शिवमहिम्नःस्तोत्रम्
श्लोक २
Shloka 2 Analysisअतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो –
रतद् व्यावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ।।२।।
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो | ||
अतीतः | = | परे |
पन्थानं | = | पहुँच से , सामर्थ्य से |
तव | = | आपकी |
च | = | और |
महिमा | = | महानता |
वाङ्मनसयोरतद्व्यावृत्या | → | वाङ्गमनसयोः + अतद्व्यावृत्या |
वाङ्गमनसयोः | = | वाणी व मन की |
अतद्व्यावृत्या | = | अतत् + व्यावृत्या |
अतत् | = | नेति-नेति, यह नहीं |
व्यावृत्या | = | संज्ञा (नाम) दे कर व्यक्त करने की रीति से |
यं | = | जिसे |
चकितमभिधत्ते | = | चकितम् +अभिधत्ते |
चकितम् | = | आश्चर्य (से) |
अभिधत्ते | = | वर्णन करता है |
श्रुतिरपि | = | श्रुतिः +अपि |
श्रुतिः | = | वेद |
अपि | = | भी |
स कस्य स्तोतव्यः कतविधगुणः कस्य विषयः | ||
सः | = | वह |
कस्य | = | किसका |
स्तोतव्य | = | स्तुत्य, जिसकी स्तुति की जाए |
कतिविधगुणः | = | कितने गुणों वाला या उनसे युक्त |
विषयः | = | जिस बात पर चिंतन किया जाये, आलोच्य वस्तु |
पदे | = | रूप में |
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः | ||
त्वर्वाचीने | = | तु + अर्वाचीने |
तु | = | तो (तब) |
अर्वाचीने | = | बाद में लिए गए रूप में, सगुण रूप में |
पतति | = | प्रवृत्त होता है, आसक्त होता है, आकृष्ट होता है |
न | = | नहीं |
मनः | = | मन |
कस्य | = | किसका |
वचः | = | वाणी |
अन्वय
भावार्थ
आपकी महिमा (किसी की भी) वाणी व मन की पहुँच से परे है, जिसे वेद भी आश्चर्य से चकित अथवा अचंभित हो कर नेति-नेति कह कर वर्णित करते हैं। ऐसा ब्रह्म किसके द्वारा स्तोतव्य हो सकता है, अर्थात् उस ब्रह्म की महिमा कैसे और किससे गायी जा सकती है ? क्या ऐसा (परात्पर) ब्रह्म भी किसीकी विषय-वस्तु बन सकता है ? तथापि आप के अर्वाचीन रूप अर्थात् अपेक्षाकृत नये रूप में (जो सृष्टि-रचना के पूर्व निर्गुण रूप में रहने वाले ब्रह्म ने सगुण रूप धारण कर व्यक्त किया ), किसकी वाणी व किसका मन नहीं रमता ?
व्याख्या
गंधर्वराज पुष्पदंत का चित्त पूरे मन-प्राण से महादेव की अपूर्व और अपार महिमा का गान करने में रमा हुआ है । वे अपने आराध्य से कहते हैं कि आपके सगुण और निर्गुण स्वरूप की महिमा का वर्णन-चिंतन वाणी अथवा मन से किया जा सके ऐसा कदापि संभव नहीं है। उनके क्रिया-कलाप, उनके रस-रहस्य, उनका गिरि-कन्दरा-कानन-विहार, उन्मत्त वेष, विचित्र व्यवहार, क्या यह सब किसी की समझ का विषय हो सकते हैं ? जिसके चिंतन से साधक तद्रूप हो जाये, क्या उसकी महिमा का प्रतिपादन वाणी द्वारा किया जा सकता है ? उनके अगणित रूप होने पर भी वे स्वयं उन रूपों से परे हैं । गुणार्णव हो कर भी वे गुणातीत हैं । उनकी अपार महिमा किसी वृत्त, रूप, इंद्रिय में नहीं समाती हैं, भला शब्द एवं वाणी द्वारा उनका वर्णन कहाँ किया जा सकता है । वे कहते हैं कि हे प्रभो ! आप परात्पर ब्रह्म की महिमा का वर्णन करने से तो श्रुति-वेद भी घबराते हैं और विस्मयाकुल हो कर निषेध वचनों का सहारा ले कर नेति-नेति कह कर अपनी अक्षमता व्यक्त करते हैं । नेति – नेति का अर्थ है न इति-न इति जिससे आशय है कि यह नहीं, यह नहीं अपितु इससे और आगे, और भी परे । नेति-नेति के भाव पर स्वामी करपात्रीजी महाराज बड़ी रोचकता से प्रकाश डालते हैं । उनके कथनानुसार “निर्गुण, निराकार, निर्विकार तो वर्णनातीत है अतः उनका संकेत-मात्र ही संभव है । ‘निज पिया कह्या तिनहिं सिय सैननि‘ । शब्द, वाणी से उनका वर्णन संभव नहीं ; केवल निषेध-मुख से ही उनका संकेत किया जा सकता है। जैसे कोई नवोढ़ा अपनी सखियों द्वारा अंगुल्या-निर्देश से अपने पति का परिचय पूछे जाने पर तब तक नेति नेति कहती चली जाती है; जब तक उसकी सखियाँ ठीक उसके पति की ओर संकेत नहीं करतीं ; ज्यों हि सखियों का संकेत उसके पति की ओर होता है वह लजा कर चुप हो जाती है । सखियाँ जान जाती हैं कि वही उसका पति है ।” आगे वे कहते हैं कि इसी तरह सर्वाधिष्ठान, परम तत्व का केवल ‘अतद् व्यावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि‘ कह कर, अतत् का व्यावर्तन करके ही, अशब्दतः ही उसका प्रतिपादन करना संभव है । सारांश यह कि हे प्रभो ! आप परात्पर ब्रह्म की अभिव्यक्ति के लिए कहना पड़ता है कि द्रव्य आप नहीं हो , गुण आप नहीं हो, मन, अवयव, इन्द्रिय-समूह, पंचतत्व या पंचाधिक तत्व-समूह भी आप नहीं हो । वेद-वेदांग भी इस दृश्यादृश्य सब पदार्थों का निषेध करते हुए, नेति-नेति की संज्ञा देकर अपनी विवक्षा को वाणी देते हुए किंकर्त्तव्यविमूढ़-से प्रतीत होते हैं।
अतद्व्यावृत्ति के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक कबीर में लिखा है कि “… यह सब बातें अतद्व्यावृत्ति रूप से कही गई हैं, अर्थात् इस प्रकार के कथन का अर्थ यह है कि परब्रह्म समस्त ज्ञात वस्तुओं, गुणों और विशेषणों से विलक्षण है ।” उदाहरण के रूप में कबीरदास का यह पद उन्होंने दिया है,
शिवमहिम्नःस्तोत्रम् के दूसरे श्लोक की अगली पंक्तियों में पुष्पदंत कह उठते हैं कि परात्पर शिव की महिमा कौन गा सकता है । वे रूपातीत, गुणगणातीत, कल्पनातीत क्या किसी के चिंतन का विषय हो सकते हैं, क्या चिंतन की सीमाओं में समा सकते हैं ? सर्वविकारातीत की स्तुति कैसे की जाये ? उनके बारे में सोचता हुआ भी कोई क्या व कितना कुछ सोच सकता है ? किसी बुद्धि-विलास से यह नहीं जाना जा सकता कि उनमें गुण कितने, कैसे और किस तरह के हैं ? जो गुणागार-गुणराशि हैं और गुणातीत भी, क्या उनके गुणों की गणना किसी युक्ति-प्रयुकित द्वारा की जा सकती है ? या उन त्रिगुणातीत का गुण-वैभव-वैशिष्ट्य क्या आंका जा सकता है अथवा मन-वाणी का विषय बन सकता है ? किन्तु हां ! यह भी सत्य है कि उनके अर्वाचीन रूप में, परम रमणीय सगुण रूप में किसका मन आसक्त नहीं होता और किसकी वाणी उन आनन्द-सिंधु की ओर प्रवृत्त नहीं होती, अर्थात् सब के मन को उनका साकार-रूप अपनी ओर आकृष्ट करता है तथा वाणी भी उनका स्तवन करने के लिए लालायित होती है । उनके आराधक अपनी वाणियों को प्रेरित करके उनके वर्णन में प्रवृत्त कर देते हैं ।
प्रस्तुत श्लोक में अर्वाचीन पदे शब्द के प्रयोग पर एक विहंगम दृष्टि डाली जा सकती है । अर्वाचीन का अर्थ है आधुनिक या आजकल का । लेकिन महादेव का यह रूप आजकल का या कोई नया नहीं है । वे परब्रह्म तो अनादि, अजन्मा हैं, इस सृष्टि के एकमेव सृजनहार हैं । वे पूर्ण ब्रह्म हैं । यही उनका प्राचीन रूप है, जो निर्गुण है । उनका यह निर्गुण रूप अप्राकृत है, प्रकृति से भी अधिक प्राचीन है। तैत्तिरीय उपनिषद का कथन है,
अर्थात् उसने (परमात्मा ने) कामना की, विचार किया कि मैं प्रकट हो जाऊं ; (और अनेक रूप धारण करके) बहुत (रूपों में) हो जाऊं; उसके बाद उसने तप किया अर्थात् अपने संकल्प का विस्तार करके (यह जो देखने व समझने में आता है) इस सबका, समस्त जगत् का सृजन किया ; इस जगत् की रचना करने के अनन्तर वह स्वयं उसीमें साथ-साथ प्रविष्ट हो गया । उसमें साथ- प्रविष्ट होने के बाद (वह स्वयं ही) मूर्त तथा अमूर्त हो गया, बताने में आने वाला और न बताने में आने वाला भी (हो गया) ।
प्राचीन रूप से तात्पर्य निर्गुण रूप से है । सृष्टि-रचना के पूर्व का रूप निर्गुण तथा महदादि क्रम से सम्पूर्ण प्राकृत-प्रपञ्च को प्रस्फुटित करने के अनन्तर उनका जो माया-संवलित रूप व्यक्त होता है, उसी रमणीय रूप से अभिप्राय है अर्वाचीन रूप कहने से । वस्तुतः साधना-पथ के पथिक को तो अपने साधन के अनुकूल ईश्वर का सगुण, आनंदमय रसमूर्ति रूप ही अभीष्ट है और उसी विग्रह में उसकी आसक्ति रहती है । इसीलिये स्तुतिगायक कहते हैं पदे त्वर्वाचीने पतति न मन: कस्य न वच:, अर्थात् आपके इस नये सगुण-साकार रूप से किसका मन मुग्ध नहीं होगा और किसकी वाणी मुखर नहीं होगी ? यहां ध्यातव्य है कि भगवान को निर्गुण कहने से तात्पर्य यह कदापि नहीं कि उनमें कोई गुण नहीं है । वे तो अकल्पनीय और अननुमेय गुणों के आगार हैं । श्रीकरपात्रीजी के कथनानुसार “प्राकृत गुणों से उपरत ही निर्गुण है । अचिन्त्य, अनंत, दिव्यातिदिव्य अप्राकृत गुणगण-संयुक्त ही सगुण है ।” आगे वे कहते हैं कि निर्गुण होने पर भी भक्तानुग्रहवशात् नाट्यलीला करने के हेतु और गुणों की सार्थकता हेतु ब्रह्म गुणों का धारण करते हैं व उनका सगुण विग्रह लक्षित होता है ।
समूची प्रकृति में नित्यविभूति भगवान शिव के अनंत ऐश्वर्य का असीम विस्तार व्यक्त होता है । किसी भी प्रकार का विचार-वैभव उनके दिव्य ऐश्वर्य का आकलन करने में असमर्थ है तथापि भक्तों की वाणी उनके गुणानुवाद करने के लिये लालायित रहती है तथा मन सर्वमंगल महादेव के सकल-निष्कल रूप में आसक्त होता है ।
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एकमेव शब्दः अद्भूत्
संस्कृत श्लोक और स्तोत्र साहित्य का इस तरह शब्द शब्द रुप में विवरण संस्कृत के विद्यार्थियों के लिए तो परमात्मा का वरदान ही है जो आपके द्वारा हम तक पहोंच रहा है। आभार प्रकट करने के लिए शब्द ही नहीं है मेरे पास!
आदरणीया नीताजी, सधन्यवाद नमस्कार । भगवान शिव की अहैतुकी कृपा ही यह कार्य कर रही है । हमारा तो केवल नाम है । इति शुभम् ।