आराध्या

aaradhya

द्वारिका के नभ से कनकप्रासाद में
झांक कर देखता है पीत रजनीश
याद कर अपनी राधिका को आज भी
छुप छुप कर रोते हैं द्वारिकाधीश ।

अश्रु का अर्घ्य लिए खड़ी प्रीति-प्रतिमा
राधिका त्यागतृप्ता का करके स्मरण
कमलनयन के कमलनयन से अच्छिन्न
बहते हैं नयनाम्बु के सलिल-कण ।

चकित हैं रुक्मणि पट्ट-राजरमणी
श्रीवधु, है त्रिलोकी जिनके वर्चस्व में
कि कैसे ‘राधा’ नाम सप्राण बहता है
उनके विश्वरूप सर्वस्व के सर्वस्व में ।

राधा हैं आराध्या प्रेमैकप्राण श्रीकृष्ण की
आराध्य से कहां शब्दों का नाता होता है ?
अंतर के मौन रुदन का साक्षी वह तो
मन की भाषा का गोपन ज्ञाता होता है ।

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