श्रीरामरक्षास्तोत्रम्

श्लोक १

Shloka 1

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥१॥

चरितम् = जीवन-कथा
रघुनाथस्य = रघुनाथ का
शतकोटिप्रविस्तरम् शतकोटि + प्रविस्तरम्
शतकोटि = सौ करोड़ (श्लोकों के)
प्रविस्तरम् = प्रकृष्ट विस्तार वाला है
एकैकमक्षरं एकैकम् + अक्षरम्
एकैकम् = एक-एक
अक्षर = वर्णमाला का अक्षर
पुंसाम् = मनुष्यों के
महापातकनाशनम् महापातक + नाशनम्
महापातक = महापापों का
नाशनम् = नाशक (है)

अन्वय

रघुनाथस्य चरितम् शतकोटि प्रविस्तरम्, एकैकम् अक्षरम् पुंसाम् महापातक नाशनम् ।

भावार्थ

रघुनाथजी का जीवन-वृत्त सौ करोड़ (श्लोकों के) विस्तार वाला है । और राम के इस जीवन-वृत्त का एक-एक अक्षर मनुष्यों के महापापों का नाशक है ।

व्याख्या

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र का चरित लोकविश्रुत व विशद है । चर्यत इति चरितम् । चरित से तात्पर्य जीवनकथा अथवा जीवनवृत्त से है, जिससे नायक का शील, उसका आचरण, इतिहास आदि आलोक में आते हैं । चरित में उनकी विशद कथा वर्णित होती है जैसे रामचरित, शिवचरित, सुदामा चरित, दशकुमारचरितम् आदि ।

श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का यह पहला श्लोक रघुनाथजी के परम पावन जीवन-वृत्त की महिमा पर प्रकाश डालता है । रघुनाथ कहने से तात्पर्य है रघुवंश के नाथ अथवा स्वामी से —- बिस्वरूप रघुबंसमनि क्रतु बचन बिस्वासु । यहां इस श्लोक में अति संक्षेप में कहा गया है कि रघुनाथजी का चरित सौ करोड़ के प्रकृष्ट विस्तार वाला है — शतकोटिप्रविस्तरम् । रामचरितमानस के बालकाण्ड में भी लिखा है — रामायन सत कोटि अपारा । संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित श्री नित्यानन्द मिश्र का कहना है कि ऱघुनाथजी के चरित को सौ करोड़ के विस्तार वाला कहने का आशय है कि यह सौ करोड़ श्लोकों के विस्तार वाला है । पंडितजी के शब्दों में —श्लोकानां शतकोटि: प्रविस्तरो यस्य यस्मिन् वा तत्  शतकोटिप्रविस्तरम् अब्जश्लोकात्मकनन्तव्यासं वा । इसका अर्थ है सौ करोड़ का विस्तार अनन्त विस्तार के तुल्य है — आदि अन्त कोई जासु न पावा । और प्रविस्तरम् का अर्थ है  प्रकृष्ट रूप से विस्तृत । इस प्रकार पहले श्लोक की पहली पंक्ति यह बताती है कि रामचरित का विस्तार  अपार असीम और अछोर है । रमचरितमानस में  गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं —

रामचंद्र के चरित सुहाए । कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥३॥

पहले श्लोक में आगे कहा है कि सौ करोड़ श्लोकों के इस विराट विस्तार वाले रघुनाथजी के चरित का एक-एक अक्षर मनुष्यों के महापापों का ध्वंसक है । रामकथा में वह सामर्थ्य है कि वह मनुष्य के जन्मजन्मान्तरों के संचित पाप-राशि को जला कर उसका अंत कर सकती है । रामकथा पापमोचनी है । सचमुच ही उनकी कथा का श्रद्धा से श्रवण या पठन करने वाला व्यक्ति अपने जीवन में अमृत के कुछ कण अवश्य पा लेता है । उसके जीवन में परिवर्तन कब दबे पाँव आ कर सराहना-भरा सुधार कर जाता है, इसका पता रामप्रेमी को चलता ही नहीं । जा पर कृपा राम की होई । ता पर कृपा करे सब कोई ॥ 

रामचरित का एक-एक अक्षर बड़े से बड़े पाप का विध्वंस करता है । इस परिप्रेक्ष्य में यह जानना आवश्यक है कि तुलसीदासकृत रामचरितमानस की प्रत्येक चौपाई मन्त्र के समान प्रभाव रखती है और ये सिद्ध चौपाइयाँ मानी जाती है । अत: यह कथन सर्वथा सत्य है कि राम के चरित का एकैकमक्षरं पुरुषों के अर्थात् मनुष्यों के महापापों को नष्ट करने का सामर्थ्य रखता है । लेकिन साथ में निहित अर्थ यह भी है कि  पापों का नाश के बाद पुन: पापाचार में लिप्त कदापि न हुआ जाये । क्योंकि यदि मन्त्र के समान है तो मन्त्र भी कोई खेल तो नहीं होता कि जैसे व जब चाहें, किसी भी आशय से उसका प्रयोग कर लें । मन्त्रों के नियम-विधान होते हैं । श्रद्धा के साथ-साथ  मन में सदाशयता व स्वच्छता भी परमावश्यक है, अन्यथा मन्त्र निष्फल होता है । रघुनाथजी सुन्दरकाण्ड में कहते हैं — निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहे कपट छल छिद्र न भावा ॥

हिन्दी के पहले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने महाकाव्य साकेत के आरम्भ में अविरल भक्तिभाव से विभोर हो कर अपने आराध्य श्रीरामचन्द्र के चरणकमलों में यह निवेदन किया है—

राम  तुम्हारा  वृत्त  स्वयं ही काव्य है
कोई कवि बन जाये यह सहज ही संभाव्य है ।
ध्यानम् अनुक्रमणिका श्लोक २, ३, ४

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2 comments

  1. Sonam says:

    पहली लाइन : मर्यादापुरुषोत्तम
    यह श्रीरामरक्षास्तोत्र का अनुवाद मात्र नहीं हो रहा, यह एक सुंदर संक्षिप्त रामायण की रचना हो रही। जय श्रीराम।। 🙏

    • Kiran Bhatia says:

      जय श्रीराम ! श्रीरामकृपा के श्रावणी मेघ सदा से बरस रहे हैं, बस आप और हम, सब प्रेमी भक्तजन सरसा जाते हैं यदा-कदा इस प्रेमभीनी रिमझिम में । इति शुभम् ।

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