पालागन बनाम पागलपन
आज भगवान चंद्रमौलि के मास की — पवित्र श्रावण मास की शुक्ल प्रतिपदा तिथि है । बाहर रिमझिम पानी बरस रहा है । सावन की झड़ी वाली बात तो नहीं, पर मन को मुदित करने के लिये पर्याप्त है । वेला है शुक्रवार और शनिवार की मध्यरात्रि की । निस्तब्धता का है चहुंओर साम्राज्य, सिवाय टपटप करती बरखा-बूँदों की आवाज़ के । समय है डेढ़ बजे का । हम कहते हैं कि रात का डेढ़ बजा है और तथाकथित सात समुद्र पार वाले इसे सुबह के डेढ़ बजे का समय बताते हैं । अस्तु, आयु के सत्तर वर्ष पार करने के बाद सोते हुए आँख कब और किस कारणवश खुल जाये, इसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं । यही आँख-मिचौली मेरे साथ भी आये दिन होती है । प्रकृति कभी पुचकार कर तो कभी धमका कर उठा देती है । यही क्रम आज की रात भी, लगता है, चलने वाला है । निशीथ यामिनी का यह काल निद्राकारी भी है और निद्राहारी भी । “ या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता “ वाली मेरी निद्रादेवी भी मनोनुकूल मौक़ा पाकर इस मध्यरात्रिगता वर्षा में कहीं वनविहार करने निकल पड़ी हैं ।
देवी के प्रस्थान के बाद अब बची मैं और मेरा जागरण । दैनन्दिन के अनुभव ने पत्थर की यह लकीर तो खींच ही दी है कि अब सोने की कोशिश करना होगी समय की पूरी बर्बादी । सोचा चलो अब वाट्सैप देख लिये जायें, सो देखे । कुछ बड़े विनोदपूर्ण लगे और कुछ प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर, जो कि मेरी प्रीति का विषय हैं । प्रकृति देवी के आगे मैं हृदय हारे बैठी हूँ । कलकल करती उछालें भरती बरसाती नदी के विडियो वाली पोस्ट बड़ी सुहावनी लगी और लगी मैं उसे अग्रेषित करने, पर तभी लगा कि कोई मुझे पागल समझेगा । क्योंकि घड़ी रात्रि दो बजा रही थी । संकोच की अनुभूति ने की-पैड पर पड़ने वाली उंगली को बरज दिया । वर्जना ने ‘ ना ‘ की मुहर लगा दी । लेकिन मुझे तो लिखने का कीड़ा है । यह कीड़ा रात्रि की निस्तब्धता में सक्रिय हो उठता है । इसके दारुण दंश से शरीर में मीठ-मीठा दर्द उठता है । ऐसे में समय रहते कुछ काग़ज़ यदि नीले-काले कर पाती हूँ, तब कल पाती हूँ । वरना मन की बेकली स्वस्थ नहीं रहने देती ।
बात जब काले-नीले रंग की होती है ( संस्कृत भाषा में नील रंग काले रंग का द्योतक है ), तब भगवान नीलकण्ठ की छवि अन्तर में उठे बिना नहीं रहती । उन अकारण करुणावरुणालय का स्मरण मेरी मन-सरिता का अनिरुद्ध प्रवाहपथ है । यह मुझ अकिंचन् पर उनकी अविरल अनुकम्पा है । कहते हैं कि नदी अनावृष्टि से कितनी ही सूख क्यों न जाये, वह अपना प्रवाहपथ कभी नहीं भूलती । सूखने के बाद भी जब कभी नदी पुन: सुजला होती है, तब अपने पुराने पथ पर से तटों को तोड़ती चीरती हुई बह निकलती है । ऐसे ही होते हैं चित्त पर जड़े शैशव के संस्कार । बस, यहाँ वर्षा हुई और वहाँ संस्कारों की सदानीरा मन्दाकिनी मार्ग प्रशस्त करती बह निकलती है ।
हाँ, तो मैं भगवान शितिकण्ठ की बात कर रही थी । नीलिमा-कालिमा लिये हुए रंग सीधे मुझे मेरे मनोराज्य में योगीश्वर के निकट पहुंचा देते हैं, जहां कैलाश के हिमधवल शिखर पर वे समाधिस्थ होकर विराजमान हैं । नि:शब्दता के इस एकछत्र साम्राज्य में अपने मनमयूर के वाहन पर बैठी, मृत्युलोक की पापपंक में धंसी मैं मलिन-मना, मलिन-वसना उनके पावन सानिध्य की कल्पना का सुख उठा लेती हूँ ।
परिवार के अतिरिक्त जन्मस्थान के संस्कार भी प्रबल होते हैं । मेरी जन्मस्थली गुजरात का जामनगर एक किंवदन्ती के अनुसार शिवजी की नगरी मानी जाती है । पुष्टिमार्गीय परिवार के वैष्णव संस्कारों के बीच पले-बढ़े बचपन ने कब कैलाशपति का कर थाम लिया, पता ही न चला । उन्हीं को अपना पिता व उनकी गृहिस्थन भगवती पार्वती को माँ मान कर उनके दिव्य कुटुम्ब की स्वत:स्वीकृत सदस्या मैं बनी बैठी हूँ । अब यदि मुझमें माँ सिंहवाहिनी की पुत्री होने का गर्व उपजता है, तो कोई मुझे बतायें कि मैं कहाँ ग़लत हूँ ।
इस स्वगत संवाद के आरम्भ में बात मैं मध्यरात्रिगता वर्षा की कर रही थी, जो अब थम गई है और मेरी नींद पूरी तरह उड़ गई है । भला ही हुआ । कुछ पन्ने काले किये, जिन्हें मैं अर्धरात्रि में उपजी अनिद्रा का सह-उत्पाद ( by product ) मान लिये लेती हूँ । कुछ पलों के लिये भगवान नीलकण्ठ के खड़ाऊँ पर शीश नवा कर पालागन (पांय लागुं) कर दिया पागल मन ने । अब इसे पा-लागन कहें या पागलपन ।
लीजिये, मैं अपने आप से संवाद ही करती रही और समयरूपी तरु के वर्षास्नात पल्लवों से बूंद-बूंद पानी फिसलता रहा । रजनी व्यतीत हो चुकी है । अब प्रत्यूष काल की बेला आने को है । नैशान्धकार, जो लुकती-छिपती वर्षा की टप-टप सुन रहा था, अब पूरी तरह शान्त हो गया है … साथ ही मेरा पागल मन भी ।
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