणिक कथाएं पढ़ने पर ज्ञात होता है कि देवराज इंद्र को अनेक कारणों से सजग रहना पड़ता है, जैसे  देवासुर-संग्राम ,लोक में किसी की कठोर तपस्या,  स्वर्ग की रक्षा और कभी इंद्रासन की चिंता । रामायण की कथानुसार वे राम-रावण युद्ध के समय प्रभु श्रीराम के लिए दिव्यरथ एवं अपना सारथि भेजते हैं । अनगिनत कथाएं हैं पुराणों में ।  अहल्या द्वारा अभिशप्त होने पर उनकी देह सहस्र व्रणों से भर गई थी, वे व्रण अथवा घाव बाद में इंद्र के अनुताप-पीड़ित होने एवं क्षमा-याचना करने पर गौतम ऋषि की करुणा से नेत्रों में बदल गए थे, व तब से वे सहस्राक्ष या सहस्रलोचन कहलाये, ऐसी कथाएं भी लब्ध होती हैं । आशा है, आपकी शंका का समाधान हो गया होगा । इति शुभम् । 

      • संदीप कुमार says:

        आपके उत्तर में दिए गए उदाहरणों से मैं पूरी तरह से संतुष्ट हूं। धन्यवाद।

        • Kiran Bhatia says:

          आपका स्वागत है । ‘महिषासुरमर्दिनी’ विषयक आपके प्रश्नों के उत्तर यथाशीघ्र माता की कृपा से शब्दार्थ व सन्धि-विच्छेद सहित दे दिये जायेंगे । क्रमानुसार कार्य हो रहा है व कुछ श्लोक हमने पाठकों के सुझावानुसार लगा भी दिये हैं । कृपया अवलोकन करें । इति शुभम् ।

  2. दीपक अवस्थी says:

    क्या ‘अनविच्छिन्न’ का अर्थ ‘अखंडित’ से है?

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय दीपक अवस्थीजी, सही शब्द है अनवच्छिन्न , जिसका अर्थ है अखण्डित, अपृथक्कृत, अबाधित व सीमारहित । इसका विलोम शब्द अवच्छिन्न है और इसका अर्थ है पृथक् किया हुआ, सीमित, विकृत आदि । एक और शब्द है अविच्छिन्न , जिसका अर्थ है अविभक्त, अवियुक्त, गुप्त आदि । आपके द्वारा पूछे गये शब्द अनविच्छिन्न में यदि अन् उपसर्ग लगा कर अविच्छिन्न जोड़ा गया है तो यह रूप होगा – अन् + अविच्छिन्न , तब यह अविच्छिन्न का विलोम हो जाने के कारण खण्डित, विभक्त आदि अर्थ देगा, किन्तु ऐसा कोई शब्द देखने में नहीं आया है ।
      इति शुभम् ।

      • दीपक अवस्थी says:

        नमस्कार.. मैं ‘धोरिणी’ के अर्थ को लेकर शंकित था.. कृपया ऊपर दिए गए अर्थ के आधार पर धोरिणी के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट कीजिए

        • Kiran Bhatia says:

          सर्वप्रथम आपका भूरिश: धन्यवाद । पाँचवें श्लोक में ‘अनविच्छिन्न’ शब्द, जो कि ग़लत टाइप हो गया था, उसे सुधार कर एवं सरल करके ‘अविच्छिन्न’ लिख दिया गया है । सही शब्द था ‘अनवच्छिन्न’ । इस प्रमाद के लिये आपसे व अन्य पाठकों से, जिन्होंने अब तक इसे ग़लत पढ़ा है, क्षमा-प्रसाद पाना चाहूंगी ।
          पाँचवें श्लोक में आये हुए ‘धोरणी’ शब्द का अर्थ है किसी वस्तु अथवा क्रिया की अटूट श्रृंखला व दूसरा अर्थ है निरन्तरता, इसमें लगातार होने का भाव निहित है । प्रस्तुत श्लोक में ‘धोरणी’, जिसे ‘धोरणि:’ भी लिखा जाता है, से अभिप्रेत है, शिव-पादपद्मों में नमन निवेदित करते समय देवताओं के किरीटों में लगे पुष्पों से मधुकणों के झड़ने की निरन्तरता, अर्थात् इस क्रिया का सातत्य (सततता) ‘धोरणी’ से लक्षित होता है ।
          इति नमस्कारान्ते ।

  3. अजीत सिंह says:

    डॉक्टर किरण भाटिया जी जाटजूटक: के स्थान पर जटाजूटक: आएगा ।। मेरी किताब शिव उपासना पं• शशिमोहन बहल की किताब में जटाजूटक: ही लिखा हुआ है ।। कृपया इस त्रुटि को ठीक करना ।। सबसे उत्तम व्याख्या वह भी परम सुन्दर सटीक शब्दों में है इसके लिए आपका कोटि-कोटि बार तहेदिल से धन्यवाद ।।

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय अजीतसिंहजी, आपने कृपा करके कतिपय शब्दों की ओर हमारा ध्यान खींचा है । यह देखने में आया है कि भिन्न-भिन्न पुस्तकों में प्राय:पाठभेद मिलता है, अतएव समीचीन है समूचा पाठ एक ही पुस्तक से लेना, ताकि उस पुस्तक-विशेष के साथ पाठ की एकरूपता और शुद्धता बनी रहे । हम यह नहीं कर सकते कि एक पुस्तक से कुछ शब्द तथा अन्य-अन्य पुस्तकों से अलग-अलग शब्द लेकर मूलपाठ को प्रस्तुत करें । हमारी स्रोत-पुस्तक गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक है, जिसकी शुद्धता व प्रामाणिकता हमारे धर्मप्राण जनमानस द्वारा स्वीकृत है । आपने रुचि ली, इसके लिये धन्यवाद । इति शुभम् ।

  4. अजीत सिंह says:

    परम आदरणीया किरण भाटिया जी धोरणी = कतार , श्रेणी , अजस्र आना , ताँता लग जाना , आने का किंवा जाने का क्रम लग जाना , ।। प्रसून धूलि धोरणी विधूसरांघ्रि पीठभू: का अर्थ देवताओं के मुकुट पारिजात के लाल पुष्पों से मण्डित होते हैं ।। जब निलिम्प अध्यक्ष इन्द्र सहित सारे देवता जब भगवान् शिव के प्रफुल्ल कमल के भीतर की परम सुकोमल पंखुड़ियों ( LOTUS PETALS ) के सदृश सुकोमलतम प्रगाढ़तम लाल चरणों में जो बिम्ब फल की अरुणाई को चुरा रहे होते हैं और सच तो यह है ।। उनके चरणकमलों का प्रगाढ़तम लाल रंग त्रिलोकी से अतीत है वैसी अरुणाई परम अद्वितीय है ।। इस अरुणाई की कहीं उपमा तो परम वन्दनीया भगवती सरस्वती जी के पास भी नहीं है और किसी लाल वस्तु से वे करती भी हैं वो उपमा थोरी है ।। कहने का अर्थ अगर हमने परम दिव्य चिन्मयी प्रगाढ़तम अनन्य अनुराग से आप्लावित परम अनुपमी अनपायनी भक्ति में आकण्ठ गोता लगाते हुए भाव से उपासना करके उनके प्रत्यक्ष दर्शन पाकर उनके परम सुकोमल नूतन कमल की परम सुकोमल पंखुड़ियों की सुकोमलता को चुरा लेने वाले परम अद्वितीय प्रगाढ़तम अरुण चरण कमल के अमृत से शतधा सुमिष्ट मकरन्द को आस्वादित कर लें तो मन प्राण और आत्मा में उनके लिए परम अद्वितीय अनुपम अनुराग की हिलोरें उठकर स्नात कर दे ।। रावण कहता है कि ऐसे चरणों की रज पाने के लिए जब वे शीश नवाते हैं तो उस समय उनके मुकुटों में जटित पारिजात पुष्पों का मकरन्द उनके परम अद्वितीय अरुण चरणकमलों पर अजस्र बहता हुआ उनके प्रगाढ़तम चरणों पर निर्झर सदृश गिरता रहता है उस समय उनके परम अद्वितीय चरण कमल परम रस से लबालब भरे और परम कमनीय नीके जान पड़ते हैं ।। उनके चरण उन पुष्पों की रज से वे चरण धूसरित हो जाते हैं उन पुष्पों की रज से और भी अरुण होकर परम सुन्दर भासते हैं ।। नीके लगते हैं ।। भाते हैं ।। मेरी इस व्याख्या से आप परम प्रसन्न हो तो मुझे क्षमा कर देना ।। अगर कोई इस व्याख्या में कहीं तनिक सी भी त्रुटि हो तो मुझे अवगत करवाना ।। आशा है इस व्याख्या से आपके इस शिव तांडव स्तोत्र की परम अनुपमी परम सुन्दर व्याख्या में चार चाँद लग जाएँगे और हर किसी की शंका मिट जाए ।। एक विनीत दास का छोटा सा प्रयास

    • Kiran Bhatia says:

      मान्यवर, आपकी अतीव सुंदर व्याख्या के लिये साधुवाद । मैंने श्लोकों की व्याख्या करते समय अपनी मानस-भूमि पर उतरते-उभरते भावों को व्यक्त किया है । इति नमस्कारान्ते ।

  5. अजीत सिंह says:

    परम आदरणीया किरण भाटिया जी आपके मेरी व्याख्या के प्रति परम सुन्दर भाव देखकर चित्त गद्गद हो गया कि मेरी यह व्याख्या किसी के काम तो आएगी ।। मेरा यह छोटा सा प्रयास सफल रहा ।। मेरी इस व्याख्या को पढ़कर परम आह्लादित होकर आपके भीतर भगवान् शिव के प्रति आपका परम अनन्य अनुराग हुआ है तभी तो आपने लिखा है कि मैंने अपनी मानस भूमि पर उतरकर अपने भाव व्यक्त किए हैं क्या मेरा लिखना शत प्रतिशत सही है ? मेरे भीतर यही भाव बना रहा ।। मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ कि मैंने अपनी किताब में से शिव तांडव स्तोत्र के पाठ भेद की ओर आपका ध्यान आकृष्ट किया ।। आपने ठीक ही लिखा था अपने- अपने स्थान पर पाठभेद मिल भी जावें तो हम वैसा भी गा सकते हैं ।। मैं तो प्रतिदिन ऊपर लिखित शब्दों से ही गा लेता हूँ ।। यह सब ठीक ही है ।। आप मेरे लिए परम वन्दनीया हैं ।। किरण भाटिया जी सब के प्रति शुद्ध भाव हो तो शिव तांडव स्तोत्र कैसे भी गाओ वैसा ही वो सही है ।। क्या मैंने जितना लिखा है उससे आप प्रसन्न हैं ? भगवान् मुझे परम दिव्य चिन्मयी बुद्धि दे जिसके भीतर सबके प्रति परम सुकोमल भाव हों ।। शिव तांडव स्तोत्र की परम सुन्दर व्याख्या ने मेरे जीवन को परम धन्य कर दिया ।। आप पर भगवान् शिव की , उन शितिकण्ठ की परम अनुपम कृपा है जो भगवती शिवा के प्राण सर्वस्व हैं ।। तभी तो आपने इतनी सुन्दर व्याख्या की है अन्यथा इनकी कृपा के बिना एक शब्द लिख पाना तो बहुत दूर उनका भाव ही प्रकट नहीं हो सकता है ।। भगवान् शिव आपको परम अनन्य अनुराग से आप्लावित भक्ति प्रदान करें ।। आपका यह प्रयास आपको आगे तक लेकर जाए ।। मैं आपके परम सुन्दर सद्गुणों की सच्चे मन से अभिलाषा करता हूँ ।। आशा है बीच – बीच मेरी इस व्याख्या से आपके भीतर परम दिव्य अनुपम अनुराग बढ़ेगा ।। परम आदरणीया किरण जी भगवान् शिव आपको सदा परम प्रसन्न रखें ।। आपके भीतर परम दिव्य सद्गुणों का परम अक्षुण्ण , अकूत भण्डार भरा रहे ।। जब मैंने ये व्याख्या की उस समय मेरे भीतर यही भाव चल रहा था ।। मेरी यह व्याख्या आपको अतिशय सुन्दर लगी और आपके भीतर भगवान् शिव के प्रत्यक्ष दरशण की परम अनुपमी महती उत्कण्ठा उदित अवश्य हुई होगी कि शब्दों के भीतर स्वयम् भगवान् शिव ही ये परम सुन्दर शब्द बन गये ।। आपके लिए सदा मंगलमय भाव लिए यहीं तक ही लिख सका ।।

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय अजीतसिंहजी, पाठकों को हमारी सामग्री अच्छी व उपयोगी लगी, हमारे लिये इतना पर्याप्त है । प्रशंसा-प्रचुर भाषा से कृपया बचें व कमेण्ट को यथासंभव संक्षिप्त रखें । आप विद्वान हैं, अत: जानते हैं कि भक्तजनों के लिये प्रशंसा अपथ्य है । शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद । इति नमस्कारान्ते ।

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