शिवमहिम्नःस्तोत्रम्

श्लोक १६

Shloka 16 Analysis

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदम्
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।। १६ ।।

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदम्
मही = पृथ्वी
पादाघाताद् पाद + आघाताद्
पाद = पैर
आघाताद् = चोट से
व्रजति = प्राप्त हो जाती है
सहसा = अकस्मात्
संशयपदम् = शंका की स्थिति को
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम्
पदम् = पैर
विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् विष्णो:+ भ्राम्यद् + भुजपरिघ+ रुग्ण + ग्रहगणम्
विष्णो: = भगवान विष्णु का (विष्णु का पैर यानि आकाश, अन्तरिक्ष)
भ्राम्यद् = घूमती हुईं, थिरकती हुईं
भुजपरिघ = दृढ़ भुजाओं के प्रहार (से)
रुग्ण = क्षतिग्रस्त, चोट से आहत
ग्रहगणम् = सभी ग्रह, ग्रह-निकर
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं मुहु: + द्यौ: + दौस्थ्यम्
मुहु: = बार-बार
द्यौ: = आकाश, स्वर्ग, वैकुण्ठ
दौस्थ्यम् = अस्थिरता को, दुरवस्था को
यात्यनिभृतजटाताडिततटा याति + अनिभृत + जटाताडिततटा
याति = प्राप्त हो जाता है, डावाँडोल हो जाता है
अनिभृत = खुली हुई, बिखरी हुई
जटाताडिततटा = जटाओं के थपेड़ों की चोट खाये हुए किनारे
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता
जगद्रक्षायै जगद् + रक्षायै
जगद् = विश्व (की)
रक्षायै = रक्षा के लिये
त्वम् = आप
नटसि = नृत्य करते हैं
ननु = सचमुच (ही)
वामैव वामा +एव
वामा = विपरीत
एव = ही
विभुता = वैभव, ऐश्वर्य

अन्वय

त्वाम् जगद् रक्षायै नटसि मही पाद आघाताद् संशयपदम् व्रजति विष्णो: पदम् भ्राम्यद् भुजपरिघ रुग्ण ग्रहगणम् (व्रजति) (च) अनिभृत जटाताडिततटा द्यौ: मुहु: दौस्थ्यम् याति ननु विभुता वामा एव ।

भावार्थ

संसार की रक्षा के हेतु आप नृत्य करते हैं, (तब) पृथ्वी शंका से भर उठती है (कि कहीं मैं नीचे न धँस जाऊँ) । नृत्य करते हुए आपकी बलिष्ठ भुजाओं के वज्र-प्रहार से ग्रह, तारा, नक्षत्रगण चोट के मारे क्षति-ग्रस्त होने लगते है तथा आपकी बिखरी हुई जटाओं के प्रचण्ड थपेड़े लगने से क्या स्वर्ग और क्या व्योम-वैकुण्ठ सब बार-बार दुरवस्था को प्राप्त होने लगते हैं, डावाँडोल हो जाते हैं । नृत्य तो आपका जगत् की रक्षा हेतु होता है, किन्तु उसकी प्रचण्ड ऊर्जा के ऐश्वर्य अथवा वैभव में भी कुछ भी निष्कम्प व निर्भय नहीं रहता । सचमुच ही वैभव की प्रकृति बड़ी विपर्यस्त (विपरीत तरह की) होती है अर्थात् विभु के वैभव को समझ पाना संभव नहीं है ।

व्याख्या

भगवान शिव के नृत्य का नाम ताण्डव-नृत्य है । इसमें सृजन व संहार दोनों क्रमागत होते रहते हैं । निर्माण प्रसन्न एवं पुलकित अवस्था में होता है तथा संहार की स्थिति इससे ठीक विपर्यस्त होती है । शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के १६वें श्लोक में गन्धर्वराज पुष्पदंत समस्त कलाओं के प्रथमाचार्य तथा नित्य बोधमय गुरु भगवान शिव का स्तवन करते हैं तथा उनसे वे कहते हैं कि जगद्रक्षायै त्वं नटसि अर्थात् जगत् की रक्षा के लिए आप नृत्य करते हैं किन्तु इसके प्रभाव व परिणाम जगत् को संकटापन्न किये देते हैं । जब महानर्तक का ताण्डव होता है, तब सृष्टि में कैसा विचलन व विकम्पन व्याप्त हो जाता है, उसका वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि आपके पादाघात यानि नृत्योन्मत्त पैरों के प्रचण्ड आघात से, उनकी भयभीत कर देने वाली धमक और पटक से पृथ्वी आतंक और संशय से सहम जाती है । मही यानि पृथ्वी को भय है कि कहीं मैं नीचे ही न धँस जाऊं, कहीं विकल या विकृत न हो जाऊँ । इस प्रकार महाप्रलय के महानर्तक के चण्ड चरणाघात से चूर्ण-चूर्ण चटकती पृथ्वी चंचलता को प्राप्त होती है ।

विष्णो: पदम् दूसरे शब्दों में विष्णुपद, जिसका अर्थ आकाश है, की निरवलम्ब (असहाय) अवस्था स्तुतिकार ने दर्शायी है । आकाश-मण्डल को भगवान विष्णु का पैर माना जाता है । नृत्य की भंगिमा में लहराती हुईं महानर्तक शिव की दृढ़ भुजाओं से सृष्टि में भारी उत्पात का दृश्य उपस्थित हो उठता है । इस विशाल विपुल व्योम में असंख्य आकाशगंगाएं प्रवर्तमान हैं तथा असंख्य ब्रह्माण्डीय पिण्ड अपने-अपने सौर-मण्डल में अननुमेय और अनादि काल से अपने अस्तित्व की पताकाएँ फहराते हुए अपने तारापथ पर परिभ्रमण कर रहे हैं । स्तुतिगायक गन्धर्वराज का कहना है कि असीम व्योम में विचरण कर रहे ग्रह, तारा, नक्षत्र, आदि विशालकाय ज्योति-पिण्ड धूर्जटि की बलशाली भुजाओं के निर्मम प्रहार नहीं सह पाते, जब उनका अकुण्ठ ताण्डव आरम्भ होता है । ताण्डव-तल्लीन शिव की दृढ़ भुजाएं वेगपूर्वक उन्हें झकझोरते हुए थिरकती हैं ।और साथ ही, इस नृत्योन्माद की आकाश-व्यापी थिरकन से रुग्ण अर्थात् क्षतिग्रस्त होने लग जाते हैं ये खगोल-पिण्ड मानो चूर्ण-विचूर्ण हुए जा रहे हों । आकाश धैर्य व स्थैर्य खो कर डावाँडोल होने लगता है । और ऐसा कोई अणु नहीं बचता या कोई दिशा नहीं दिखती या कहीं कोई अवकाश ऐसा नहीं रहता जो जटाजूटजाल  बिखेरे, अथक उत्तेजना से ताण्डव करते हुए शिव की घूमती, थरथराती बलिष्ठ बाहुओं के वज्रनिष्ठुर आघातों से अछूता रह जाता हो । द्यौ: में मूलत: द्यो शब्द है, जो स्वर्ग, आकाश व वैकुण्ठ का बोध कराता है । सामान्यतया भगवान कपर्दी की जटाएँ बंधी हुई रहती हैं, किन्तु लोक को असुरों के त्रास से त्राण देने के लिये वे जब ताण्डवोन्मत्त होते हैं, तब उनका पिशंग जटामण्डल अकुण्ठ नृत्य की विस्फोटवर्षी मुद्राओं से खुल-खुल उठता है । उनकी उन्मुक्त जटाओं के अभिसंघात से आकाश में स्खलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । श्लोक में वर्णन है कि धूर्जटि की बिखरी जटाओं के थपेड़े वैकुण्ठ को, व्योम को, त्रिदश को बारम्बार घनघोर रूप से झकझोर देते हैं, इनके क्षितिज अथवा किनारों को कंपा कर रख देते हैं, फलत: स्वर्गलोक दौस्थ्यम् यानि दु:स्थिति अथवा दुरवस्था को प्राप्त होता है । न कहीं स्थिरता रहती है और न दृढ़ता ही ।

प्रस्तुत श्लोक में भगवान शिव के महानर्तक रूप के अलावा उनके महारक्षक रूप के भी दर्शन होते हैं, जो सृष्टिव्यापार को सँभालते हैं । विद्वान लेखक श्री सुदर्शनसिंह चक्र का कथन है कि किसी स्थान पर समारोह या उत्सव का आयोजन होने के उपरान्त वहाँ आगत जनों द्वारा सामग्रियों का भोग करने से अवशिष्ट अन्न एवं प्रयुक्त पदार्थों के यत्र-तत्र बिखराव से जो कीचड़ मचता है तथा अशुद्धि फैलती है, उसे स्वच्छ करना अनिवार्य हो जाता है ।यह सृष्टि भी एक समारोह है । और इस समारोह के बाद देश और काल स्वच्छ किये जाते हैं । सक्रियता के साथ ही संन्यास जुड़ा है । स्तुतिकार कहते हैं, जगद्रक्षायै त्वं नटसि अर्थात् जगत् की रक्षा के लिये आप नर्तन करते हैं । ध्यातव्य है कि यह कहने के पीछे कवि का आशय नटराज के ताण्डव  से है न कि प्रलयंकर के ताण्डव से । इसमें महानट के कपिश जटाजाल के कशाघात से कर रुग्णग्रहगणम् की स्थिति महाकपाली की क्रीड़ा है । लिंगपुराण में कथा है कि दारुकासुर का संहार वे देवी कालिका के हाथों करवाते हैं और तब देवी पार्वती की प्रसन्नता के लिये ताण्डव नृत्य करते हैं । और इसी ग्रन्थ के अनुसार योग के आनन्द में भी विभु का ताण्डव होता है । स्वामी महेशानन्द गिरिजी के कथनानुसार कालबल राक्षस, जो जगत् को नष्ट करने में लगा था, का संहार करने के लिये, उसे अपने पैर के नीचे दबा कर शंकर ने ताण्डव किया । कथाओं में वर्णित है कि त्रिपुर को तृण के समान जला कर नष्ट करने के बाद भी त्रिपुरारी ने हर्षातिरेक में इसी प्रकार ताण्डव किया था । अस्तु, इतना स्पष्ट है कि आसुरी शक्तियों के त्रास से जगत् को त्राण दे कर महाकाल उल्लास व्यक्त करते हैं । प्रलयकाल उपस्थित होने पर संहारमूर्ति शिव का सर्वसंहारी ताण्डव होता है । किन्तु आनन्द व्यक्त करते हुए भी उल्लास के उद्दाम वेग में प्रेमपरवश वे नर्तन करते हैं । उन अनन्तरूप की अदम्य ऊर्जा से अन्तरिक्ष में आन्दोलन परिदृश्यमान होता है । अन्तरिक्ष छोटा पड़ जाता है  पाद-प्रक्षेप व भुजा-प्रहार के लिये । यह नृत्य प्रतीक है विश्व में निर्माण और ध्वंस का, पल-पल में होने वाले परिवर्तन का, निखिल सृष्टि के परमाणुओं के उदय और विलय का । और कौन कह सकता है कि यह नृत्य अभी नहीं हो रहा । जगद्रक्षायै यह नृत्य न चले तो कम्पन खो कर प्रकृति गतिविहीन हो जायेगी व उसका प्राणी-संसार जीवनविहीन । सत्य तो यह है कि संसार के सूक्ष्मातिसूक्ष्म से लेकर स्थलातिस्थूल पदार्थ में होने वाला कम्पन अथवा स्पन्दन,  महानर्तक के नृत्य की परिणति है । क्षण-क्षण में विश्व के कण-कण के बनने-मिटने की घोषणा करता है महाकाल का ताण्डव ।

श्लोक में आगे कहा गया है वामैव विभुता । ऐसा कहने से तात्पर्य यह है कि विभुता अर्थात् वैभव या दूसरे शब्दों में परम ऐश्वर्य का शील ऐसा होता है कि उनके अनुकूल होने पर भी उलटा पड़ता हुआ प्रतीत होता है  विपरीत कार्य करने लगता है । जगत् की रक्षा में संलग्न (लगा हुआ) दिव्य ऐश्वर्य जगत् को कहीं भयभीत ही कर जाता है, ठीक उसी तरह जैसे रुग्ण बालक को चिकित्सक टीका या सुई लगाता है तो वह पीड़ित उच्च स्वर में क्रन्दन कर उठता है, दूर भागने की चेष्टा करता है । कुछ इसी तरह विभु की विभुता भी कष्टदायी होती है । विभु के सृष्टिव्यापार संभ्रमित कर देते हैं, इसका कवि ने गाढ़ भाव से अनुभव करवाया है आकाश-व्यापी उत्पात का चित्र खींच कर । इसीलिये वे कहते हैं कि विभुता विपरीत हो जाती है । उनका कहने का आशय यह है कि सर्वव्यापक का प्रभुत्व अथवा महाकाल का महैश्वर्य असह्य हो उठता है, जबकि उनकी प्रसन्नता तो आतंकों को उपशम देती है । उनकी लीला का रहस्य कौन जान सका है ? भुवनपावन नृत्य भगवान पुष्टिवर्धन के पोषण-प्रखर तेज से परिपूर्ण होता है ।

शुभंकर हो कर भी भयंकर लगने वाला भगवान शिव का नृत्य दिशाओं को परिपूत करता है । ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड के मूल कणों में होने वाले नृत्य का प्रतीक है । महाकाल का यह नृत्य वस्तुत: अणु-अणु के उछाल का नृत्य है ।

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