श्रीरामरक्षास्तोत्रम्

श्लोक ६

Shloka 6

जिह्वां विद्यानिधि: पातु कण्ठं भरतवन्दित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥

जिह्वां विद्यानिधि: पातु कण्ठं भरतवन्दित:
जिह्वाम् = जीभ की
विद्यानिधि: = विद्या के सागर
पातु = रक्षा करें
कण्ठम् = गले की
भरतवन्दित: = भरत द्वारा वन्दित
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक:
स्कन्धौ = दोनों कंधों की
दिव्यायुध: दिव्य + आयुध:
दिव्य = दिव्य, अलौकिक
आयुध: = हथियार हैं जिनके पास, वे
पातु = रक्षा करें
भुजौ = दोनों बाहुओं की
भग्नेशकार्मुक: भग्न + ईश: + कार्मुक:
भग्न = टूट गया
ईश: = भगवान शिव का
कार्मुक: = धनुष (जिनसे, वे राम)

अन्वय

विद्यानिधि: जिह्वाम् पातु भरतवन्दित: कण्ठम् (पातु) दिव्यायुध: स्कन्धौ पातु , भग्नेशकार्मुक: भुजौ (पातु) ।

भावार्थ

विद्या के सागर राम मेरी जिह्वा को राखें और मेरे और कण्ठ की रक्षा भरतजी द्वारा वन्दित श्रीराम करें । दोनों कन्धों की रक्षा दिव्य आयुधों से समन्वित प्रभु राम करें तथा शिवधनुष के तोड़नहारे राम मेरी दोनों भुजाओं की रक्षा करें ।

व्याख्या

प्रस्तुत श्लोक में जिह्वा की रक्षा के लिये रामजी के विद्यानिधि: रूप को पुकारा है । विद्यानिधि अर्थात् विद्या के सागर । विद्या के वे अगाध सिन्धु हैं । चारों वेद उन्हीं के श्वास हैं — जाकी सहज स्वास श्रुति चारी । रामचरितमानस में गोस्वामी जी लिखते हैं—

गुर गृह गए पढ़न रघुराई । अल्प काल बिद्या सब आई ॥
कुछ विद्वान बिद्या सब से अर्थ निकालते हैं ‘चौदहों विद्याएं’ । रामचरितमानस में वर्णन में आता है कि राम मन लगा कर वेद-पुराण सुनते हैं व भाइयों को भी सुनाते हैं —
बेद पुरान सुनही मन लाई ।आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
गुरु के आश्रम से वे शिक्षा पाकर लौटते हैं । फिर जब महर्षि विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को अपने साथ भयावह वन चरितवन ले कर आते हैं, जिसे ताड़कावन के नाम से जाना जाता था, तब मुनि ने वहां उनको विद्या दी — बिद्यानिधि कहुं बिद्या दीन्ही । मुनि ने रणोपयोगी विद्या दी, क्योंकि उन्हें विदित था कि आगे जा कर राक्षसों से इनका रण होगा । राम-लक्ष्मण को जनकपुर ले जाते हुए भी मार्ग में मुनि शिक्षा देते थे दै बिद्या ले गये जनकपुर… —गीतावली— । राम के इस विद्यानिधि: रूप व नाम से जिह्वा की रक्षा हेतु प्रार्थना की गयी है ।
भरतवंदित राम से कण्ठ की रक्षा की प्रार्थना की गई है । यह कथा सर्वविदित है कि भरत श्रीराम की चरण-पादुका सादर लेकर नन्दिग्राम में पर्णकुटी में ही उनके वनवास अवधि तक रहे और तब तक वे शीश पर जटाजूट तथा शरीर पर वल्कल वस्त्र धारण कर एक तपस्वी की भाँति पवित्र अन्त:करण से रहे । वे नित्य चरण-पादुकाओं की पूजा कर उन्हीं से आज्ञा प्राप्त कर राज्य का संचालन करते थे ।
नित्य पूजत प्रभु पांवरी प्रीति न हृदय समाति ।
मागि मागि आयुस करत राज काज बहु भांति ॥
—रामचरितमानस—
प्रभु के चरणों में भरतजी का प्रेम, नियम तथा व्रत को देख कर तो मुनियों ने भी अपने मस्तक झुका दिये । तुलसीदासजी के शब्दों में—
प्रभु-पद-प्रेम-नेम-ब्रत निरखत  मुनिन्ह नमित मुख किन्हें  ॥
—गीतावली—
वन से लौट कर जब सीतासहित श्रीराम राजसिंहासन पर विराजमान हुए, तब प्रभु द्वारा प्रदान की गयीं चरण-पादुकाओं को भरतजी ने उन्हें धारण कराया व कहा कि आपका राज्य आपके चरणों में समर्पित करते हुए मुझे अपार आनन्द हो रहा है ।
रामरक्षा में कण्ठ के उपरान्त दोनों कंधों के रक्षण हेतु विनय है कि दिव्यायुध: राम मेरे दोनों कंधों की रक्षा करें । राम दिव्यायुध: हैं अर्थात् दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से सज्ज हैं, दूसरे शब्दों में दिव्यायुधधारी हैं । दिव्य वह है जो पार्थिव अर्थात् पृथ्वी का, इस लोक का—इस मृत्युलोक का नहीं है, अपितु देवलोक अथवा स्वर्गलोक का है । अत: लौकिक न होकर अलौकिक है । श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र से अनेक अद्भुत् आयुध मिले थे— आयुध सब समर्पि के प्रभु निज आश्रम आनि ।
श्रीरामरक्षास्तोत्रम् में दोनों भुजाओं की रक्षा हेतु राम के भग्नेशकार्मुक: रूप को पुकारा गया है । भग्न + ईश + कार्मुक: इस शब्द का संधि-विच्छेद है । भग्न यानि तोड़ना, ईश शिवजी का वाचक है और कार्मुक:  का अर्थ होता है धनुष, तात्पर्य यह है कि शिव-धनुष को तोड़ने वाले ।
राम कामरिपु-चाप चढ़ायो ।
—गीतावली—
कामरिपु का अर्थ है कामदेव का शत्रु यानि भगवान् शिव । जनकपुर में सीता-स्वयंवर में गुरु विश्वामित्र की आज्ञा पा कर मुनि-पदरेनु  माथे से लगा कर शम्भु-धनुष की प्रदक्षिणा करके श्रीराम ने देखते-ही-देखते उसे भग्न कर दिया । उस धनुष चढ़ाते, तानते और तोड़ते हुए भगवान् को कोई देख ही न सका । उसके टूटने की घोर ध्वनि को सुन कर शिवजी की भी समाधि टूट गई, ऐसा वर्णन गीतावली में है —
लखियों न चढ़ावा, न तानत, न तोरत हू,
घोर धुनि सुनि सिवकी समाधि टरी है ।
—गीतावली—
इस प्रकार प्रस्तुत श्लोक में जिह्वा, कण्ठ, स्कन्ध तथा बाहुओं के रक्षण की विनती राम के विविध नामों को लेकर की गई है ।

 

श्लोक ५ अनुक्रमणिका

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