श्रीरामरक्षास्तोत्रम्

ध्यानम्

Dhyanam

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।
वामांकारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं
नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥

ध्यानम् = विशेष रूप से सूक्ष्म चिन्तन, आध्यात्मिक-धार्मिक मनन
ध्यायेदाजानुबाहुं ध्यायेत्+ आ + जानु + बाहुम्
ध्यायेत् = (साधक) ध्यान करे
= तक, पर्यन्त
जानु = घुटनों (तक)
बाहुम् = (लंब) भुजाओं वाले का
धृतशरधनुषम् धृत + शरधनुषम्
धृत = (जिन्होंने) धारण किया है
शरधनुषम् = बाण और धनुष
बद्धपद्मासनस्थम् = बद्ध पद्मासन में आसीन हैं जो (उनका)
पीतं वासो = पीतं वास: , पीताम्बर, पीतपट
वसानम् = (जिन्होंने) पहना हुआ है
नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं नवकमलदल + स्पर्धि + नेत्रम्
नवकमलदल = नये-नये खिले हुए कमल की पंखुड़ी से
स्पर्धि = स्पर्धा करते हुए, स्पर्धाशील
नेत्रम् = (जिनके) नेत्र हैं
प्रसन्नम् = (जो) हर्षित हैं (उनका)
वामांकारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं वाम + अंक + आरूढ़ + सीतामुखकमल + मिलल्लोचनम्
वाम = बायें
अंक = पार्श्व में
आरूढ़ = विराजमान, बैठी हुईं
सीतामुखकमल = सीताजी के कमल जैसे मुख से
मिलल्लोचनम् मिलत् + लोचनम्
मिलत् = मिलते हुए
लोचनम् = नेत्र (हैं जिनके)
नीरदाभं नीरद + आभम्
नीरद = बादल (के जैसी)
आभम् : = आभा वाले, सांवले (हैं जो, उनका)
नानालंकारदीप्तं नाना + अलंकार + दीप्तम्
नाना = अनेक प्रकार के
अलंकार = आभूषणों से
दीप्तम् = देदीप्यमान
दधतमुरुजटामण्डलं दधतम् + उरु + जटामण्डलम्
दधतम् = जिन्होंने धारण किया है
उरु = सघन, विशाल
जटामण्डलम् = जटाजूट
रामचन्द्रम् = (उन) रामचन्द्रजी का ( साधक ध्यान करे)

अन्वय

ध्यायेत् रामचन्द्रम् आजानुबाहुम् धृतशरधनुषम् बद्धपद्मासनस्थम् पीतम् वास: वसानम् नवकमलदलस्पर्धिनेत्रम् प्रसन्नम् वामांकारूढ़ सीतामुखकमल मिलत् लोचनम् नीरदाभम् नाना अलंकार दीप्तम् उरु जटामण्डलम् दधतम् ।

भावार्थ

साधक श्रीरामचन्द्र का ध्यान करे, जो घुटनों तक लंबी भुजाओं वाले हैं, जो धनुष-बाण धारण किये हुए हैं, बद्ध पद्मासन में विराजमान हैं, पीताम्बर धारण किये हुए हैं और नयन जिनके नवकमल-पंखुड़ी से स्पर्धा करते हैं तथा जिनके मुदित नेत्र बायें पार्श्व में बैठी सीताजी के मुखकमल से मिले हुए हैं एवं जो मेघश्याम द्युति वाले हैं और अनेक आभूषणों से जगमगा रहे हैं, जिनका जटाजूट विशाल है ।

व्याख्या

रक्षा-स्तोत्रों में विनियोग के बाद ध्यान करने का विधान है । ध्यान करना मंगलप्रद है । सरल शब्दों में ध्यान का अर्थ है आध्यात्मिक चिंतन में मन को लीन करना । रामरक्षास्तोत्रम् के ध्यानम् की पहली पंक्ति में कहा गया है कि साधक श्रीरामचन्द्र का ध्यान करे । उनकी मनोहारी छवि का चित्रण इस प्रकार किया है । राम आजानुबाहु हैं अर्थात् उनकी भुजाएं दीर्घ हैं, वे घुटनों तक लंबी हैं । जानु शब्द घुटनों का वाचक है तथा उसके आगे आ लगने से उसका अर्थ हो जाता है घुटनों तक । मेरा मानना है कि ध्यान में महाबाहु, धनुष-बाणधारी श्रीराम का ध्यान साधक के मन में गर्व-मिश्रित निर्मल आनंद का उद्रेक करता है । राम बद्ध पद्मासन में विराजमान हैं ।

अगली पंक्ति में श्रीराम की ध्यानछवि का चित्रण आगे बढ़ता है । श्रीराम ने पीत पट धारण किया हुआ है अर्थात् पीताम्बर पहना हुआ है । श्रीराम अपने कमल समान सुंदर व सुनिर्मल नेत्रों के कारण कमलनयन, कमलपत्राक्ष, पद्मलोचन आदि नामों से पुकारे जाते हैं । ध्यानम् में उनके नेत्रों को नवकमलदलस्पर्धिनेत्रम् चित्रित करते हुए कहा है कि उनके सौम्य मृदुल नयन नये-नये खिले हुए कमल की पंखुड़ियों से स्पर्धा करने वाले स्वभाव के हैं । उनके नेत्रों को नूतन पद्मपत्रों से स्पर्धाशील कहा है, कदाचित् इसलिये कि सद्यः खिले कमल की पत्र-पांखुड़ी में जैसे निर्मलता का स्पर्श और स्फुटन होता है, वैसे ही रामचन्द्र के मृदुल-मनोहर नयनों में नई-नई तरुणाई (ताजगी) का निर्दोष भीनापन है । उनके नयनों का सौन्दर्य व सौकुमार्य सद्य खिले कमलदल से कम नहीं , अपितु उससे कहीं बढ़ कर है । रामचन्द्र के पद्मपलाश-से सुन्दर लोचन चित्रित किये गये हैं । प्रसन्नम् शब्द उनका हर्षित रूप दर्शाता है साथ ही यह नेत्रों का भी विशेषण है, जिसका अर्थ है मुदित नेत्र ।

ध्यानम् की तीसरी पंक्ति में वर्णित है कि रामचन्द्रजी के वाम भाग में अर्थात् बायीं ओर सीताजी विराजमान हैं , जिनके मुखकमल से उनके नेत्र मिले हुए है । वामांक में वाम व अंक, ये दो शब्द हैं, जिसमें वाम का अर्थ है बांया एवं अंक का अर्थ है पार्श्व भाग । सीताजी उनके बायें पार्श्व में, अर्थात् उनकी बांयी ओर विराजमान हैं तथा उनके कमल समान सुंदर मुख से रामजी के नेत्र मिल रहे हैं । पहले रामजी के नेत्रों को मुदित व कमलपत्र-सा सुकुमार सुंदर बताया । अब इन प्रसन्न नयनों से अपने बायीं ओर बैठी सीताजी के कमल समान श्रीमुख को देखने से प्रकट होता है कि वे उन्हें स्निग्ध विमल दृष्टि से देख रहे है ।

सीताजी के मुखकमल से मिले हुए नेत्रों का—मुदित नेत्रों का सुन्दर वर्णन गोस्वामी तुलसीदास रचित गीतावली में भी मिलता है, जो दृष्टव्य है—

राघौजू-श्रीजानकी-लोचन मिलिबे को मोद
कहिबेको जोगन न, मैं बातैं-सी बनाई है ॥४॥

इसके पश्चात् रामजी को नीरदाभम् कहा है अर्थात् नीरद (बादल) जैसी आभा वाले । इस प्रकार उन्हें मेघश्याम द्युति वाला वर्णित किया है । रामस्तुति में भी गाया जाता है नीलाम्बुजश्यामलकोमलांगमं सीतासमारोपितवामभागम् । अनेक विद्वान यह मानते हैं कि नील व श्याम रंग अनन्तता के द्योतक हैं । संस्कृत भाषा में नील रंग से काला रंग भी माना जाता है ।

ध्यानम् की चौथी पंक्ति के अनुसार रामचन्द्र नानालंकारदीप्तम् हैं अर्थात् अनेक आभूषणों से राम देदीप्यमान हैं । अपने ध्यान में साधक उनके जगमगाते रूप की अनुभूति का कृपा-प्रसाद पा कर धन्य हो जाता है । इस श्लोक में श्रीराम का अंतिम विशेषण है दधतमुरुजटामण्डलं । दधतम् का अर्थ है धारण किया हुआ । जटामंडल कहते हैं बटे हुए, बल खा कर जुड़े हुए बालों के समूह अथवा वलय को । उरु का अर्थ है प्रशस्त, घना, बड़ा और फैलावदार । तात्पर्य यह कि श्रीराम का शीश घने जटा-कलाप से सजा हुआ है । अत: दधतमुरुजटामण्डलम् से ध्वनित होने वाला अर्थ है घनी केशराशि के जटावलय अथवा जटाजूट को धारण किया हुआ है जिसने । इस प्रकार इन सब विशिष्ठताओं से संपन्न श्रीराम की छवि को अपने स्मरण-चिन्तन का विषय बनाना बतलाया गया है ।

इस प्रकार संक्षेप में कहें तो ध्यानम् में कहा गया है कि साधक दीर्घ भुजाओं वाले, धनुष-बाण धारणधारी, पद्मासनासीन,पीतपटधारी, नवकमलपत्र से स्पर्धाशील नेत्रों वाले, हर्षित व बांयीं ओर विराजमान सीताजी के मुखकमल को स्निग्ध दृष्टि से देखने वाले, मेघश्याम द्युति वाले, नाना अलंकारों से दीप्त व प्रशस्त जटाजूटधारी रूप वाले रामचन्द्र का ध्यान करे ।

विनियोग: अनुक्रमणिका श्लोक १

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