महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

देवी तथा महिषासुर का उपाख्यान (संक्षिप्त कथा)

A short story of the context of the Stotram

महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्  में देवी की महालक्ष्मी. महासरस्वती तथा महादुर्गा के रूप में स्तुति की गई है । महिषासुर व अन्य दैत्यों के साथ देवी के युद्ध का उल्लेख श्री शंकराचार्य द्वारा रचित इस स्तोत्र में मिलता है । देवी के रणचण्डी रूप के अलावा उनके रमणीय रूप के भी दर्शन इस स्तोत्र में होते हैं । श्लोकों की व्याख्या से पूर्व (पहले) देवी तथा महिषासुर का उपाख्यान (लघु कथा ) जान लेना उपयुक्त होगा, अतः संक्षेप में इसका वर्णन दिया जा रहा है ।

देवी भागवत पुराण के अनुसार भगवती तथा महिषासुर की कथा संक्षेप में इस प्रकार है । त्रिलोकी को त्रस्त करने वाले महिषासुर नामक दैत्य का जन्म असुरराज रम्भ और एक महिष (भैंस) त्रिहायिणी के संग से हुआ था । रम्भ दनु का पुत्र था । दनु के पुत्र दानव कहलाये । कथा में प्रदत्त (दिये गये) वर्णन के अनुसार रम्भ को जल में रहने वाली महिष से प्रेम हो गया । उनके संयोग से उत्पन्न होने के कारण महिषासुर अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार कभी मनुष्य तो कभी भैंस का रूप ले सकने में समर्थ था । वह अनेक रूप रच लेता था । माना जाता है कि दैत्य कामरूप होते हैं । अपनी कामना के अनुरूप उनके द्वारा छद्मरूप धारण करने की अनेक कथाएँ हमारे ग्रंथों में मिलती हैं । महिषासुर राजा बना तो उसने घोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर उनसे अमर होने का वरदान माँगा, जिसे देना संभव न बताते हुए ब्रह्माजी ने उससे कोई अन्य वर मांगने के लिए कहा । उसकी अमर होने की लालसा बलवती थी । उसने वर माँगा कि देव, दानव व मानव- इन तीनों में से किसी भी पुरुष द्वारा मेरी मृत्यु न हो सके । स्त्री तो वैसे से भी कोमलांगी होती है, वह तो मुझे वैसे भी मार नहीं सकती । वर पा लेने के बाद उसने पृथ्वी को जीत लिया और स्वर्ग पर आक्रमण करके देवताओं से वहां का आधिपत्य छीन लिया । भयातुर देवतागण ब्रह्माजी के पास व फिर उन्हीं के साथ शिवजी के पास गए । और फिर वहां से सब मिल कर शेषशायी भगवान विष्णु के पास गए व अपनी रक्षा एवं सहायता के हेतु प्रार्थना की । यहीं से देवी के प्राकट्य की कथा आरम्भ होती है ।

देवताओं ने भगवान विष्णु से पूछा कि ऐसी कौन स्त्री होगी जो दुराचारी महिषासुर को रण में मार सके, तब भगवान विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा कि अब एक ही उपाय है कि यदि सभी देवताओं के तेज से, सबकी शक्ति के अंश से कोई सुंदरी उत्पन्न की जाये, तो वही वीर स्त्री मायावी, मदोन्मत्त, दुष्ट महिषासुर का वध करने में समर्थ होगी । इसलिये भगवती पराशक्ति से हमें प्रार्थना करनी चाहिये कि वह हम सब के तेजांश सेवक तेजपुंज स्वरू़पिणी नारी के रूप में प्रकट हो । उस नारी को हम रुद्र आदि सब देवता विविध प्रकार के शस्त्रादि देंगे । तब सर्वायुधोंसे सज्जित हुई वह तेजोमय नारी उस पापी, मदगर्वित दुरात्मा का वध कर देगी । उनके ऐसा कहते ही ब्रह्माजी के मुख से एक असह्य तेजपुंज निःसृत हुआ (निकला) । सुन्दर आकृति वाला वह तेज लाल रंग का था । तत्पश्चात भगवान शिव के शरीर से भी महाप्रचंड तेज निकला, जो भयंकर रूप वाला, पर्वत के समान विशाल तथा साक्षात दूसरे तमोगुण जैसा था । तदनन्तर भगवान विष्णु के शरीर से सत्वगुणसम्पन्न, नीलवर्ण और अत्यंत दीप्तिमान दूसरी तेजोराशि प्रकट हुई । इसके बाद इंद्र के शरीर से पूर्ण गोलाकार, सर्वगुणात्मक तेज प्रादुर्भूत हुआ । कुबेर, यम, अग्नि, वरुण, कामदेव, चन्द्र व अन्य देवताओं के शरीरों से भी अतिशय प्रदीप्त तेज निकला । दूसरे हिमालय पर्वत के समान विशाल उस महादिव्य तेजोराशि से सभी के देखते ही देखते एक सुन्दर तथा महतेजस्विनी नारी प्रकट हो गई ।

सभी देवताओं के शरीरों से आविर्भूत वह त्रिगुणात्मिका (सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण से युक्त), त्रिवर्णा (तीन वर्णों अर्थात् रंगों वाली ), अठारह भुजाओं वाली, उज्जवल मुखवाली, काले नेत्रों वाली, अपूर्व कान्ति से संपन्न स्त्री साक्षात् भगवती महालक्ष्मी थीं । असुरों का विनाश करने के लिए वे तब हजारों भुजाओं से सुशोभित हो गईं । तत्पश्चात देवताओं ने उन्हें अपने अपने शुभ भूषण एवं आयुध प्रदान किये । उन्हें विविध वस्त्र भी प्रदान किये गए, जैसे क्षीर सागर ने लाल रंग के दिव्य वस्त्र तथा मणि-मंडित हार, विश्वकर्मा ने करोड़ों सूर्यों के सामान तेजवाली दिव्य चूड़ामणि, कुण्डल द्वय, बाजूबंद, केयूर व विविध रत्न-जटित कंकण, वरुण ने सदैव खिले रहने वाले कमल- पुष्पों की वैजयंती माला, हिमालय पर्वत ने विविध प्रकार के रत्न तथा सवारी के लिए सिंह और अनेक देवताओं ने नाना विध अनुपम वस्त्राभूषण प्रदान किये । सिंह पर सवार, सर्वाभूषणों से सुसज्जित देवी शतशोभामयी लग रही थीं । अब सब देवों ने उन्हें विविध आयुध प्रदान किये । भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र के अंग रूप से उत्पन्न सहस्र धार वाला अत्यंत तेजोमय चक्र प्रदान किया । ब्रह्माजी ने गंगाजल से परिपूर्ण एक कमण्डलु, भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल का अंगभूत एक त्रिशूल, वरुण ने एक अत्यंत उज्जवल, मंगलमय और घनघोर शब्द करने वाला शंख तथा पाश, अग्नि ने मन के समान गति करने वाली एक शक्ति, यमराज ने अपने कालदंड से उत्पन्न हुआ एक दंड, त्वष्टा ने कौमोदकी गदा आदि प्रदान किये । ये सब दैत्यों को नष्ट करने में समर्थ थे । इस प्रकार सब आभूषणों से, शस्त्राशस्त्र से सुसज्जित भगवती को देख कर सब देवता बहुत विस्मित हुए और उन्हें नमन कर उनकी स्तुति करने लगे एवं उन्हें महिषासुर द्वारा किये गए उपद्रवों व त्रास के बारे में बता कर उनसे आर्त स्वर में रक्षा की प्रार्थना की ।

इन्द्रादि देवताओं द्वारा नमस्कृत और स्तुत हो कर भगवती ने उनसे मंद हास बिखेरते हुए कहा कि हे देवगण ! भय का त्याग करो, उस मंदमति महिषासुर को मैं नष्ट कर दूंगी । सम्पूर्ण विश्व को मोह में पड़ा हुआ देख कर देवी ने अट्टहास किया । यह कहतीं हुईं वे उठ कर पुनः हंस पड़ीं । इससे जो घोर शब्द गूंजा, वह दैत्यों को भयभीत करने वाला था । उस शब्द से पृथ्वी काँप उठी और पर्वत हिल उठे, समुद्र में ज्वार उठ पड़े, सुमेरु पर्वत भी विचलित हो उठा, दिशाएं गूँज उठीं और दैत्यों के दिल दहल गए । देवों ने भगवती की जय जयकार का उच्च घोष किया, जिसे सुन कर दैत्य भी भयभीत हो गये । महिषासुर ने भी सुना और सुन कर वह क्रुद्ध हो गया व इस निनाद के विषय में पता लगाने का दैत्यों को आदेश दे कर कहा कि दैत्य हो या देवता, जिसने भी यह कर्णकटु शब्द किया हो, उसे पकड़ कर लाओ । अपने भेजे हुए दूतों से गर्जन करती हुई सुंदर, किन्तु भयभीत करने वाली नारी के बारे में जान लेने के बाद उसने अपने मंत्री को उस सुंदरी को साम आदि (साम, दाम ) उपायों से किसी भी प्रकार भी वहां लिवा लाने के लिए भेजा । मंत्री के देवी के सम्मुख जाने एवं महिषासुर का सन्देश देने पर देवी ने उससे कहा कि “ हे मंत्रीश्रेष्ठ ! मैं देवताओं की जननी महालक्ष्मी के नाम से विख्यात हूँ । सब दैत्यों को नष्ट करना मेरा कर्तव्य है । क्योंकि महिषासुर के अत्याचारों से पीड़ित व यज्ञभाग से बहिष्कृत देवताओं ने उसे मारने की मुझसे प्रार्थना की है । अब तुम उस पापी से जाकर कह दो कि यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुरंत पाताल लोक चले जाओ, अन्यथा मैं बाणों से तुम्हारा शरीर नष्ट-भ्रष्ट करके तुम्हें यमपुरी पहुंचा दूँगी । मैं बिना किसी सेना के एकाकी ही उसका वध करने यहां  आई हूं ।” मंत्री ने जाकर दैत्यराज से को यह सब बताया । दैत्यराज ने अपने सचिवों के साथ परामर्श किया । उसके मुख्य सचिव (मंत्री) थे – ताम्र, वाष्कल, असिलोमा, दुर्मुख, दुर्धर, दुर्मद, विरूपाक्ष,विडालाक्ष एवं चिक्षुर् इत्यादि । उसके बाद ताम्र को अपने सन्देश के साथ देवी के पास भेजा । ताम्र के वचन सुन कर हँसते हुए, किन्तु मेघ के सामान गंभीर वाणी में देवी ने उसे उत्तर देते हुए कहा कि “तुम उस मरणोन्मुख महिषासुर के पास लौट जाओ और उससे मेरी यह बात कहो कि जैसे घास, तृण आदि खाने वाली तुम्हारी माता है, वैसे मैं उसके समान लम्बी पूँछ, मोटे पेट और बड़े सींगों वाली भैंस नहीं हूँ । अतः स्वयं आ कर युद्ध कर, यदि तुझे प्राणों से मोह हो तो अपने साथियों के साथ पृथ्वी और सागर छोड़ कर तुरंत पाताल लोक चले जाओ ।” इतना कह कर देवी ने कल्पान्त के सामान घोर गर्जन किया जिसे सुनकर दैत्यों का ह्रदय काँप गया । ताम्र भयभीत हो कर वहां से भाग खडा हुआ ।

ताम्र को इस प्रकार वापिस आया देख कर महिषासुर विमूढ़ हो गया । दुर्मुख और वाष्कल ने युद्ध की मंत्रणा देते हुए कहा कि हम जा कर युद्ध करेंगे और वे देवी के सम्मुख चले गए व उनसे महिषासुर को वर के रूप में स्वीकार करने की वही पुरानी बात कही । देवी के ललकारने पर उन पर बाणवर्षा आरम्भ कर दी, भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें देवी ने दोनों का वध कर दिया । तब सेनापति चिक्षुर् अन्य दैत्यों को लेकर देवी के पास पहुंचा । वह भी अपनी दैत्य-सेना सहित मारा गया । तत्पश्चात् असिलोमा व विडालाक्ष भी ससैन्य देवी द्वारा मृत्यु का ग्रास बना दिये गये । अंत में महिषासुर स्वयं आकर्षक मनुष्य का रूप धारण करके संग्राम के लिये चला, उसकी मूढ़ बुद्धि में यही बात आ रही थी कि इस मोहक रूप से वह देवी को अपनी ओर आकृष्ट कर लेगा । उसने भगवती के सम्मुख पहुँच कर रसपूर्ण बातों से, देवी को अपने साथ जुड़ने व प्रीति-संयोग की बातें कहीं, जो उसकी कामुकता का प्रदर्शन करतीं थीं । उसके ऐसा कहने पर देवी खिलखिला कर हंस दीं व बोलीं, “हे दैत्य ! मैं परम पुरुष की इच्छा-शक्ति हूँ और मैं ही जगत् को रचती हूँ । उस परम पुरुष के सिवाय अन्य किसी पुरुष की कामना नहीं करती हूँ । वे सदा ही मेरे निकट रहते हैं, तभी मैं सदा चैतन्य रहती हूँ । तू मंदबुद्धि है, इसीलिए स्त्रीसंयोग के हेतु व्याकुल है, जो महादुःख का देने वाला है । यथार्थ में मेरा न कभी जन्म हुआ न तो मेरा कोई रूप ही है, देवताओं की रक्षा के लिए मुझे विग्रहवान (मूर्तिवान ) होना पड़ता है । अब तू मुझसे युद्ध कर या पाताल लोक में जा कर रह, अन्यथा मैं तेरा वध कर दूँगी ।” देवी द्वारा ऐसा कहने पर वह युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गया, किन्तु तभी दुर्धर और त्रिनेत्र नामक दैत्य बीच में आ कर युद्ध करने लगे व मृत्यु को प्राप्त हुए । त्रिनेत्र का मरण देख कर क्रोधाविष्ट अन्धक ने सिंह के मस्तक पर लोहे की गदा चलाई, तब सिंह ने अपने नखों से उसे फाड़ कर रख दिया व उसका भक्षण कर लिया । सिंह ने महिषासुर को भी अपने नखों से घायल कर दिया, जब उसने सिंह पर गदा चलाई । अब महिषासुर ने मनुष्य का रूप छोड़ कर नए नए अनेक रूप धारण किये । सिंह का फिर हाथी का, शरभ का और अंत में महिष (भैंस) का रूप धारण किया व सींगों से देवी पर प्रहार करने लगा । तब क्रोध से लाल नेत्र कर भगवती चण्डिका ने अपने त्रिशूल से उस पर प्रत्याक्रमण किया । वह मूर्छित हो कर फिर उठ बैठा व देवी पर भयानक चीत्कार करते हुए पदाघात करने लगा । इससे देवगण भयभीत हो उठे, किन्तु देवी ने सहस्र धार वाला चक्र हाथ में ले कर उस पर छोड़ दिया और महिषासुर का मस्तक उस दारुण चक्र से काट कर उसे युद्ध भूमि में गिरा दिया । फिर उसका कबन्ध (धड़ ) भी घूमता हुआ पृथ्वी पर जा गिरा । इस प्रकार दैत्यराज महिषासुर का अंत हुआ व भगवती महिषासुरमर्दिनी कहलायीं । देवताओं ने आनंदसूचक जयघोष किया । राजा की मृत्यु से शेष भयभीत दानव अपने प्राण बचा कर पाताल लोक भाग गए । देव, मनुष्य व पृथ्वी के सभी प्राणी आनंद-मग्न हो गए । देवताओं ने भगवती की स्तुति की व उनसे स्तुत होकर तब देवी अन्तर्धान (अंतर्ध्यान) हो गईं ।

संक्षेप में यही महिषासुर की कथा है । देवी से सम्बद्ध अन्य पुराणों में भी यह कथा उपलब्ध होती है । सब स्थलों पर कुछ कुछ बदलाव पाये जाते हैं । कालिका पुराण के अनुसार महिषासुर भद्रकाली का अनन्य भक्त था । उसने माया से स्त्री-रूप धर कर कात्यायन ऋषि के पुत्र के शिष्य को एक बार मोहित कर दिया था, जिससे वह तपोभ्रष्ट हो गया । इससे क्रुद्ध हो कर कात्यायन मुनि के पुत्र ने महिषासुर को शाप दिया कि उसका हनन एक सीमन्तिनी (नारी) द्वारा होगा । एक बार देवी अठारह भुजाओं के साथ उस भक्त के सामने प्रकट हुईं एवं उससे वर मांगने के लिए कहा । महिषासुर ने कहा कि मेरे पास सब कुछ है, केवल मैं देवताओं की भांति यज्ञों में अपने यज्ञ-भाग पा कर देवों की तरह यज्ञों में पूज्य होना चाहता हूँ, तथा संसार में जब तक सूर्यदेव विद्यमान हैं, तब तक मैं आपके चरणों की सेवा का परित्याग न करूँ । तब देवी माँ ने कहा कि यज्ञ-भाग तो देवगणों के लिए ही अलग-अलग कल्पित हैं, और कोई भाग इस समय शेष नहीं है, जो मैं तुम्हें दूं । किन्तु हे महिषासुर ! मेरे साथ युद्ध में तेरे मारे जाने पर, तेरे निहित हो जाने पर, तू मेरे चरणों को कभी नहीं त्यागेगा । मैं दुर्गा के स्वरूप में तुम्हारा और तुम्हारे साथियों का हनन करुँगी । कालिका पुराण में इस प्रकार इसे कहा गया है । देवी कहती हैं,

मम प्रवर्तते पूजा यत्र यत्र च तत्र ते ।
पूज्यश्चिन्तयश्च तत्रैव कायोऽयं तव दानव ।

अर्थात् देवी उससे कहती हैं की जहाँ जहाँ भी मेरी पूजा होगी, वहां वहां हे दानव ! यह तुम्हारा शरीर भी पूजा के और चिंतन के योग्य होगा । अतः देवी महिषासुरमर्दिनी उसका कटा हुआ सिर हाथ में लेकर चित्रित की जाती हैं ।

वस्तुतः इस पौराणिक उपाख्यान में शारीरिक और मानसिक रूप से सक्रिय रहने का संदेश निहित है । महिष यानि भैंस वास्तव में जड़ता (inertia) की प्रतीक है । जड़ता मनुष्य को नया कुछ करने या वर्तमान स्थिति को बदलने का उत्साह उत्पन्न नहीं होने देती । मनुष्य सामर्थ्य होने के पश्चात् भी अपनी नियति को बदलने का साहस नहीं जुटा पाता । ‘जैसा है वैसा ठीक है या मैं क्या करूं’ जैसे मनोभावों की असुर सेना हमें अर्थात् हमारे भीतर बैठे देवताओं को अत्याचार सहन करने के लिए विवश कर देती है, उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर देती है । किन्तु जब वह दृढ निश्चय रुपी त्रिदेवों के पास जाता है तो भीतर शक्ति का प्रादुर्भाव (जन्म) हो जाता है, और वह सिंह की पीठ पर सवार उस शूरवीर (शक्ति रूपिणी देवी ) की भांति होता है, जो अकेला ही आसुरी या तामसिक शक्तियों के साथ युद्ध कर विजयी होता है । यह शक्ति सब के भीतर निहित है । देवी की उपासना में यह बोला जाता है

या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।

अर्थात् वह देवी जो सब भूत प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित है, उसे नमन है, नमन है, नमन है । कालिका पुराण में कहा गया है कि देवी कामदा हैं तथा जड़ता का नाश करने वाली हैं ।

एषाऽतिकामदा देवी जाड्यहानिकरो सदा ।

अर्थात् यह देवी कामनाओं की देने (पूरी करने) वाली हैं और जड़ता के भाव का विनाश करने वाली हैं । मनुष्य के अन्तःकरण के भीतर समाई हुई दैवीय शक्तियों का आह्वान करना व उन्हें जगाना अत्यंत आवश्यक है । अपने मनो-राज्य से भटका हुआ व्यक्ति अपने स्वर्ग के राज्य से भटके हुए इंद्र के समान है , अतः जड़ता से लड़ने के लिए देह के प्रत्येक अंग से, मन-मस्तिष्क से चैतन्य के तेजांशों का निकलना अति आवश्यक है । मनुष्य द्वारा जगाई हुई यही चेतना उसको अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कर उसे जड़ता और तामसिक भाव रुपी महिषासुर पर विजय दिलाती है और उसका खोया हुआ स्वर्ग पुनः उसे प्राप्त होता है । अन्यथा नकारात्मक भावों और भटकाव की स्थितियों से जूझते-जूझते वर्षों बीत जाते हैं, पर परिणाम कुछ भी नहीं निकलता । हम हर नए वर्ष के आरम्भ में कुछ न कुछ संकल्प (resolution) लेते हैं और फिर उसे कार्यान्वित न करके उसे भूल जाते हैं और महिषासुर जीत जाता है । उस पर विजय पाने के लिए आवश्यकता है आध्यात्मिक शक्ति की, जो हमें चेतना की उद्दाम अंतर्धारा (undercurrent) से जोड़ती है ।

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