आषाढ़ का सवेरा

आषाढ़ का सवेरा
उजियारी अष्टमी
नभ के ललाट पर
विभूति-से छिटके वारिधर
झांकते छिपते सूर्य के
प्रकाशकणों को
बरसाता किरण-निकर ।

अंकुरित होती हुई धूप
और उसका सान्द्र स्पर्श ।
तरुवर तले
पनीले बैंच पर
बैठ कर
पी रही हूँ
सांस लेते हुए पत्तों की
मर्मर ध्वनि को ।

शेष है सब कुछ
मानो मूक
बीच बीच में मीठी
पक्षी-बोलियों के साथ
निकट ही से कहीं
कर्णपुटों पर
पड़ती है
पुंस्कोकिल की कूक ।

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