महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

श्लोक १९

Shloka 19

कनकलसत्कलशीकजलैरनुषिंचति तेऽङ्गणरंगभुवं
भजति स किं न शचीकुचकुम्भनटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि सुवाणि पथं मम देहि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।

कनकलसत्कलशीकजलैरनुषिंचति तेsअंगणरंगभुवम्
कनकलसत्कलशीकजलैरनुषिंचति तेsङ्गणरंगभुवं कनक + लसत् + कलशीक + जलै: + अनुषिंचति + ते + अंगण +रंगभुवम्
कनक = स्वर्ण (से)
लसत् = दमकते हुए
कलशीक = घड़े
जलै: = जल से
अनुषिंचति = छिड़काव करता है, सींचता है
ते = तुम्हारे
अंगण = प्रांगण (को)
रंगभुवम् = रंगशाला, नाट्यशाला (के)
भजति स किं न शचीकुचकुम्भनटीपरिरम्भसुखानुभवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भनटीपरिरम्भसुखानुभवम् भजति + स: + किम् + न + शची + कुचकुम्भ + नटी +परिरम्भ +सुखानुभवम् ।
भजति = उपभोग करेगा
स: = वह
किम् = क्यों
= नहीं
शची = इन्द्राणी (के समान)
कुचकुम्भ = उन्नत उरोज (वाली)
नटी = रमणी (से)
परिरम्भ = आलिंगन
सुखानुभवम् = सुख की अनुभूति को
तव चरणं शरणं करवाणि सुवाणि पथं मम देहि शिवम्
तव चरणं शरणं करवाणि सुवाणि पथं मम देहि शिवम् तव + चरणं + शरणम् + करवाणि + सुवाणि + पथम् + मम + देहि + शिवम्
तव = तुम्हारे
चरणम् = पैर
शरणम् = आसरा, आश्रय
करवाणि = (ग्रहण) करूं
सुवाणि = हे सरस्वती
पथम् = सुमार्ग, सही राह
मम = मुझे
देहि = प्रदान करो, दिखाओ
शिवम् = कल्याणकारी
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते
महिषासुरमर्दिनी महिषासुर + मर्दिनी
महिषासुर = यह एक असुर का नाम है ।
मर्दिनी = घात करने वाली
रम्यकपर्दिनि रम्य + कपर्दिनि
रम्य = सुन्दर, मनोहर
कपर्दिनि = जटाधरी
शैलसुते = हे पर्वत-पुत्री

अन्वय

कनक लसत् कलशीक जलै: अनुषिंचति (य:) ते रंगभुवम् अंगण स: किम् न शची कुचकुम्भ नटी परिरम्भ सुखानुभवम् भजति (हे) सुवाणि मम शिवम् पथम् देहि जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।

भावार्थ

स्वर्ण-से चमकते घड़ों के जल से जो तुम्हारी रंगभूमि के प्रांगण का सिंचन करता है (जल से स्वच्छ करता है) वह क्यों न शची (इन्द्राणी) के जैसे उन्नत उरोजों वाली सुन्दरी से आलिंगित होने की सुखानुभूति पायेगा ?  हे वागीश्वरी, मैं (सदा) तुम्हारे (ही) चरणों की शरण ग्रहण  करूं । मेरे मंगल हेतु मुझे शुभ मार्ग बताओ (मेरा मार्गदर्शन करो) !  हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

व्याख्या

Saraswatiमहिषासुरमर्दिनी के उन्नीसवें श्लोक में गन्धर्वराज देवी के महासरस्वती रूप की स्तुति करते हैं । वस्तुत: देवी दुर्गा सरस्वती स्वरूपा भी हैं । दुर्गाचालीसा में लिखा है “रूप सरस्वती को तुम धारा । दे सुबुद्धि ऋषि-मुनि उबारा।।”  सरस्वती देवी कला की अधिष्ठात्री देवी हैं । कला एवं नाट्य आदि के रंग-भवन देवी के अभिराम आवास हैं । कवि के अनुसार माता के कला-भवन, उनकी रंगभूमि व  उनके प्रांगण को जल से स्वच्छ रखने की महिमा बड़ी न्यारी है । वह कहता है कि  जो कोई व्यक्ति माँ की वन्दना करता है तथा उनके रंग-भवन व उसके प्रांगण को स्वर्ण के सदृश चमकते हुए घड़ों के जल से सींचता है, उसे पवित्र जल से स्वच्छ करता है, वह अकल्पनीय सुखों का भोक्ता होता है । और इस सुख को वह अभिव्यक्त करता है यह कह कर कि शचीकुचकुम्भनटीपरिरम्भसुखानुभवम् को उपासक भोगता है । भजति  शब्द के अनेक अर्थ हैं, जिनमें एक अर्थ है  भोगना अथवा उपभोग करना । पूरी पंक्ति का तात्पर्य यह है कि माता का ऐसा सेवक-भक्त इन्द्राणी के समान पीन-पयोधरा (उन्नत उरोजों वाली) सुन्दरी के आलिंगन की सुखानुभूति को प्राप्त करता है , उस ऐश्वर्य को भोगता है । कनकलसत् अर्थात्  स्वर्ण -से भासित, कलशीक यानि घड़े, इस प्रकार कनकलसत्कलशीक कहने से भाव यह व्यक्त होता है कि कलश भलीभाँति स्वच्छ हैं, पवित्र हैं, इसीलिये उसमें सुनहरी द्युति भासित होती है । कवि के अनुसार जो कोई भी साधक अथवा श्रद्धालु माँ वाणी के नाट्य-मन्दिर के प्रांगण में, ऐसे स्वर्णिम प्रभा से भासित कलशों में निर्मल जल भर कर, माँ वाणी के मंदिरांगण में उस जल से छिड़काव करता है, प्रांगण को पानी से धोकर स्वच्छ करता है अथवा मन्दिर के उपवन-कानन को, वृक्ष, पादप, लताओं को सींचता है, उस साधक को सभी स्वर्गीय सुखोपभोग सुलभ होते हैं । अतः दोनों पंक्तियों का तात्पर्य यह है कि देवी के रंग-कला-मंदिर को तथा मंदिर के प्रांगण को जो कोई भी व्यक्ति पवित्र रखेगा, दूसरे शब्दों में सरस्वती-सदन का प्रक्षालन कर उसकी शुचिता को बनाये रखने में तत्पर रहेगा, वह महाभाग्यशाली देवोपम ऐश्वर्य का भोक्ता होगा । संसार के सुदुर्लभ सुख उसके करतलगत होंगे ।

अगली पंक्ति में  कवि वाणी की देवी को सुवाणि  कह कर पुकारता है । सुवाणि वस्तुत: सुवाणी शब्द के संबोधन का रूप है, और इस सुन्दर संबोधन से वह अपने मृदु भाव व्यक्त करता हुआ पुकारता है कि हे मधुर-मंगल वाणी से युक्त देवी !  हे वागीशा !   सुवाणी  से तात्पर्य है सुमधुरभाषिणी माता महासरस्वती से, वाक् की अधिष्ठात्री देवी वागीश्वरी से । स्तुतिकार अपने भक्तिरस से छलकते हुए भावों को देवी के सम्मुख निवेदित करता हुआ कहता है कि हे  वाक्-कल्याणी ! हे सुभाषिणी ! मैं सदा तुम्हारे ही चरणों की शरण गहूं , तुम हे माँ ! मुझे मेरे मंगल का मार्ग दिखा दो । माँ सुवाणी, मेरा मार्गदर्शन करो । कभी कभी ऐसा भी होता है कि भक्ति का अतिरेक साधक में अहंभाव ला देता है और भोला साधक यह समझ नहीं पाता, तथा यही अहंकार आगे चल कर उसके पतन का कारण बन जाता है । आराध्य के शरणापन्न होने पर आराधक के कुशल-क्षेम का दायित्व ईश्वर पर ही आ जाता है । यही नहीं, शरणागति के बारे में प॰हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने एक निबन्ध ब्रह्म और माया में लिखते हैं कि “प्रपत्ति या शरणागति ही मोक्ष का परम साधन है ।” कवि माँ की शरण ग्रहण करना चाहता है व कहता है तव चरणं शरणं करवाणि , जिसका भाव यह है कि मैं तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करता हूं । हे माँ, मुझे पथ दिखाओ, मेरे हित-साधन के हेतु मंगलमय मार्ग, हे माता, तुम प्रशस्त करो पथं मम देहि शिवम् । शिवम् का अर्थ है कल्याणकारी, मंगलमय । करवाणि शब्द कृ धातु का लोट् लकार (आज्ञावाचक) में रूप है, जिसमें कृ का उत्तम पुरुष एकवचन में रूप करवाणि बन जाता है ।  इससे मैं करूं का अर्थ ध्वनित होता है । प्रस्तुत श्लोक में भी कवि का यही भाव दृष्टिगत होता है कि हे सरस्वती ! मैं आपके चरणों की ही शरण लूं व तुम मुझे सुमार्ग सुझाओ । करवाणि शब्द को भलीभाँति समझने के लिये इसका एक उदाहरण श्रीमद्भागवत महापुराण से प्रस्तुत है । इस ग्रन्थ के दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण गोपिकाओं से कहते हैं, स्वागतं वो महाभागा: प्रियं किं करवाणि व: अर्थात् हे महाभागाओं, तुम्हारा स्वागत है ! मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूं ? (श्रीमद्भागवत १०।२९।१८)

अंतिम पंक्ति में माँ की जय जयकार करता हुआ कवि कहता है कि हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

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6 comments

  1. संदीप कुमार says:

    पहली पंक्ति में आपने “सिन्धुजलैरनुषिंचति” का अर्थ आपने “नदी के बहते मीठे जल से जो” के रूप में दर्शाया है। लेकिन सिन्धू का अर्थ सागर से होता है। अत: इस पर पुनर्विचार करें।

    • Kiran Bhatia says:

      मान्यवर, संस्कृत-हिंदी कोश के अनुसार सिंधु शब्द के अनेक अर्थों में से उसका एक अर्थ ‘ नदी ‘ भी है । 

  2. दीपक says:

    कृपया कनकलसत्कल तथा नतामरवाणि का अर्थ स्पष्ट करें.

    • Kiran Bhatia says:

      कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिंचति = कनक + लसत् + कल + सिन्धुजलै: + अनुषिंचति
      कनक = स्वर्ण
      लसत् = चमकता हुआ, दमकता हुआ
      कल = मधुर, मीठा
      सिन्धुजलै: नदी के पानी से
      अनुषिंचति = छिड़काव करता है, सींचता है ।
      नतामरवाणि का अर्थ इसी श्लोक की व्याख्या में दे दिया है । कृपया अवलोकन कर लें ।
      मान्यवर, आपकी तरह कुछ और भी पाठकों के अनुरोध पर महिषासुरमर्दिनी के सभी श्लोकों में सन्धि-विच्छेद और शब्दार्थ देने का उपक्रम चल रहा है । भगवती की कृपा से शीघ्र संपन्न हो जायेगा । इति शुभम् ।

      • दीपक says:

        आपके इस प्रयास के लिए धन्यवाद..

        लेकिन जहाँ तक मुझे याद है मैं बचपन से यह पढ़ रहा हूँ–

        कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती,

        करमूले तु गोविन्दं: प्रभाते करदर्शनम् ।।

        कृपया मार्गदर्शन करें कि क्या सही है?

        • Kiran Bhatia says:

          भिन्न भिन्न ग्रन्थों में पाठ में किंचित् न्यूनाधिक अन्तर दृष्टिगत होता है । दोनों पाठ सही हैं ।

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