श्रीरामरक्षास्तोत्रम्

श्लोक ७

Shloka 7

करौ सीतापति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित् ।।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥

करौ सीतापति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्
करौ = दोनों हाथों को
सीतापति: = श्रीराम
पातु = रक्षित करें
हृदयं = दिल को, छाती को
जामदग्न्यजित् जामदग्न्य + जित्
जामदग्न्य = जमदग्निमुनि के पुत्र (परशुराम)
जित् = को जीतने वाले
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय:
मध्यम् = मध्य भाग को, पेट को
पातु = राखें, रक्षित करें
खरध्वंसी = खर (नामक राक्षस) को मारने वाले
नाभिम् = ढोंढी (केंद्र) को, नाभि को
जाम्बवदाश्रय: जाम्बवत् + आश्रय:
जाम्बवत् = जाम्बवन्त ( रीछपति ) के
आश्रय: = शरणदाता
जाम्बवदाश्रय: = जाम्बवन्त जिनकी शरण गहते हैं, वे राम

अन्वय

सीतापति: करौ पातु जामदग्न्याजित् हृदयम् (पातु), खरध्वंसी मध्यम् पातु जाम्बवदाश्रय: नाभिम् (पातु) ।

भावार्थ

सीतापति राम मेरे हाथों की रक्षा करें और हृदय की रक्षा करें जमदग्नि-पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले राम । खर नामक राक्षस का विध्वंसकर्ता राम मेरे शरीर के मध्य भाग की अर्थात् पेट की रक्षा करें तथा जाम्बवन्त के शरणदाता राम मेरी नाभि अथवा मेरे केन्द्र की रक्षा करें ।

व्याख्या

श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के सातवें श्लोक में कहा है कि सीतापति अथवा सीता के नाथ,  जानकीवल्लभ राम मेरे दोनों हाथों का रक्षण करें तथा हृदय की रक्षा जमदग्नि मुनि के पुत्र परशुराम को जीतने वाले राम करें । जमदग्नि वस्तुत: मुनि परशुराम के पिता का नाम है, इसलिये परशुरामजी को जामदग्न्य भी कहा जाता है । उनकी माता का नाम रेणुका है । मुनि जमदग्नि सप्तर्षि-मण्डल के एक ऋषि भी हैं ।

महाभारत के वनपर्व व अन्यत्र दी गई परशुरामजी की कथाओं के अनुसार एक बार हैहयवंश का अधिपति सहस्रबाहु अर्जुन (सहस्रार्जुन कार्त्तवीर्य), जो एक हजार बलशाली भुजाएं व अपरिमित तेज पाकर स्वेच्छाचारी व अत्याचारी हो गया था, दैववश जमदग्नि मुनि के आश्रम में आकर, वहाँ के पेड़-पौधे उखाड़ कर उनकी सर्वकामनापूर्णी होमधेनु के बछड़े को बलात् ले जाता है । मुनिपुत्र तब वहाँ नहीं थे ।आश्रम में लौटने पर, सब कुछ ज्ञात होने पर वे तुरंत कार्तवीर्य के पीछे वायुवेग से दौड़ते हुए गये तथा उस दुष्ट की सहस्र भुजाओं को काट डाला एवं सेना सहित उसे भी मार कर गोवत्स (बछड़ा) वापिस लाकर पिता को दे दिया । तत्पश्चात् प्रतिशोध की अग्नि में जलते हुए एक दिन कार्त्तवीर्य के पुत्रों ने आश्रम में अकेले बैठे ध्यानस्थ मुनि जमदग्नि को मार डाला । परशुरामजी ने आश्रम पर आकर आर्त्त विलाप करती माता रेणुका से सब बात सुनी तब पहले तो उनका हृदय भी अपने पिता के लिये उत्कट हाहाकार कर उठा । बाद में प्रचण्ड क्रोध के वशीभूत हो कर परशुरामजी ने क्षत्रिय-संहार की प्रतिज्ञा की तथा हैहयवंश को नष्ट कर दिया । क्षत्रियों को निष्ठुर व निरंकुश पाकर, पूरी तरह उन्हें पाप-पंक में सना हुआ देख कर कालाग्नि के समान भयानक बने हुए परशुरामजी ने पृथ्वी को इक्कीस बार नि:क्षत्रिय किया— भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही ।  

मिथिला राज्य के जनकपुर में मिथिलानरेश की पुत्री सीता के स्वयंवर का आयोजन हुआ । वहाँ सभागार में परशुरामजी का आगमन हुआ, जब उनके गुरु भगवान् शिव का धनुष श्रीराम द्वारा तोड़ा गया । जनकजी से उन्होंने बड़े क्रोध से पूछा—कहु जड़ जनक धनुष के तोरा ॥  श्रीराम के प्रति कटु व कठोर वचन बोले । लक्ष्मणजी ने उन्हें इस बात के लिये खरी-खोटी सुनाई । मुनि के वचनों से सभी को भारी त्रास हुआ । उस समय रघुवीरजी ने निर्भीकता से किन्तु संयत रहते हुए मुनि से सार्थक संवाद किये । धीर वीर राम की सुशीलता तथा वीरता के उत्कर्ष ने परम क्रोधी मुनि के प्रचण्ड तेज को प्रभाहीन व पराजित कर दिया । इस प्रकार राम ने क्रोधी मुनि का नम्रता से गर्व-दलन किया । अतएव उन्हें रामरक्षा में जामदग्न्यजित् कहते हुए उनसे अपने हृदय की रक्षा की प्रार्थना की है कि जामदग्न्यजित् राम मेरे हृदय की अभिरक्षा करें । ध्यातव्य है कि यहां हृदय मात्र एक भौतिक अंग की तरह ही नहीं लिया गया है । हृदय में मन भी समाविष्ट होता है, जो दिखता नहीं है, किन्तु समूचे जीवन को नियंत्रित व निर्देशित करता है । इस तरह हृदय की रक्षा का भार परशुरामजित राम को देने का गूढ़ार्थ यह है कि मेरा मन कभी डोले नहीं व प्रत्येक परिस्थिति में वह अकम्प और अभय रहे ।इस हृदय का भगवान् राम ही आश्रय हैं ।

अगली पंक्ति में मध्यं पातु कह कर अपने शरीर के मध्य भाग अथवा पेट की रक्षा की विनती खरध्वंसी राम से की है । राम को खरारि भी कहा जाता है —सोभा सिन्धु खरारि । खर नामक राक्षस रावण तथा शूर्पणखा का अत्यन्त बलशाली सौतेला भाई था । शूर्पणखा का पंचवटी में राम-लक्ष्मण से प्रेमभिक्षा माँगना और उसके बाद लक्ष्मण द्वारा उसे विरूपा व घोर-दर्शना बना देना तत्पश्चात् विलाप करते हुए उसका भाई के पास जाना आदि घटनाओं को सभी रामकथाप्रेमी जन भलीभाँति जानते हैं । राम-लक्ष्मण को दण्ड देने के लिये खर-दूषण राक्षसों की विशाल सेना के साथ उन्हें मार देने हेतु निकलते हैं । राम तब सीता व लक्ष्मण को दूर भेज कर अकेले उनसे संग्राम करके उनका विध्वंस करते हैं । अत: खर के अरि (शत्रु) होने से वे खरारि अथवा खरध्वंसी कहलाते हैं । खरध्वंसी राम से शरीर के मध्य भाग की दूसरे शब्दों में पेट की रक्षा की प्रार्थना की गई है ।

इस श्लोक के अन्त में जाम्बवदाश्रय: राम से विनती है कि वे नाभि की रक्षा करें । वे राम जो जाम्बवन्त के आश्रय हैं, दूसरे शब्दों में जाम्बवन्त जिनके आश्रित हैं, जिनके अनुचर अथवा अनुयायी हैं, सेवक हैं । जाम्बवन्त ने जिनकी शरण गही है, वे भक्तजनों के आश्रय आनन्दकन्द श्रीराम, मेरे नाभिस्थान को अभिरक्षित करें । रामचन्द्रजी की भालू-वानर सेना में ऋक्षपति ( रीछपति ) जाम्बवान् वृद्ध होने पर भी अपने प्रभु श्रीराम के महाभट अर्थात् महावीर योद्धा थे । स्वयं को राम का दास मानते थे— जामवन्त कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम दाया ॥ अपने प्रभु का काज सम्पन्न हो जाने में वे अपने जन्म को सफल मानते थे — प्रभु की कृपा भयउ सब काजु । जन्म हमार सुफल भा आजु ॥  राम सुग्रीव की भांति भल्लपति जाम्बवन्त क साथ भी मंत्रणा करते थे । उनकी बुद्धिमत्ता पर अटूट श्रद्धा रखते हुए राम उनके परामर्श का समादर करते थे । उनका जीवन राम को समर्पित था । राम की  जाम्बवदाश्रय  छवि की महत्ता अपार है ।

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