शिवताण्डवस्तोत्रम्

श्लोक १२

Shloka 12 Analysis

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणरविन्द्चक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ।।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजोर् दृषद् + विचित्रतल्पयोः +
भुजंग + मौक्तिकस्रजः
दृषद् = पत्थर, शिला
विचित्रतल्पः = रंग = बिरंगी शय्या
भुजंग = सर्प
मौक्तिकस्रजः = मोतियों की माला
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोःसुहृद्विपक्षपक्षयोः गरिष्ठरत्न + लोष्ठयोः +
सुहृदः + विपक्षपक्षयोः
गरिष्ठरत्नं = बहुमूल्य रत्न, भारी रत्न
लोष्ठः
= मिटटी का ढेला
सुहृद् = मित्र
विपक्षपक्षः = शत्रु पक्ष
तृणारविंदचक्षुषोःप्रजामहीमहेन्द्रयोः तृण + अरविन्दचक्षुषोः +
प्रजा + महीमहेन्द्रयोः
तृणं = घास
अरविंदचक्षुः = जिसके नेत्र कमल जैसे हों
प्रजा = साधारण जन
महीमहेन्द्रः = महाराजाधिराज
समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् समप्रवृत्तिकः कदा +
सदाशिवं भजामि + अहम्
समप्रवृत्तिकः = समान भाव रखने वाला
कदा = कब
सदाशिवं = सदाशिव को
भजामि = भजूंगा
अहम् = मैं

अन्वय

दृषद् – विचित्र तल्पयो: भुजंग – मौक्तिकस्रजो: गरिष्ठरत्न – लोष्ठयो: सुहृद् विपक्ष – पक्षयो: तृण – अरविंदचक्षुषो: प्रजा – महीमहेन्द्रयो: समप्रवृत्तिक: अहं कदा सदाशिवं भजामि ।

भावार्थ

शिला व रंगबिरंगी शैय्या में, सर्प व मोतियों की माला में, महामूल्यवान रत्न व मिट्टी के ढेले में, मित्र व शत्रुपक्ष में, तृण व कमल सदृश नेत्रों में, प्रजा व महाराजा में कब मेरी प्रवृत्ति एक समान होगी तथा कब मैं सदाशिव की उपासना करूँगा ।

व्याख्या

शिवताण्डवस्तोत्रम् के १२ वें श्लोक में भगवान सदाशिव के अनुराग में आप्लावित रावण का अंतःकरण कहता है कि उसे भक्ति के मार्ग में सबके प्रति समदृष्टि रखनी चाहिये । वह सदाशिव की प्रसन्नता का आकांक्षी है । लंकेश बनने के पहले उसने उग्र तपस्या भी की थी । अपरिमित बल के स्वामी रावण कठिनाइयों से लड़ने में सक्षम था । शिव-चिन्तन में निमग्न होकर वह सोचने लगता था कि विलास-ऐश्वर्य में मैं कब तक यों ही डूबा रहूँगा ।

पिछले श्लोक में रावण ध्वनिक्रमप्रववर्तितप्रचण्डताण्डव  करते हुए भगवान शिव के दर्शन पाकर उनकी जयजयकार करता है । शिव के ध्यान में परायण होने से उसका चित्त संयत होता है । भक्त -लेखक श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ का कथन है कि ईश के दर्शन के उपरांत जीव की आसुरी वृत्तियों पर आघात होता है, चाहे अल्प समय के लिए ही क्यों न हो, पर होता अवश्य है । (श्री चक्र की कहानी ‘असुर उपासक’ से) यही रावण के साथ भी हुआ । मृदंग का मंगल रव और महानर्तक महेश्वर की ताण्डव- चेतना उसके मन में सात्विक भावों का उद्रेक करती हैं । संसार की बहुमूल्य वस्तुएं मानो अपना मूल्य खोती चली जाती हैं । त्रिलोक के भोगों व रागरंग से रंजित पदार्थों के रंग फीके पड़ते जाते हैं । शिव के प्रति प्रवृत्त हुआ मन अब भक्ति-लभ्य शांति से पृथक होना नहीं चाहता, किन्तु उसकी अपनी अस्मिता को, उसके मातृकुल से प्राप्त दैत्य-संस्कारों को उसकी शांकर -चेतना मानो शुष्क किये जा रही है । उसका अन्तःकरण कहीं इस आंदोलन से आक्रांत है । चित्त में उठते और उमड़ते सात्विक भाव उसे ममत्व से समत्व की दिशा में ले जाते हैं । उसके परमाराध्य तथा परम आदर्श शिव का तो चिंतन ही मोहापहारी है, “विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम्” यही स्वयं रावण का कथन है, आने वाले १६ वें श्लोक में । निष्ठावान शिष्य के लिए गुरु-चरण ही उसका परम आदर्श होते हैं और जीव की सहज इच्छा होती है कि अपने आदर्श का ,श्रद्धेय का पदानुसरण करे । भगवान भालभूषण रावण के गुरु थे और उसने उनसे शस्त्रज्ञान और विज्ञानं सहित ज्ञान भी पाया था । स्कन्दपुराण के अनुसार “ज्ञानं विज्ञानसहितं लब्धतेन सदाशिवात् ।” भगवान शिव निरपेक्ष एवं समभाव वृत्ति धारण किये हुए हैं । स्कन्द पुराण के वैष्णव खंड में शिव का यह कथन द्रष्टव्य है, जिसमें वे कहते हैं कि एकादशी तिथि वाले दिन मैं विष्णु-मंदिर में जागरण करके नृत्य करता हूँ, तथा ब्रह्मा व हरि के प्रीत्यर्थ तपस्या करता हूँ ।

एकादश्यां प्रनृत्यामिजागरे विष्णु सद्मनि ।
सदा तपस्या चरामि प्रीत्यर्थ हरिवेधसोः।
— स्कन्द पुराण (वैष्णव खंड)

उक्त कथन शिवजी की निष्पक्ष मनोवृति का परिचायक है । अपने आराध्य की सरलता पर मुग्ध और परम श्रद्धा से युक्त अपने विचार-वारिद से घिरा हुआ रावण सोचता है कि न जाने मैं ऐसा क्यों हूँ ! क्यों मैं पत्थरों को बहुमूल्य समझता हूँ जबकि वे मिट्टी के ढेले-भर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं । उसके आराध्य उसके परमादर्श हैं ।वे आशुतोष अहि-भूषण हैं, तब वह क्यों मुक्तामाल धारण करे, वे कैलाशविहारी और वनचारी अनिकेत भी तो हैं, तब वह पाषाण को अपनी शय्या क्यों न बनाये ? शिव को सभी प्रिय हैं । वे असुरों को भी निष्पक्ष भाव से बड़े से बड़ा वरदान देकर उन पर अनुग्रह करते हैं । स्कन्दपुराण का कहना है कि वही जन सच्चा भक्त है, जो शत्रु-मित्र को एक समान भाव से देखे ।

आत्मवत्सर्वभूतानि ये पश्यन्ति नरोत्तमाः ।
तुल्याः शत्रुषु मित्रेषु ते वे भागवताः
— स्कन्द पुराण, वैष्णव खंड

इसका अर्थ है कि जो नरोत्तम सब प्राणियों को अपने समान ही देखा करते हैं तथा जो शत्रुता रखने वालों और मित्रों में समतुल्य भावना रखते हैं; वे ही भागवत (जन) कहे गए हैं ।

श्मशान-निलय शिव की सरलता पर मुग्ध हुआ रावण श्रद्धा से आप्लावित होकर सोचता है कि न जाने मैं ऐसा क्यों हूँ ! क्यों मैं रत्नों-पत्थरों को बहुमूल्य समझता हूँ जबकि वे मिट्टी के ढेले के समान ही तुच्छ हैं, क्योंकि उसकी भक्ति-स्निग्ध दृष्टि में तो केवल शिव ही परम मूल्यवान हैं । उसके आराध्य उसके परम आदर्श हैं । वह सोचता है कि उसके परम प्रिय शंकर पन्नग-भूषण हैं तो उसके मुक्तामाला धारण करने का अर्थ ही क्या रहता है ?  वे कैलाशबिहारी और वनचारी अनिकेत भी तो हैं तब वह पाषाण को अपनी शय्या क्यों न बनाये ? जब वे ‘सुहृद् सर्वभूतानां’ हैं तो वह भी सब से मित्र-भाव या अशत्रुता के भाव से क्यों न रहे ? शिव के सेवक-पद से क्या महाराजा का पद अधिक बढ़ कर है ? कामदलन कपर्दी का शिष्य कामिनियों में मत्त क्यों रहे ? इसी तरह के विचार शिव-शिष्य रावण को मथते प्रतीत होते हैं । इसीलिए सप्तद्वीपाधिपति रावण अपने आप से पूछने लगता है कि मैं पाषाण-शिला व रंगबिरंगी रत्नखचित शय्या, सर्प व मुक्तमाल एवं बहुमूल्य रत्न और मिटटी के ढेले के प्रति तथा मित्रपक्ष व शत्रुपक्ष के साथ समप्रवृत्तिक: रहता हुआ, कब एक-सी प्रवृत्ति रख पाऊंगा ? मेरे जीवन में ऐसा कब होगा कि मैं कमलनयनी रमणियों के कटाक्षों को तृणवत् तुच्छ लेखूँ तथा प्रजाजन व महाराजाधिराज के साथ एक-से भाव का समाचरण करूँ, और ऐसा करते हुए शिवाराधन में मग्न रहूँ । यदि कहीं ऐसा सम्भव हो जाए तो मैं धन्य हो जाऊं । वे अकारणकरुणावरुणालय कब अपने भक्त से दूर हुए हैं । रावण पद, प्रभुत्व, पदार्थ, प्रियजन व प्रियदर्शिनी स्त्रियों के प्रति अन्यमनस्क होता हुआ, अपने गुरु, अपने ईश को रिझाये रखना चाहता है । उन्हीं के आदर्शों का अनुसरण करता हुआ सृष्टि के समस्त प्राणी व पदार्थों में एक-सी दृष्टि रखते हुए, समप्रवृत्ति वाला होकर रहना चाहता है ।

विद्वान भक्त-लेखक श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ अपनी  असुर उपासक नामक कहानी में कहते हैं कि अनुराग सदा निरपेक्ष होता है । प्रेम की कोई अपेक्षा नहीं होती। रावण के राग का यहाँ उदात्तीकरण हुआ है । उसका राग शिवोन्मुखी है और उन्हीं से अनुरंजित है उसका अनुराग । पदार्थों की निस्सारता के बोध से, भोगैषणा से उसे वितृष्णा-सी हो उठी है । अभिलाषा केवल कैवल्यनाथ की है । वस्तुतः राग और ममत्व के प्रभाव के शिथिल हो जाने पर जीव में समत्व का भाव जागृत होता है । ममत्व से समत्व नहीं सधता है । दोहावली में गोस्वामी तुलसीदास भी कहते हैं,

“तुलसी ममता राम सों
समता सब संसार”
–दोहावली -९४ —

शिव के दर्शननार्थ एवं शरणार्थ आये हुए देवताओं से नंदी कुछ इसी आशय की बात कहते हैं कि जब तक बहुत प्रकार के विषय मन में प्रविष्ट हैं और जब तक ममत्व-भाव ह्रदय में स्थित है, तब तक भगवान शिव परम दुलभ हैं । यह प्रसंग स्कन्दपुराण‘ के महेश्वर खंड में वर्णित है ।

spiralसागर में जैसे सीपी, मुक्त आदि मिलते हैं साथ ही मीन-मकर आदि भी, वैसे ही मन के सागर में भी यह सब कुछ पाया जाता है । मात्सर्य आदि मल से मुक्त हो के मन का निर्मल सरोवर – मान सरोवर बनता है। मानसरोवर कैलाश पर अवस्थित है, जहाँ ताण्डव नृत्य करके शिव संहारोपरांत सृजन और सृजनोपरांत संहार करते हैं । मान सरोवर आनन्द-लहरियों का मूक दर्शक है । वस्तुतः निर्मल मन शिव-ताण्डव को उसकी भव्यता तथा गरिमा में देख सकता है । उसके अनन्तर कुछ देखना शेष नहीं रह जाता । जीव स्वयमेव समप्रवृत्तिक हो जाता है ‘सुहृदं सर्वभूतानांम्’ की अकारण करुणा से । मोक्ष के प्रति एक दृष्टि है निर्वाण और अपर दृष्टि है, जीवन को हर्ष-विषाद आदि की विषम स्थितियों से निकल कर समत्व, शिवत्व अथवा अखंड आनंद में लीन करना । समरसता व तत्प्रसूत आनंदवाद शैव-दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।

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4 comments

  1. दीपक says:

    कृपया ‘समप्रवर्तिकः’ के स्थान पर ‘समप्रवृत्तिकः’ का वर्तनी सुधार करें.

    • Kiran Bhatia says:

      इस ओर ध्यान खींचने के लिये धन्यवाद । इस अशुद्धि को सुधार दिया है । इति शुभम् ।

    • Kiran Bhatia says:

      नमस्कार । स्रज् का अर्थ होता है पुष्पमाला, विशेषकर जो मस्तक पर की धारण जाये । साथ ही माला व हार के लिये भी इस शब्द का प्रयोग होता है । अत: आपके द्वारा बताया गया अर्थ सही है ।

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