महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्
श्लोक १३
Shloka 13अयि सुदतीजन लालसमानसमोहनमन्मथराजसुते
अविरलगण्डगलन्मदमेदुरमत्तमतंगगजराजगते ।
त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
अयि सुदतीजन लालसमानसमोहनमन्मथराजसुते | ||
अयि | = | हे |
सुदतीजन | = | सुन्दर दाँतों वाली, सुन्दर मुख वाली |
लालसमानसमोहनमन्मथराजसुते | → | लालस + मानस + मोहन + मन्मथराज + सुते |
लालस | = | आसक्त, अनुरागी |
मानस | = | मन, मानसी सृष्टि |
मोहन | = | मोहित अथवा मुग्ध करने वाला |
मन्मथराज | = | कन्दर्पराज, कामदेव |
सुते | = | हे पुत्री (कामदेव जैसे स्वरूप व गुणों वाली हे देवी) |
अविरलगण्डगलन्मदमेदुरमत्तमतंगगजराजगते | ||
अविरलगण्डगलन्मदमेदुरमत्तमतंगगजराजगते | → | अविरल + गण्ड + गलन् +मद + मेदुर + मत्त + मतंग+ गजराजगते |
अविरल | = | लगातार, सतत |
गण्ड | = | हाथी के कपोल व कनपटी के पार्श्व का भाग |
गलन् | = | टपकता हुआ, चूता हुआ |
मद | = | हाथी के कपोल से चूने वाला द्रव (मद) |
मेदुर | = | स्निग्ध, लिसलिसा |
मत्त | = | मद में चूर, मस्त |
मतंग | = | हाथी |
गजराजगते | = | गजराज (श्रेष्ठ हाथी) जैसी मन्थर व गौरवभरी चाल वाली हे (देवी) |
त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते | ||
त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते | → | त्रिभुवन + भूषणभूत + कलानिधि + रूप + पयोनिधिराज + सुते |
त्रिभुवन | = | तीनों लोक |
भूषणभूत | = | आभूषण-स्वरूप |
कलानिधि | = | चन्द्रमा |
रूप | = | रूप की शोभा, रूप-कान्ति |
पयोनिधिराज | = | सागर-राज |
सुते | = | हे (सागर-राज की) पुत्री, महालक्ष्मी, वैभव |
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते | ||
महिषासुरमर्दिनी | → | महिषासुर + मर्दिनी |
महिषासुर | = | यह एक असुर का नाम है । |
मर्दिनी | = | घात करने वाली |
रम्यकपर्दिनि | → | रम्य + कपर्दिनि |
रम्य | = | सुन्दर, मनोहर |
कपर्दिनि | = | जटाधरी |
शैलसुते | = | हे पर्वत-पुत्री |
अन्वय
अयि सुदतीजन लालस मानस मोहन मन्मथराज सुते (हे) अविरल गण्ड गलन् मेदुर मद मत्त मतंग गजराजगते (हे) त्रिभुवन भूषणभूत कलानिधि रूप पयोनिधिराज सुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।
भावार्थ
सुन्दर दन्तपंक्ति अर्थात् सुन्दर मुखमण्डल वाली सुंदरियों को पाने की मन में लालसा उपजाने वाले तथा मुग्ध करने वाले व मन को मथने वाले कामदेव की पुत्री (के समान) हे देवी, तथा कपोल व कनपटी के पार्श्व-भाग से सतत झरते हुए गाढ़े मद की मादकता से मदोन्मत्त हुए हाथी के जैसी गमन-गति (चाल) वाली हे गजगामिनी, हे त्रिलोक की भूषण के सदृश व कला के निधान चंद्रमा-स्वरूपिणी हे लक्ष्मी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
व्याख्या
महिषासुरमर्दिनी के तेरहवें श्लोक में देवी के मोहक रूप का वर्णन मिलता है । उन्हें कवि मन्मथराजसुते अर्थात् कामदेव की पुत्री कह कर पुकारता है । कामदेव की विशेषता बताते हुए वह कहता है कि सुन्दर मुखमण्डल वाली स्त्रियों की लालसा मन में जगा कर कामदेव किसी को भी मोहित कर सकते हैं । ठीक देवी का रूप-लावण्य भी वैसा है । अत: वे मदन की पुत्री की तरह हैं , क्योंकि सन्तान में माता-पिता के गुण आ जाते हैं । सुदतीजन में सुदती का शाब्दिक अर्थ है सुन्दर दाँतों वाली स्त्री, किन्तु इसका विशिष्ट अर्थ है सुन्दर मुखमण्डल वाली, तथा जन शब्द से तात्पर्य मनुष्य से है व जन एकवचन और बहुवचन दोनों प्रयुक्त होता है । यहां बहुवचन में प्रयोग हुआ है और यह सुन्दर मुखी स्त्रियों का बोध कराता है । लालस अर्थात् अत्यंत लालायित, तीव्र इच्छा रखने वाला, सुख व आनन्द लेने वाला, अनुरक्त इत्यादि । मानस शब्द मानसी सृष्टि, मानसिक भावों का परिचायक है । मन्मथ अर्थात् मन को मथने वाला, जो मन को मथ कर रख दे । कामदेव का एक नाम मन्मथ है । इस पंक्ति से अभिप्रेत भाव है कि सुमुखियों के प्रति कामार्त, कामासक्त जन को, व ऐसे लोगों के मन को कामपीड़ा से विह्वल बना देने वाले मन्मथराज की हे सुते, अर्थात् पुत्री, यद्यपि यहाँ सुता कहने का अभिप्राय यह भी है कि हे देवी तुम मन्मथ के समान गुणों-लक्षणों से संयुत हो । देवी का एक नाम कामेश्वरी भी है, कामेश्वरीस्तुति: में कहा गया है सुरासुरवन्द्ये कामेश्वरि नमोsस्तु ते । यहाँ काम शब्द में समस्त प्रकार की कामनाओं का भाव निहित है । देवी कामस्वरूपा हैं और उनका त्रिभुवनसुन्दर रूप दैत्य-मन में मदन जगाता है । यहाँ संकेत है कि देवहित के लिये कटिबद्ध देवी के प्रति, जो अनुपम सुन्दरी थीं, दैत्यराज कामातुर होता है व अपने दूत के द्वारा अपना कामाकुल सन्देश भेजता है । और उसके परिणामस्वरूप एक महनीय महासंग्राम होता है।
देवी की गति को, चाल को मद चूते हुए मतवाले हाथी की चाल जैसा बताया है । हाथियों में उत्तम हाथी वे माने जाते हैं, जिनके गण्ड-स्थल से मद झरता हो । गण्ड-स्थल अर्थात् गाल, हाथी के मस्तक का वह भाग, जहाँ उसका कर्ण-प्रदेश या कनपटी होती है । यहीं से मद का बहना, टपकना या चूना बताया जाता है और यह भी माना जाता है कि मद के झरने पर उसकी मादकता से गजराज मदमस्त जाते हैं व झूमते हुए मन्थर गति से चलते हैं । ऐसी मन्थर व मतवाली चाल से चलने वाली स्त्री को गजगामिनी कहते हैं, अर्थात् जिसकी गमन-गति करि सदृश हो । अविरलगण्डगलन् अर्थात् निरन्तर गण्डस्थल से चूता अथवा टपकता हो, मदमेदुर यानि स्निग्ध मद जिसके, ऐसे मत्तमतंग यानि मतवाले हाथी, गजराज अर्थात् श्रेष्ठ हस्तिराज सदृश गते यानि गति (करने) वाली । कुल मिला कर इसका तात्पर्य है कि हे श्रेष्ठ गजगामिनी । गजगामिनी शब्द सुंदर, सुरुचिपूर्ण स्त्री के लिये प्रयुक्त होता है, जिसके धीमे-धीमे चलने में भी अपनी ही एक छटा हो ।
अगली पंक्ति में कवि कहता है कि त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधि, कलानिधि चंद्रमा को कहते हैं व उन्हें तीनों भुवनों का अर्थात् लोकों का आभूषण कह कर पुकारा है । आगे देवी को रूपपयोनिधिराजसुते कहते हैं, तात्पर्य यह कि जिनसे तीनों लोक सज्जा पाते हैं, ऐसे चंद्रमा के रूप-वैभव से कान्तिमती हे देवी ! पयोनिधि सागर को कहते हैं और उनकी सुता लक्ष्मी हैं । चंद्रमा भी सागर से (समुद्र-मन्थन के समय) उद्भूत हुए थे, अतएव वे लक्ष्मी के सहोदर हुए । सहोदरों में भी परस्पर रूपसाम्य व गुणसाम्य पाया जाता है । इस तरह देवी त्रिभुवनभूषण चंद्रमा के सदृश रूप-कान्ति से देदीप्यमान हैं । लक्ष्मी का अर्थ केवल धन ही नहीं है, अपितु लक्ष्मी के इसके अलावा अन्य अर्थ हैं, शोभा, सौभाग्य, सफलता, संपन्नता, सौन्दर्य, आभा, अनुग्रह, लावण्य इत्यादि । अत: यहाँ कलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते से यह अर्थ अभिप्रेत है कि चन्द्रमा की आभा-सी शोभा-लावण्यमयी हे देवी ! पय का जल तथा दूध के अलावा दूसरा अर्थ वीर्य भी होता है । देवी बल व उल्लास की दात्री हैं । वे चंद्र के समान अमृतस्वरूपा हैं । चंद्रमा की किरणों की भांति वे भीअन्धकार को दूर करती हैं, यह वह अन्धकार है, जो मन में, आन्तरिक जगत् में व्याप्त होता है । भगवती दुर्गा की देहकान्ति चंद्रकिरणों के समान विस्तार-बहुला है तथा फैल कर भक्तजनों का अज्ञानान्धकार नष्ट करती है ।
अन्त में स्तुतिगायक कहता है, हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
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बहुत सुन्दर। आपका सहृदय आभार इस सुन्दर अनुवाद के लिए।
आपका हृदय से धन्यवाद । इति नमस्कारान्ते ।
“त्रिभुवनभुषण” के स्थान पर “त्रिभुवनभूषण” लिख कर त्रुटि को दूर करें।
धन्यवाद । इति शुभम् ।
ये व्याख्या मुझे गलत प्रतीत हो रही है. देवी भगवती शिवपत्नी है. शिव ने मन्मथ उर्फ कामदेव को भस्म किया था. और देवी मां विश्व का संचालन करने वाली आदिमाया है तो उन्होने विश्व कल्याण के लिये उसे इतना बलिष्ठ किया की भौतिक देह ना होने के बावजुद वो विश्व पर राज करता है.
संदर्भ सौंदर्य लहरी श्लोक
धनुः पौष्पम मोर्वी मधुकरमयी पंच विशिखा
वसंतः सामंतो ….
आपके विचार का स्वागत है । सुधी पाठकों के विचार-वैभिन्नय से हमें एक नया दृष्टिकोण मिलता है । मान्यवर, मैं स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाई नहीं कि आपकी आपत्ति का विषय क्या है । कृपया अपने प्रश्न पर प्रकाश डालें । आपने कृपापूर्वक सौन्दर्य लहरी का जो श्लोक उदाहृत किया है, उसे मैंने पढ़ा है, किन्तु इस दृष्टान्त द्वारा आप क्या बताने के इच्छुक हैं ? कृपया स्पष्ट करें, जिससे पुनर्विचार करने में सुविधा हो ।
माँ ने कामदेव को बलिष्ठ किया हो, ऐसा नहीं लिखा है मैंने ।अपितु यह लिखा है कि उनका त्रिभुवनसुन्दर रूप दैत्यों के मन में मदन जगाता है, फलत: महनीय महासंग्राम होता है । काम शब्द में सभी कामनाओं का भाव निहित है, यह भी लिखा गया है ।
मन्मथ के गुणों से समन्वित होने से तात्पर्य यह है कि मन में अभिलाषा का संचरण उनकी कृपा से होता है । पौराणिक कथाओं में कुमारिकाओं द्वारा मनोsभिलषित वर पाने की कामना से अथवा कृष्ण को वर रूप में पाने के हेतु देवी कात्यायनी का पूजन के पवित्र दृष्टान्त मिलते है । हमारी संस्कृति में पुरुषार्थ-चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में काम का तीसरा स्थान प्राप्त है । गलती वहां होती है, जहां काम कहने से अभिप्राय गर्हित अर्थ ही में लिया जाता है ।
आप के श्लोक व्याख्या से ये प्रतीत हो रहा है की मन्मथ अर्थात कामदेव कि पुत्री भगवती है.
“उन्हें कवि मन्मथराजसुते अर्थात् कामदेव की पुत्री कह कर पुकारता है ।“
मेरा आक्षेप इस व्याख्या से है.
वास्तव में क्या हुआ है ? तपस्यारत शिव के मन में प्रवेश पाने की कामदेव चेष्टा करते है. किंतु शिव उन्हे अपनी तृतीय आंख से भस्म कर देते है. अगर काम भाव नष्ट हो जाये तो विश्व में पुनर्निर्मिती ठप्प हो जायेगी. भगवती तो जगन्माता है. वो तो संसार का पालन एवं विस्तार चाहती है. इसीलिये कामदेव की पत्नी रती के याचना करनेपर मां उसे पुनःजीवित करती है परंतु उसे देह प्रदान नही करती. अपांग उन्हे देह नही है फिर भी विश्व पर कामदेव अर्थात मन्मथ का राज है. सो ये मां भगवती कि कृपा है. उस अनुरूप इस चरण का अर्थ मन्मथ भगवती का कृपाप्राप्त पुत्र है ऐसा होना चाहिये.
आदरणीय सुजीतजी, मेरी व्याख्या में जहां देवी को मन्मथराज की सुते कहा गया है, वह केवल श्लोक का अनुवाद-भर है, वह विचार मेरा नही है । इस संबोधन ने असमंजस की स्थिति अवश्य उत्पन्न की, किन्तु मैंने जो अपनी अल्प मति से समझा व उसे व्यक्त करने की लघु चेष्टा की, वहाँ स्पष्टतया सुता का अर्थ ज्यों का त्यों न लगा कर उसका लाक्षणिक अर्थ ग्रहण किया है तथा व्याख्या में लिखा है “… मन्मथराज की हे सुते, अर्थात् पुत्री, यद्यपि यहाँ सुता कहने का अभिप्राय यह भी है कि हे देवी तुम मन्मथ के समान गुणों-लक्षणों से संयुत हो ।”
यदि यहाँ ’सूते’ शब्द होता, जो कि ‘सूता’ का संबोधन का रूप है, तो माता के रूप में अर्थ का ग्रहण हो सकता था, जैसा कि आपने सुझाया है, क्योंकि सूता जच्चा को, अर्थात् जन्म देने वाली को कहते हैं । ऐसा देखा गया है कि कवि लोग कभी-कभी शब्दों का कुछ रूपान्तरण कर देते हैं । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आपके द्वारा बताया हुआ अर्थ सही प्रतीत होता है, इस पर विचार किया जा सकता है । धन्यवाद ।
इति शुभम् ।
धन्यवाद देवी जी,
मै मां भगवती का एक तुच्छ् उपासक हुं. मेरा संस्कृत का ग्यान बहोत सीमित है. परंतु श्री विद्या उपासक होने के नाते सौंदर्यलहरी एवं श्री ललिता सहस्त्रनाम का अभ्यास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है उस वजह से ये विचार प्रस्तुत करने का साहस किया है. मैने मराठी भाषा में श्री ललिता सहस्त्रनाम का भावार्थ निरुपण किया है और मेरी वो किताब को जनमानस का अच्छा प्रतिसाद प्राप्त है. आपकी लेखन शैली बहोत मोहक है और आप की व्याख्या पढकर ही मुझे इस श्लोक का भी मराठी में अनुवाद करने इच्छा हो गयी है और मैने वो कार्य आरंभ किया है. धन्यवाद.
धन्यवाद । यह सब अकारणकरुणावरुणालया माता की कृपा-कल्पवृक्ष का प्रसाद है । न जाने कब किस पर भगवती दयालु हो जायें । आपने मराठी में अनुवाद का श्रीगणेश कर दिया है, इसके हेतु आपको मंगलकामनाएँ । इति नमस्कारान्ते ।
Namaste ? Dr. Kiran Bhagini
Whereas some edition shows:
अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्गजराजपते ।
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ॥
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥
Will you throw some light as to which one is more appropriate?
or it is just a “पाठभेद” ?
धन्यवादः |
आदरणीय हरेश कमलाकान्तजी, नमस्कार । हमने महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् का मूलपाठ गीता-प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक ‘देवीस्तोत्ररत्नाकर’ से लिया है, जिसके रचयिता हैं आदि शंकराचार्यजी । गीता-प्रेस से प्रकाशित धार्मिक ग्रन्थों में सर्वाधिक प्रामाणिक व शुद्धतम पाठ मिलता है, जिसमें संशय के लिये कोई स्थान नहीं है ।
आपने भी सही जिज्ञासा प्रकट की है । महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् अल्प-अधिक भिन्नता के साथ अन्य स्थलों पर भी मिलता है । कदाचित् बहुत प्रचलित होने के कारण या इण्टरनेट से ज्यों का त्यों निकाल लेने के कारण अथवा सरल रूप में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से पाठ-भिन्नता परिलक्षित होती है । ‘भगवतीपद्यपुष्पांजलि’ में भी यह स्तोत्र मिलता है, जिसके रचयिता हैं रामकृष्ण कवि ।
आदि शंकराचार्यजी द्वारा रचित स्तोत्र ही हमारा मूलपाठ है, जिसका प्रकाशन सर्वथा व सर्वधा प्रामाणिक प्रेस से हुआ है । इसलिये यही शुद्धतम पाठ माना जाना चाहिए । यह केवल पाठभेद मात्र नहीं है । इति शुभम् ।
Dhanyavad Bhagini