शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक २०
Shloka 20 Analysisक्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां संप्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढ़परिकर: कर्मसु जन: ।। २० ।।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां | ||
क्रतौ | = | यज्ञ, जप अनादि क्रिया-कलापों के |
सुप्ते | = | नष्ट हो जाने पर |
जाग्रत्त्वमसि | → | जाग्रत् + त्वम् + असि |
जाग्रत् | = | जागते, प्रबुद्ध, सतर्क |
त्वम् | = | आप |
असि | = | रहते हो |
फलयोगे | = | फल देने में |
क्रतुमताम् | = | यज्ञ आदि कर्म करने वालों के |
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते | ||
क्व | = | क्या अथवा कहां |
कर्म | = | कृत्य, कर्म |
प्रध्वस्तं | = | (जो) विनष्ट हो गया हो |
फलति | = | फल देता है |
पुरुषाराधनमृते | → | पुरुष + आराधनम् + ऋते |
पुरुष | = | चेतन पुरुष (शिव) |
आराधनम् | = | आराधना, उपासना |
ऋते | = | के बिना |
अतस्त्वां संप्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं | ||
अतस्त्वां | → | अत: + त्वाम् |
अत: | = | इसलिये |
त्वाम् | = | आपको |
संप्रेक्ष्य | = | देख कर, जान कर |
क्रतुषु | = | यज्ञादि कर्मों में |
फलदानप्रतिभुवं | → | फलदान + प्रतिभुवम् |
फलदान | = | फल देने हेतु |
प्रतिभुवम् | = | उत्तरदायी, संलग्न |
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढ़परिकर: कर्मसु जन: | ||
श्रुतौ | = | श्रुति में, वेद में |
श्रद्धाम् | = | अटूट आस्था, दृढ़ विश्वास |
बद्ध्वा | = | रख कर |
दृढ़परिकर: | = | दृढ़ता से तत्पर रहते हैं |
कर्मसु | = | (वेदविहित) कर्मों में |
जन: | = | लोग, मनुष्य |
अन्वय
भावार्थ
यज्ञ आदि कर्म करने वालों के यज्ञ आदि कर्मों के नष्ट हो जाने पर फल देने में आप जागते रहते हैं अर्थात् सावधान रहते हैं । क्या विनष्ट हुए कर्म चेतन पुरुष (अर्थात् शिवजी) की आराधना किये बिना फलित होते हैं ? अर्थात् नहीं होते । इसलिये आपको यज्ञादि कर्मों में फल प्रदान करने में संलग्न देख कर अथवा जान कर लोग वेद में अटूट आस्था रख कर दृढ़ता से कर्मों में प्रवृत्त होते हैं ।
व्याख्या
भगवान शिव पर अटूट आस्था होने की स्थिति में मनुष्य वेदविहित कर्मों को करने का उद्योग करता है क्योंकि वह जानता है कि भगवान शिव उद्यत रहते हैं, सतर्क रहते हैं सुकृत्यों को करने वालों का हित संपादन करने के लिये । वे कृपाल … उनकी करुणामयी दृष्टि से न तो साधक के कर्म व उद्योग छिपे रहते हैं और न हि उपासक की मनोकामना ही अज्ञात रहती है अम्बिकानाथ से । और न हि वे प्रमाद करते हैं भक्तों को उनके जप-तप, यज्ञ आदि कर्मों के प्रतिफल देने में अथवा उन पर वर-वर्षा करने में । शंकर समान कोई दाता नहीं है ।
मनुष्ययोनि कर्मयोनि है । पशुयोनि को दु:खयोनि व देवयोनि को भोगयोनि कहा जाता है । मनुष्येतर यह दोनों योनियां कर्मप्रधान नहीं हैं । इन्हें देह मिलती है प्रारब्ध भोगने के लिये, जहां वे प्रकृति-परवश होते हैं । कर्मों का कर्ता, भोक्ता मनुष्य ही है । मानवदेह एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रहती । यह बात और है कि अज्ञ जन स्थूल अथवा प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले कर्मों को ही कर्म मानते हैं तथा कर्मफल विषयक भी वे वही विचार रखते हैं । वस्तुत: प्रत्येक कर्म या कार्य समाप्त होने पर नष्ट हो जाता है । इसी को कवि ने कर्म प्रध्वस्तम् कहा है । जैसे जप, पूजा, दान, ध्यान, स्वाध्याय व अन्य सभी कार्य, जो कि कर दिये जाने के उपरान्त नष्ट हो जाते हैं । प्रकारान्तर से जो हो चुके हैं, समस्त वे कार्य निद्रित या सुप्त कहलाये गये हैं । कवि के अनुसार यज्ञादि कर्मों के नष्ट हो जाने पर भी भावि में इनका फल देने वाले चेतन तत्व भगवान सदाशिव तो सदा वर्तमान हैं, विद्यमान हैं, कर्मानुसार फल देने के लिये – जाग्रत्तवमसि फलयोगे । कर्म कितना ही छोटा व नगण्य क्यों न हो, वह फलदान-तत्पर शिव की कल्याणी दृष्टि से अनदेखा नहीं रहता । उदाहरण के लिये राजा या अधिकारी की सेवा करने पर, उस सेवा-कार्य के समाप्त हो जाने पर संबद्ध व्यक्ति या राजा फल देता है ।
विद्वान लेखक सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ के कथन है कि प्रबुद्ध चेतन पुरुष शिव के स्वरूप में न कामना है और न ही कामना की पूर्ति-अपूर्ति । प्रकृति का कोई गुण उन्हें स्पर्श नहीं करता । तथापि सब विभूतियों में वे विराजमान हैं । यज्ञ, जप, दान, हवन, पूजा आदि पुण्यकृत्य किये जाने पर वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु पूजा लेने के हेतु प्रबुद्ध हो जाते हैं । इस विषय में चक्रजी द्वारा वर्णित एक सत्य घटना का संक्षेप में यहाँ उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा । विद्वान लेखक ने लिखा है कि महामना मदनमोहन मालवीयजी के पूज्य पिताश्री एक धर्मनिष्ठ सात्त्विक-सदाचारी व्यक्ति थे । कुछ गिने-चुने घरों वाली जिस बस्ती में वे सपत्नीक रहते थे (मालवीयजी के जन्म के पूर्व), वहाँ से कुछ दूर घना जंगल था व बहुधा बाढ़ आने पर शेर बह कर वहाँ गाँववासियों के घर-आँगन तक पहुंच जाते थे । एक बार वे अपने घर में ध्यानस्थ बैठे थे कि वन से गाँव में आया हुआ एक शेर उनके घर में घुस गया । कुछ हलचल भाँपते हुए नेत्र खोलने पर उन्होंने शेर को अपने समक्ष पाया । देखते ही वे कृतकृत्य हो गये और अहोभाव से भर उठे कि यह भगवान नृसिंह (नरसिंह) ने उन पर अनुग्रह किया है व दर्शन देने वहाँ पधारे हैं । भय लेशमात्र भी नहीं था उनके मन में । गृहलक्ष्मी को पुकारा व पूजन-सामग्री मँगवाई । शेर के शरीर में नृसिंह भगवान के दर्शन पाते हुए भक्तिभाव से गदगद् हो कर वे शेर का पूजन व सत्कार किया । वन्य पशु उनकी आँखों में आँखें डाल कर देखता रहा, मूक खड़ा देखता रहा तथा सत्कृत हो कर तब वहाँ से चला गया बिना कोई क्षति पहुँचाये उनको या उनकी अर्द्धांगिनी को । (यह बात और है कि उनके घर से जाने के बाद भूखे शेर ने दूसरे घर में घुसकर एक एक व्यक्ति को मार डाला व स्वयं भी गाँव से जीवित न जा पाया) । इस प्रकार शुभकृत्यों के करने वालों के कल्याणार्थ वे चेतन पुरुष सचिन्त व सावधान रहते हैं, यही उन जागरणप्रवण भगवान का शील है ।
वेदों में भी रुद्र का उल्लेख मिलता है । भगवान शिव के बिना यज्ञादि संपन्न नहीं होते । वे ही चेतन पुरुष हैं । स्तुतिकार इस तथ्य को निरूपित करते हुए सदाशिव से कहते हैं कि आपको सुकृत्यों का शुभफल प्रदान करने में संलग्न देख कर और फलदानप्रतिभुवम् अर्थात् इसका दायित्व वहन करता हुआ तथा उसमें तत्पर जान कर लोगों की वेदों में श्रद्धा बद्धमूल होती है । श्रुतियों के प्रति आदर और आस्था उन्हें लोकहितावह पवित्र कर्म करने में, यज्ञादि सुकृत्य करने में दृढ़ता से सक्रिय व संचालित करती है दृढ़परिकर: कर्मसु जन:। अपने मनोरथ पूर्ण होने से मनुष्य का श्रुतियों के कथन में विश्वास बढ़ जाता है, जिससे आस्था-तरु पर सुकृत्यों के सुकुमार किसलय मुकुलित होने लगते हैं । कवि के अनुसार सुकर्मों से यज्ञकर्ता का जो कल्याण संपादित होता है, वह सदा प्रबुद्ध रहने वाले पुरारी की फलदान देने की प्रतिबद्धता का परिणाम है । यज्ञ भले ही भिन्न-भिन्न देवताओं के नाम से किया जाये, अंततोगत्वा उससे तृप्ति तो चेतन पुरुष की ही होती है उसीकी तृप्ति, उसीकी प्रसन्नता फलवती हो कर उपासक को विगतकल्मष करती है । श्लोक की दूसरी पंक्ति मे प्रश्नवाचक शैली में गन्धर्वराज पुष्पदंत का यह कथन दृष्टव्य है क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते अर्थात् कर्म जो नष्ट हो चुकते हैं क्या वे पुरुष अथवा परम चैतन्य की आराधना के बिना फल सकते हैं ? अर्थात् नहीं फल सकते हैं । यह सकल जगत् भगवान विभूतिभूषण का विलास है ।
इस श्लोक में, हम देखते हैं कि भगवान शिव के सर्वफलदातृत्व का प्रतिपादन किया गया है । लोक में कर्म-संपादन व फल-संपादन की प्रवृत्ति निरन्तर गतिमान रहती है । और इस प्रकार संसार सक्रिय रहता है । श्रुतियाँ में श्रद्धा मनुष्य को परमार्थ-पथ का पथिक बनाती है ।सचमुच ही शिवकृपा की कोई इयत्ता नहीं है । शरणागत के पापों और पाशों का क्षय वे स्वयं करते हैं । वे वरद सभी के कल्याण का विस्तार करते हैं तथा यज्ञकर्ता शिवार्चन करके यशार्जन करते हैं ।
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