मौन

कुतर्क धूप क्वार की
हिरण भी पड़ जाते काले
अधम अनर्गल बातों के
पड़ जाते मन पर छाले

क्रोधाविष्ट बिफरते शब्द
स्वयं भी होते दग्ध विकल
मौन ज्वाल बुझाता बन कर
शीत सलिल की धार विरल ।

तपस्थली में तरुशाख पर
सूखते तापस जन के चीवर
मन बनता शांत वन-प्रान्त
कोई दृग जो मूंदे मौन धर

मुखरता मनगढ़ंत बातें
करती हैं भूल पर भूल
मौन है अन्तःसलिला का
निष्पंद निभृत निर्जन कूल

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