महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक ४
Shloka 4अयि निजहुंकृतिमात्रनिराकृतधूम्रविलोचनधूम्रशते
समरविशोषितरोषितशोणितबीजसमुद्भवबीजलते ।
शिवशिवशुम्भनिशुम्भमहाहवतर्पितभूतपिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
अयि निजहुंकृतिमात्रनिराकृतधूम्रविलोचनधूम्रशते | ||
अयि | = | हे |
निजहुंकृतिमात्रनिराकृतधूम्रविलोचनधूम्रशते | → | निज + हुंकृति + मात्र + निराकृत + धूम्रविलोचन + धूम्र + शते |
निज | = | अपनी |
हुंकृति | = | हुंकार |
मात्र | = | केवल |
निराकृत | = | बिना रूप-आकार का |
धूम्रविलोचन | = | एक दानव का नाम है |
धूम्र | = | धुआं |
शते | = | सौ-सौ (धुएं के) कणों में बदल देने वाली (हे देवी) |
समरविशोषितरोषितशोणितबीजसमुद्भवबीजलते | ||
समरविशोषितरोषितशोणितबीजसमुद्भवबीजलते | → | समर + विशोषित + रोषित + शोणितबीज + समुद्भव + बीजलते |
समर | = | युद्ध (में) |
विशोषित | = | सुखा दिया गया, मार दिया गया |
रोषित | = | क्रुद्ध |
शोणितबीज | = | एक दानव का नाम है |
समुद्भव | = | उत्पन्न |
बीजलते | = | बीजों की बेल-से दिखाई देने वाले दैत्यों को मारने वाली (हे देवी) |
शिवशिवशुम्भनिशुम्भमहाहवतर्पितभूतपिशाचरते | ||
शिवशिवशुम्भनिशुम्भमहाहवतर्पितभूतपिशाचरते | → | शिव + शिव + शुम्भ + निशुम्भ + महाहव + तर्पित + भूतपिशाच + रते |
शिव | = | कल्याणकारी |
शिव | = | मंगलकारी |
शुम्भ | = | एक दैत्य का नाम है |
निशुम्भ | = | एक दैत्य का नाम है |
महाहव | = | महायुद्ध |
तर्पित | = | तृप्त, (तृप्त करने में) |
भूतपिशाच | = | भूत-प्रेत, बेताल आदि (को) |
रते | = | व्यस्त (हे देवी) |
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते | ||
महिषासुरमर्दिनी | → | महिषासुर + मर्दिनी |
महिषासुर | = | यह एक असुर का नाम है । |
मर्दिनी | = | घात करने वाली |
रम्यकपर्दिनि | → | रम्य + कपर्दिनि |
रम्य | = | सुन्दर, मनोहर |
कपर्दिनि | = | जटाधरी |
शैलसुते | = | हे पर्वत-पुत्री |
अन्वय
अयि निज हुंकृति मात्र धूम्रविलोचन निराकृत धूम्रशते (हे) रोषित शोणितबीज समर समुद्भव विशोषित बीजलते (हे) शिव शिव शुम्भ निशुम्भ महाहव तर्पित भूतपिशाच रते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।
भावार्थ
अपनी केवल हुंकार मात्र से धूम्रविलोचन (एक दैत्य का नाम) को आकारहीन करके सौ सौ धुंए के कणों में बदल कर रख देने वाली, युद्ध में शोणितबीज (एक दैत्य का नाम) और उसके रक्त की बूँद-बूँद से पैदा होते हुए और बीजों की बेल सदृश दिखने वाले अन्य अनेक शोणितबीजों का संहार करने वाली, शुम्भ-निशुम्भ से (सबके लिये) कल्याणकारी, मंगलकारी महाहव अर्थात् महायुद्ध में (दैत्यवध करके) भूत-पिशाच आदि को (मानों तर्पण से) तृप्त करने में रत (हे देवि), हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् के सातवें श्लोक में शुम्भ-निशुम्भ नामक दो उत्पीड़क असुर भाइयों व उनके योद्धाओं के साथ देवी के युद्ध का उल्लेख है । जगत में दैत्यों के दुराचार और उत्पीड़न के अधिक बढ़ जाने पर महाशक्ति का आविर्भाव होता है । सृष्टि के आरम्भ में मधु-कैटभ और फिर आगे चल कर महिषासुर का घात करने वाली महाशक्ति एक बार फिर अपने बल के मद में चूर शुम्भ-निशुम्भ नामक दानव-भाइयों के शत्रु के रूप में प्रबल हुई । असुरराज शुम्भ के अत्याचारों और त्रास को समाप्त करने के हेतु देवी का पुनः प्राकट्य हुआ । वरदान-प्राप्ति के बाद अतीव बलशाली बने इन दोनों भाइयों ने देवताओं को हरा कर स्वर्ग से उन्हें भगा दिया तो देवगण देवी की शरण में गए । तब उनकी रक्षा के लिए पार्वती के देहकोश से अम्बिका उत्पन्न हुईं, देहकोश से उत्पन्न होने के कारण वे कौशिकी नाम से प्रसिद्ध हुईं । अम्बिका का रूपत्रिभुवन को मोहने वाला था । वे देवताओं की रक्षा के लिए युद्ध में अग्रसर हुईं । उनके त्रिभुवन-सुन्दर रूप का वर्णन सुन कर असुरराज शुम्भ ने पहले अपने दूत के हाथों अपना प्रणय-सन्देश भेजा, किन्तु देवी ने प्रत्युत्तर में युद्ध करने के लिए कहा तो उसने क्रुद्ध हो कर अपने बलशाली सेनापति धूम्रलोचन को ससैन्य देवी से युद्ध करने के लिए भेजा । प्रस्तुत श्लोक की पहली पंक्ति में इसी धूम्रलोचन के देवी द्वारा मार दिए जाने की बात वर्णित की गई है । वह जब अपने दल-बल के साथ देवी के सम्मुख गया तब देवी की बात सुनकर क्रोध से भर उठा एवं उन्हें मारने दौड़ा, तब देवी ने हुंकार भरी और वह वहीँ उनकी हुंकार मात्र से ही भस्म हो गया । मार्कण्डेय पुराण में लिखा है, हुंकारेणैवतंभस्मचकारामविकांमतः अर्थात् हुंकार भर से ही देवी ने उसे भस्म कर दिया, इस प्रकार वह दैत्य हुंकृतिमात्र से निराकृत हो गया अर्थात् तिरोहित (गायब) हो गया । यहाँ कवि इस बात का उल्लेख करते हुए कहता है कि निज हुंकृति यानि हुंकार से देवी ने धूम्रलोचन को धुंए के सौ सौ कणों में ढेर कर के रख दिया, वह आकारहीन हो गया, अर्थात् भस्मीभूत कर दिया गया (उसकी कोई आकृति न रही) । उसकी असुर सेना भी मारी गई ।
तदुपरांत चंड-मुंड नामक महा असुर भेजे गए व वे भी मारे गए तब शोणितबीज (कहीं कहीं इसका नाम रक्तबीज भी दिया है) नामक बलशाली योद्धा को देवी के साथ युद्ध करने के लिए असुरराज शुम्भ ने भेजा । शोणितबीज को यह वरदान प्राप्त था कि उसके रक्त की जितनी बूँदें पृथ्वी पर गिरेंगीं, उतने असुर उनमें से और उत्पन्न हो जायेंगे । इसलिए, कवि के अनुसार युद्धभूमि में वह असुर शोणित अर्थात् रक्त के बूँद रुपी बीज से बीजों की एक बेल-सी उत्पन्न कर देता था, जिसे यहाँ बीजलता कहा गया है । शोणितबीज अर्थात् रक्तबीज का नाश असम्भव प्रतीत होने पर देवी अम्बिका ने काली से कहा कि “हे चामुण्डे ! मेरे शस्त्र के आघात के द्वारा शोणितबीज के शरीर से निकले रक्त को जल्दी-जल्दी तुम पीती जाओ, जिससे एक बूँद भी रक्त भूमि पर गिरने न पाये ।” इस प्रकार वे काली उसके शरीर से निकलते हुए रक्त को भूमि पर गिरने से पहले ही विशोषित कर जातीं अर्थात् पी जाती । फलस्वरूप कृत्रिम असुर और अधिक उत्पन्न न हुए और अंत में वास्तविक असुर शोणितबीज ही शेष रहा तथा उसका वध देवी अम्बिका ने कर दिया, बिना उसके रक्त की एक भी बूँद को भूमि पर गिराये । इसीलिये दैत्य शोणितबीज को समरविशोषित कहा है । इसमें दो शब्द हैं, समर + विशोषित, समर अर्थात् युद्ध और विशोषित का अर्थ है शुष्क किया हुआ, इसका तात्पर्य हुआ कि युद्ध में जिसका पूरा रक्त पी लिया गया । अतः स्तुतिकार देवी को समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते कह कर सम्बोधित करता है कि अपने समुद्भव से (काली रूप से) रक्तबीज के शोणित (रक्त) बूंदों रूपी बीज-बेल को पी कर समर-भूमि में शोषण करने वाली हे देवी !
इसके आगे की पंक्ति में स्तुतिकार देवी द्वारा शुम्भ-निशुम्भ के साथ किये गये भीषण संग्राम के कारण व उनके द्वारा असुरों को सतत मार गिराये जाने के कारण उन्हें तर्पितभूत पिशाचरते कहकर संबोधित करता है । कवि का अभिप्राय है कि महायुद्ध में इतनी बड़ी संख्या में असुरों के मारे जाने से भूत पिशाचों को खाने के लिये ढेरों के ढेरों मृत शरीर लब्ध हुए, नदी-नाले रक्त के बहे । रुधिर (ख़ून), मज्जा, माँस, वसा (चर्बी) उन कंकाल-आकृति भूत-पिशाचों का प्रिय भोजन होता है । युद्ध इनके लिये उत्सव का कारण बन जाता है । शुम्भ-निशुम्भ के साथ देवी के भीषण युद्ध में इन्हें प्रचुर मात्रा में रुधिर-मांस मिला । फलतः वे ऐसे तृप्त हुए मानों उन्हें तर्पण मिल रहा हो । देवी क्रुद्ध होकर असुरों को मारती रहीं अथवा उन्हें मार गिराने में जुटी रहीं और इस प्रकार भूत पिशाचों का तर्पण करने में, दूसरे शब्दों में उन्हें तृप्त करने में वे रत रहीं । यह ध्यातव्य (ध्यान रखने योग्य) है कि रणभूमि में रक्त पीने से पिशाचों का तर्पण करना, बात कहने की एक शैली है , जिससे प्रकट होता है कि वह युद्ध कितना विकराल रहा होगा । तर्पण तो वास्तव में एक पितृयज्ञ होता है , जिसमें पितरों को जलांजलि देकर उनका तर्पण किया जाता है । महाहव के तर्पण का इस पितृयज्ञ वाले तर्पण से कोई संबंध जान नहीं पड़ता है । संस्कृत शब्दकोश के अनुसार तर्पण का एक अर्थ तृप्त करना भी होता है और यहां अभिप्राय इसी अर्थ से है ।
हव का अर्थ है युद्ध और महाहव होता है महायुद्ध अथवा भीषण युद्ध । यहां “शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते” में शिव शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है । शिव शब्द का कोशगत अर्थ है शुभ, माँगलिक, प्रसन्न, स्वस्थ, समृद्ध आदि । शिव शब्द शुभत्व का सूचक है । दो बार इस शब्द की आवृत्ति से अभिप्राय है इसकी अधिकता पर बल देना । इससे यह भाव ध्वनित होता है कि यह महासंग्राम कल्याणकारी है, मंगलकारी है देवताओं के लिये, क्योंकि असुरों के वध के कारण देवताओं के प्रयोजन की सिद्धि हुई । साथ ही साथ असुरों के अत्याचार से त्राहि त्राहि करते प्रजाजनों के लिये भी यह उतना ही मंगलकारी रहा । फलत: स्पष्ट है कि कि देवी द्वारा इस महायुद्ध में राक्षसवध करके अतीव मंगलकारी कार्य संपन्न किया गया, साथ ही शव खाने वाले पिशाचों की तृप्ति में भी देवी रत रहीं अर्थात् हर्षित रहीं। । अतः देवी को तर्पितभूत पिशाचरते कह कर पुकारते हुए स्तुतिकार कहता है कि हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
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हे चामुण्डे ! मेरे शस्त्र के आघात के द्वारा रक्तबीज के शरीर से निकले रक्त को जल्दी-जल्दी तुम पीटी* जाओ,
*To be corrected as पीते जाओ या पीते जाओ
मान्यवर , आभारी हूं , इस त्रुटि की ऒर ध्यान खींचने के सुगंध भरे सहयोग के लिए । सुधार कर दिया गया है । कृपया आगे भी सामग्री को निर्मल बनाये रखने में सहयोग दें ।
इति शुभम् ।
“महिाषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्” को “महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्” लिख कर त्रुटि को दूर करें।
कर दिया गया है । धन्यवाद ।
कृपया “महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्” के श्लोकों का अर्थ भी “शिव ताण्डव स्तोत्र” जैसे एक एक शब्द का संधि विच्छेद कर के लिखने की कृपा करें। इससे श्लोक का अर्थ समझने में सहायता मिलेगी।
अभी ‘ शिवमहिम्न:स्तोत्रम् ‘ पर कार्य चल रहा है । इसके पश्चात् इस पर विचार किया जा सकता है । इति शुभम् ।
कृपया “समरविशोषित” शब्द का अर्थ संधि विच्छेद कर के उल्लेखित करें।
‘समरविशोषित’ का अर्थ है रण में जो सुखा दिया गया, तात्पर्य यह है कि युद्ध में मारा गया ।
“शुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते” का अर्थ तो स्पष्ट है किन्तु पूर्व में “शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते” में “शिवशिव” से इस श्लोक में क्या अभिप्राय है कृपया इसका उल्लेख करें।
‘शिव’ शब्द का कोशगत अर्थ है शुभ, माँगलिक, प्रसन्न, स्वस्थ, समृद्ध । दो बार इस शब्द की आवृत्ति से अभिप्राय है इसकी अधिकता पर बल देना । इससे यह भाव प्रकट होता है कि देवी द्वारा इस महायुद्ध में राक्षसवध करके अतीव मंगलकारी कार्य संपन्न किया गया, साथ ही शव खाने वाले पिशाचों की तृप्ति उनकी प्रसन्नता को सूचित करती है । इति शुभम् ।
इस श्लोक के अर्थ में एक जगह ‘भूत पिशाच आदि को तृ्प्त करने में रत’ के स्थान पर अगर ‘भूत पिशाच आदि का तर्पण करने में रत’ लिखा जाए तो कैसा रहेगा??
हाँलाकि आपका लिखा हुआ अर्थ एकदम सही है लेकिन इसको पढ़ने में थोड़ा अलग अर्थ जा रहा है..
हो सकता है शायद यह मेरे मन का भ्रम हो..
कृपया अपने विचार इस पर दें..
तर्पण पितृयज्ञ है । इसमें पितरों को जलांजलि दे कर तृप्त करने का विधान है । यह एक अनुष्ठेय कर्म माना गया है । श्लोक ७ के संदर्भ में कह सकते हैं कि युद्ध की बीभत्सता पर बल देने के लिये भूत-पिशाचों के ‘तर्पित’ होने की बात कही गई है , न कि यह युद्ध उनके तर्पण के हेतु से हो रहा है । ‘तृप्त करने में रत’ इसलिये भी लिखा है कि ‘तर्पण’ का अर्थ तृप्त करना व प्रसन्न करना भी होता है । इसका संबंध पितृयज्ञ से कदापि नहीं है ।
इति नमस्कारान्ते ।
धन्यवाद महोदया
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ईश्वर आपका सदा कल्याण करें |
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