श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
श्लोक ९
Shloka 9जानुनी सेतुकृत्पातु जंघे दशमुखान्तक: ।
पादौ विभीषणश्रीद: पातु रामोऽखिलं वपु: ॥९॥
जानुनी सेतुकृत्पातु जंघे दशमुखान्तक: । | ||
जानुनी | = | दोनों घुटनों को |
सेतुकृत्पातु | → | सेतुकृत् + पातु |
सेतुकृत् | = | सेतु सिरजनहार (राम) |
पातु | = | रक्षित करें |
जंघे | = | जांघों को |
दशमुखान्तक: | → | दशमुख: + अन्तक: |
दशमुख: | = | दस मुँह वाले (रावण का ) |
अन्तक: | = | अन्त करने वाले (राम) |
पादौ विभीषणश्रीद: पातु रामोऽखिलं वपु: | ||
पादौ | = | दोनों पैरों को |
विभीषणश्रीद: | → | विभीषण: + श्री + द: |
विभीषण: | = | रावण का अनुज विभीषण |
श्री | = | ( राज्य ) लक्ष्मी |
द: | = | देने वाले (राम) |
पातु | = | रक्षित करें |
रामोऽखिलम् | → | राम: + अखिलम् |
राम: | = | रामजी |
अखिलम् | = | ( मेरे ) पूरे |
वपु: | = | शरीर ( रक्षित करें ) |
अन्वय
सेतुकृत् जानुनी पातु दशमुखान्तक: जंघे (पातु) विभीषणश्रीद: पादौ (पातु) राम: अखिलम् वपु: पातु।
भावार्थ
सेतु सिरजनहारे राम मेरे दोनों घुटनों की रक्षा करें । दशानन का अन्त करने वाले राम मेरी जाँघों की रक्षा करें तथा विभीषण को राज्यलक्ष्मी प्रदान करने वाले राम मेरे पैरों की रक्षा करें । श्रीराम मेरे पूरे शरीर की रक्षा करें ।
व्याख्या

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई । लरिकाईं रिषि आसिष पाई ॥
तिन्ह कें परस किये गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥
तिन्ह कें परस किये गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥
रामचरितमानस—(सुंदरकाण्ड)
अर्थात् हे नाथ ! नील तथा नल दोनों वानर भाइयों ने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया है । उनके स्पर्श से भारी-भारी पर्वत भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैरेंगे । फिर सागर यह भी निवेदन करता है कि मैं भी अपने बल-सामर्थ्य के अनुसार सहायता करूंगा, इस प्रकार हे नाथ ! आप समुद्र को बँधवाइये —एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाइअ । तत्पश्चात् बलिष्ठ वानर बड़े-बडे वृक्ष व पर्वत खेल ही खेल में उठा कर नल-नील को देते हैं और वे दोनों भ्राता उनसे सुन्दर सेतु का निर्माण करते हैं । सेतु-रचना के महान् कार्य से राम कृतज्ञ व प्रसन्न हो कर उस स्थल पर शिवलिंग-स्थापना की अपनी महती इच्छा व्यक्त करते हैं — करिहौं इहां संभु थापना । और फिर उन्होंने लिंग थापि विधिवत् करि पूजा । वही स्थल रामेश्वरम् तीर्थ बन गया । शिवभक्त राम ने रामेश्वरम की महिमा प्रकट करते हुए कहा —
जे रामेश्वर दर्शन करिहहिं । ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ॥
प्रकारान्तर से तो यह भगवान राम की भक्तजनों पर ही महती कृपा है ताकि श्रद्धालु व मोक्षार्थी यहाँ आकर सफल-मनोरथ हों । यही नहीं, सेतु-निर्माण की लीला मे यथाशक्ति सभी को प्रभु राम की सेवा का सुयोग भी सुलभ हुआ । वानर, रीछ, राक्षस, मनुष्य व नन्हें जीव तथा जड़-चेतन सभी रामकाज करने में तत्पर हो गये । सागर को तुलसीदासजी ने जलधि जड़ कहा ही है । नन्ही गिलहरी की सेवा की नन्ही कथा भी सभी को विदित है । राक्षस विभीषण का भी इसमें योगदान है, क्योंकि उन्हीं की मंत्रणा से रघुनाथजी ने सागर के समीप जा कर सेना के उस पार उतरने का उपाय पूछा था ।
प्रभु राम के सेतु-सिरजनहार रूप के विषय में रामचरितमानस के लंकाकाण्ड में बहुत सुंदर व सार्थक बात गोस्वामी तुलसीदास जाम्बबवन्तजी के मुख से कहलवाते हैं । ऋक्षपति (रीछपति) रामजी से कहते हैं कि आपका तो नाम ही सेतु है, मनुष्य उस पर चढ़ कर भवसागर पार होते हैं —नाम सेतु नर चढ़ि भवसागर तरहिं ।सेतु बांधने का कार्य तो स्वयं उन्हीं का है, अतिशय उदारता व भक्तवत्सल्ता के कारण वे इसका यश भक्तों को दे देते हैं । मानस के लंकाकण्ड में लिखा है कि उन्होंने खेल-खेल में ही जलनिधि को बंधा लिया—देहि जलनाथु बंधाएउ हेला । श्रीयामुनाचार्य भी श्रीरामप्रेमाष्टकम् में यही बात कहते हैं कि जिन्होंने अपनी लीला से ही समुद्र पर पुल बांध दिया —लीलया बद्धसेतु: , वे श्रीरामचन्द्र मेरे सहायक हैं ।
घुटनों के पश्चात् दोनों जंघाओं के रक्षण की विनती है । कहा है कि दशानन का वध करने वाले दशमुखान्तक: राम मेरी जंघाओं की रक्षा करें । रावण की मृत्यूपरान्त वाल्मीकीय रामायण में जो वर्णन दिया गया है, उसका एक छोटा-सा अंश यहाँ प्रस्तुत है —
धृतिप्रवाल: प्रसभाग्र्यपुष्प
स्तपोबल: शौर्यनिबद्धमूल: ।
रणे महान् राक्षसराजवृक्ष:
सम्मर्दितो राघवमारुतेन ॥९॥
स्तपोबल: शौर्यनिबद्धमूल: ।
रणे महान् राक्षसराजवृक्ष:
सम्मर्दितो राघवमारुतेन ॥९॥
अर्थात् धैर्य ही जिसके पत्ते थे, हठ ही सुंदर फूल था, तपस्या ही बल और शौर्य ही मूल था, उस राक्षसराज रावणरूपी महान् वृक्ष को रणभूमि में श्रीराघव रूपी प्रचण्ड वायु ने रौंद डाला ।

आगे पैरों की रक्षा के लिये विभीषण को अखण्ड राज्यश्री प्रदान करने वाले — विभीषणश्रीद: राम से विनय है । रावणानुज विभीषण त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर कहता हुआ रामचन्द्रजी के पास आकर उनकी शरण ग्रहण करता है । प्रभु उसके आते ही पूरी भक्तवत्सल्ता के साथ पूरी कपिसेना के सामने उसे लंकेस कह कर संबोधित करते हैं । उससे सस्नेह संवाद करते हुए बताते हैं कि कैसे शील-गुण वाले जन उन्हें प्रिय लगते हैं । विभीषण का शील-स्वभाव ठीक वैसा ही है— ताते तुम अतिसय प्रिय मोरे । तदुपरान्त सागर का जल मँगवा कर वहीं व तभी उसका तिलक कर उसे लंकापति घोषित कर देते हैं —
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं । मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥९॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ॥१०॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ॥१०॥
इस प्रकार प्रभु राम ने दुरात्मा दशानन के क्रोध से विभीषण को राखेउ अर्थात् बचाया तथा दीन्हेउ राजु अखण्ड । रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में यह प्रसंग आता है कि युद्धोपरान्त अयोध्यापति राम विभीषण को श्रीलक्ष्मणजी से वस्त्राभूषण पहनवा कर लंका में निष्कंटक राज्य करने भेजते हैं । इसी कारण विभीषण को राज्यलक्ष्मी देने वाले भक्तवत्सल भगवान् का एक नाम है विभीषणश्रीद: ।
प्रस्तुत श्लोक के अंतिम चरण में पूरे शरीर की रक्षा की विनती है । कहा है कि राम मेरे अखिलं वपु की अर्थात् पूरे शरीर की रक्षा करें । परात्पर ब्रह्म चराचरनाथ श्रीरामचंद्र के विषय में क्या कहा जाये ? बस अंत मे गोस्वामीजी की पुनीत वाणी ही परम सत्य का संकेत करती है ।
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम-रोम प्रति वेद कहे ।
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