महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्

श्लोक २१

Shloka 21

अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननीति यथाsसि मयाsसि तथाsनुमतासि रमे ।
यदुचितमत्र भवत्पुरगं कुरु शाम्भवि देवि दयां कुरु मे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।

अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि = हे
मयि = मुझ पर
दीन = दयनीय
दयालुतया = दया
कृपयैव कृपया + इव
कृपया = कृपा, अनुग्रह
इव = जैसा
त्वया = तुम्हारे द्वारा
भवितव्यमुमे भवितव्यम् + उमे
भवितव्यम् = हो जाये
उमे = हे उमा
अयि जगतो जननीति यथाsसि मयाsसि तथाsनुमतासि रमे
अयि जगतो जननीति यथाsसि मयाsसि तथाsनुमतासि रमे जगत: + जननी +इति + यथा +असि + मया + असि + तथा +अनुमता + असि
अयि = हे
जगत: = संसार की
जननी = माता
इति = बस
यथा = जैसे
असि = हो
मया = मेरी
असि = (भी) हो
तथा = ठीक वैसे (ही)
अनुमता = प्यारी, प्रिय लगने वाली (भी)
असि = हो
रमे = हे महालक्ष्मी
यदुचितमत्र भवत्पुरगं कुरु शाम्भवि देवि दयां कुरु मे
यदुचितमत्र भवत्पुरगं कुरु शाम्भवि देवि दयां कुरु मे यद् + उचितम् + अत्र + भवत् + पुरगम्
यद् = जो, जैसा
उचितम् = सही, उपयुक्त (लगे)
अत्र = इस विषय में
भवत् = आपके
पुरगम् = लोक में जाने के लिये (मुझे) सुपात्र
कुरु = बनायें
शाम्भवि = हे शिवे
देवि = हे देवी
दया = अनुग्रह
कुरु = करें
में = मुझ पर
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते
महिषासुरमर्दिनी महिषासुर + मर्दिनी
महिषासुर = यह एक असुर का नाम है ।
मर्दिनी = घात करने वाली
रम्यकपर्दिनि रम्य + कपर्दिनि
रम्य = सुन्दर, मनोहर
कपर्दिनि = जटाधरी
शैलसुते = हे पर्वत-पुत्री

अन्वय

अयि उमे मयि दीन दयालुतया कृपया इव त्वया भवितव्यम् अयि रमे यथा जगत: जननी असि तथा मया अनुमता असि इति (हे) शाम्भवि अत्र यद् उचितम् भवत् पुरगम् कुरु (हे) देवि में दया कुरु जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि (जय जय हे) शैलसुते ।

भावार्थ

हे उमा, मुझ दीन पर तुम्हारी दया हो जाये, तुम्हारी कृपा हो जाये (तुम मुझ दीन पर दयालु बनी रहो) । हे रमा (महालक्ष्मी) ! जैसे तुम सारे जगत की माता हो, उसी तरह मेरी (भी माता) हो तथा तुम (सबकी) प्रिय हो (सबके द्वारा चाही जाती हो, सबके द्वारा अभिलषित हो) । अब जो उचित समझो (वह मेरे लिये करो) अपने लोक में गमन करने की (जाने की) मुझे पात्रता दो, योग्यता दो, आपका दिव्य धाम मेरे लिये गम्य हो । हे शिवानी ! मुझ पर दया करो । हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

व्याख्या

`महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्` का यह इक्कीसवां और अंतिम श्लोक है । स्तुतिकार स्नेहमयी, कृपामयी जगदम्बिका से स्तवन करता हुआ कहता है कि हे उमा ! मुझ दीन पर तुम्हारी करुणा हो,  मुझे तुम्हारी कृपा मिल जाये (इसमें माँ से आग्रह करने का भाव है) । भवितव्यम् शब्द अवश्यंभावी भाव का बोध कराता है, जैसे कुछ घटित होने वाला है , कुछ होनहार है । भवितव्यम् का प्रयोग बहुधा भाववाच्य में होता है । संस्कृत-व्याकरण के जानकार अथवा विद्यार्थियों को यह विदित है कि भाववाच्य वाली वाक्य-रचना में करणकारक को कर्ता के रूप में रखा जाता है तथा क्रिया को एकवचन व नपुंसक लिंग में रखा जाता है । यहां दयालुतया तथा कृपया कर्ता के स्थान पर हैं और वे करणकारक में हैं (अर्थात् तृतीया विभक्ति में हैं, भाववाच्य वाली वाक्य-रचना के कारण) । भू धातु की क्रिया का रूप, नपुंसक लिंग व एकवचन में आकर भवितव्यम् बन गया है । भवितव्यम् का अधिकतर प्रयोग इसी रूप में मिलता है । शिवा की करुणा एवं कृपा के कांक्षी कवि की प्रार्थना है कि हे माँ उमा ! तुम मेरे प्रति सदैव दयामयी, अनुकम्पामयी बनी रहो । सदा मेरे लिये अनुकूल रहो ।

अन्तिम श्लोक की दूसरी पंक्ति में कवि कहता है कि हे महालक्ष्मी ! जगतो जननीति यथाsसि अर्थात्   जिस तरह तुम सारे जगत की माता हो, बस उसी तरह तुम मेरी भी माता हो । तुम सभी की प्रिय हो व सभी के द्वारा तुम प्रीत हो, तथाsनुमतासि अर्थात् सब की प्रेमास्पद, पूज्य व इष्ट हो । हे माँ ! तुम भक्तों के द्वार अभिलषित और प्रतिष्ठित हो । भक्तवृन्दप्रिया हे महालक्ष्मी ! तुम्हारी स्नेह-सिक्त दृष्टि पाने की चाह सब के हृदय में रहती है । ‘प्रिय’ के लिये संस्कृत में एक शब्द ‘अनुमत:’ भी है । तथाsनुमतासि शब्द की सन्धि-विच्छेद करें तो यह परिणाम मिलता है, तथा + अनुमता + असि =  तथाsनुमतासि । यहाँ ‘तथा’ के बाद का शब्द ‘अनुमता’ है, और यह ‘अनुमत:’ का स्त्रीलिंग ‘अनुमता’ शब्द है,  जिसका अर्थ है प्यारी व अच्छी लगने वाली, स्नेहास्पद, इष्ट आदि । स्तुतिगायक एक लाड़ले बेटे की भाँति अपनी महीयसी माता के सामने सरलता से अपना हृदय खोल कर रख देता है कि हे लक्ष्मी ! जैसे  तुम सकल संसार की माँ हो वैसे ही तुम मेरी भी माँ हो, और वैसी ही हे रमा ! तुम हम सबकी अभीष्ट हो, अनुराग से ओतप्रोत तुम हमें बहुत प्यारी हो ।

तीसरी पंक्ति में स्तुतिकार करणावरुणालया माता की शरण में स्वयं को सौंपता है  तथा उनसे प्रार्थना करता है कि हे शिवानी ! यदुचितमत्र अर्थात् आपको यहाँ जो उचित लगे और विस्तार से इसका अर्थ है कि आपको मेरे विषय में जो उचित प्रतीत हो, हे शिवे ! आप मेरे हित वही करें । ऊपर कवि ने कहा ही है कि हे नारायणी (रमा), आप मेरी माता हैं । अत: अब भक्त कवि उनसे प्रार्थना करता है कि माता उसे निज लोक में गमन करने की पात्रता प्रदान करें  भवत्पुरगं कुरु भवत् यानि आपका, पुर अर्थात् लोक या धाम और गम् यानि गमन करने वाला, जाने वाला । गहराई से समझने पर इससे यह भाव ध्वनित होता है कि कवि की यह वांछा है कि वह सदा सुकृत्य करे, भक्तिभाव से भरा रहे  ताकि भगवती की कृपाओं को पाने का अधिकारी बने  व माँ के द्वार उसके लिये खुले रहें । वे निज धाम को उसके लिये सुगम्य बनायें और वह वहाँ पहंचने के लिये वह सुपात्र सिद्ध हो । (दूसरे शब्दों में) उसकी विनती है कि हे शिवानी ! मैं इस योग्य बनूँ कि मुझे आपके पवित्र लोक में जाने की अर्हता (योग्यता) प्राप्त हो । अपने दिव्य धाम में हे ईशानी ! मुझे वास दो ।

इस स्तोत्र का गायक, माँ महिषासुरमर्दिनी का भक्त श्लोक का अन्त करता है अपनी प्यारी करुणामयी माँ  की मुक्तकण्ठ से जय जयकार करके, यह कहते हुए कि हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

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32 comments

    • Kiran Bhatia says:

      अनुवाद एवं चित्रांकन को पसंद करने तथा उत्साहवर्धन करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।

  1. Kedar Prasad says:

    मैं काफी दिनों से महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् का हिन्‍दी अर्थ तलाश रहा था, अब मेरी तलाश पूरी हुई। मुझे ना सिर्फ अर्थ ही मिला बल्कि इतनी स्‍पष्‍ट व्‍याख्‍या भी मिली, जो मैं सोच भी नहीं सकता था। आपका बहुत बहुत धन्‍यवाद, आभार।

    • Kiran Bhatia says:

      आपका बहुत बहुत धन्यवाद, पढ़ने एवं पसन्द करने के लिये साथ ही मेरा उत्साह-वर्धन करने के लिये भी । आपके लिखे गये दो शब्द मेरे लिये बहुत मूल्यवान हैं । इति शुभम् ।

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  3. Vinay says:

    मैंने ऐसे स्तोत्रों के लिए एंड्रॉइड ऐप बनाना शुरू कर दिया है और मुझे आपकी रचनाओं से अनुमति और सहायता की भी आवश्यकता है।

    • Kiran Bhatia says:

      हमारी प्राचीन व गौरवमयी संस्कृति के सेवार्थ किये गए किसी भी कार्य के लिए आपको अनुमति की आवश्यकता नहीं है । सहर्ष यथोचित सहायता भी उपलब्ध कराई जाएगी । इति शुभम् ।

  4. रवि कुमार says:

    आपका यह कार्य बहुत ही हमारे लिये बहुत ही प्रेरणाप्रद और लाभकारी है, इसके लिए आपको कोटि कोटि शुभकामनाएं।

    • Kiran Bhatia says:

      आपका स्वागत है । धन्यवाद , रवि कुमारजी । इति नमस्कारान्ते !

  5. Ram says:

    ?क्लीं?
    अत्यंत गम्भीर,भावपूर्ण व् सटीक शब्दों को प्रकट करने के लिए हृदय से आभार ?
    अगर कोई प्रिंट कॉपी उपलब्ध है तो ज़रूर बतलायें
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    • Kiran Bhatia says:

      आपने पढ़ा और कार्य की सराहना करके मेरा उत्साह-वर्धन किया, इसके लिए आपका धन्यवाद । अभी यह सामग्री केवल ब्लॉग पर ही उपलब्ध है ।
      इति शुभम् ।

  6. कमलेश रविशंकर रावल says:

    अब कह सकता हूँ कि साहित्य के नौ रस ईस प्रसिद्ध रचना में झलकते हैं, आप ने अपने भावानुवाद तथा व्याख्या के माध्यम से आज पूरा दिन मूझे माँ के गुणगान और महत्ता समझने के लिए प्रेरित किया, सर्वे लोका: सुखिनाः भवन्तुः
    माँ के चरणों में नत मस्तिष्क होते हुए आप का पुनः साधुवाद

    • Kiran Bhatia says:

      अकारणकरुणावरुणालया माँ के चरणों में उन्हीं का कृपा – प्रसाद अर्पित है। उनके उपासक मेरे लिए सम्मान्य हैं । कृपया सेवा का अवसर दें । धन्यवाद ।

  7. संदीप कुमार says:

    “वैसे ही धनुष-बाण से भी युत हो” के स्थान पर “वैसे ही धनुष-बाण से भी युक्त हो” लिख कर त्रुटि को दूर करें।

  8. Nandini kashyap says:

    Dear kiran bhatia ji,
    One fine day, i suddenly got a thought in my mind to learn mahishasuramardhini stotram with meaning. I searched for it everywhere but could not find satisfactory results. I prayed to devi maa to give me a guru who can explain me this stotram. And on the same day i found the translation of this stotram by you. I was literally amazed your translation seemed like a guru explaining me. You are blessed, devi maa herself chose you to convey the meaning of this great stotram! I would be your obliged throughout my life gurumaa??

    • Kiran Bhatia says:

      Dear Nandiniji, I have yet to learn a lot. Divine Mother always blesses her children. Each one of us is blessed , only if one realises it . You are so fortunate and pure that you could connect to her. Divine Maa is aadiguru and gurumaa. Jai Mata di. Thank you .

  9. दीपक says:

    कृपया ‘तथानुमितासिरते’ और ‘भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते’ का संधि विच्छेद करने की कृपा करें..

    • Kiran Bhatia says:

      भवती + उररी + कुरुतात् + उरु + तापम् + अपाकुरुते= भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते ।

      • Kiran Bhatia says:

        ऊपर दे दिया है । उर नहीं, उरु है, जिसका अर्थ है बड़ा , महान् । अत: उरुतापम् का अर्थ हुआ बड़ा अथवा महान् दुख ।

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