भोग और जीवन

 

टप टप कर रीतता गया जल
माटी की मटकी चटक गई
कभी सुध से जीव न जीवन जिया
काल-कपालिनी आकर झटक गई
जान न पाया मदोन्मत्त मूर्च्छित
कब सुरा ही सुराही गटक गई !

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13 comments

  1. mahim says:

    आपके इस वेब पृष्ठ पर बने चित्र का आशय क्या है ?

    • Kiran Bhatia says:

      ` माटी की मटकी `से तात्पर्य हमारे जीवन से है और वेबचित्र में टूटा हुआ पात्र किसी भी समय जीवन रुपी पात्र के टूट जाने की अर्थात् क्षणभंगुर जीवन के अंत हो जाने की संभाव्यता को दर्शाता है ।
      इति शुभम् ।

  2. पूर्णानन्द (राजेश सच्चिदानन्द ध्यानी) says:

    डॉ. किरण भाटिया जी प्रणाम आपने अध्यात्म-विज्ञान पर अधिक गहनता के सङ्ग कार्य किया है। जिसे पढ़कर अभिभूत हूँ। सौभाग्य से महामृत्युञ्जय मन्त्र्, महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रम्, शिव् ताण्डव स्तोत्रम्, शिव् महिम्नः स्तोत्रम् तथा शिव् सङ्कल्पसूक्त को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ, विस्मित कर देने वाला अनुभव रहा। आपकी कविताओं को भी पढ़ने मिला। नहीं उनका कुछ बिगड़ता बिगड़ाता… जिसका पालक हो स्वयं विधाता। सुन्दर यथार्थ का वर्णन कविता में पिराया है।

    माया से भ्रमित पुरुष अर्थात् चेतन, माया के प्रभाव से भ्रमवश बुद्धि से तादात्म्य स्थापित करता है और बुद्धिगत् धर्मों को स्वधर्म समझकर, उसकी ओर प्रवृत्त होकर सुख-दुःख भोगता है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुण द्वारा किए हुए हैं, तो भी अहङ्कार से मोहित हुए अन्तःकरण वाला पुरुष `मैं करता हूँ’ ऐसा मान लेता है। प्रमादावस्था के कारण जीवन रीतता चला जाता है। कभी चेतना जागृत अवस्था में प्रवेश नहीं कर पायी। कभी जीवन योगतन्त्र् में सुधा रूपी ज्ञानांमृत का पान नहीं कर पाया और जीवन का क्षणिक विराम मृत्यु काल कपालिनी के रूप में आच्छादित हो गयी।

    मद व प्रमाद की मूर्च्छा में मनुष्य मूढ़ रह जाता है और उसके कर्म ही उसकी मृत्यु का कारण बन जाते हैं। जीवन के प्रति मोह ही मृत्यु सत्ता की स्वीकार्य्यता है, यही मृत्यु का औचित्य है। जीवन का प्रमाद मृत्यु है और चैतन्यता ही अमृतता। प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद जीवन। जीवन में जो मद का भाव है, वही मूर्च्छा है। मृत्यु आगमन सचेतना अवस्था में हो तभी जीवन की निरन्तरता रहेगी। अवचेतना निरन्तरता को खण्डित करती है, जीवन की निरन्तरता का व्यवधान है। डॉक्टर किरण भाटिया जी को नमन। धन्यवाद।

  3. Rajesh Satchchidanand Dhyani says:

    डॉ. किरण भाटिया जी प्रणाम आपने अध्यात्म-विज्ञान पर अधिक गहनता के सङ्ग कार्य किया है। जिसे पढ़कर अभिभूत हूँ। सौभाग्य से महामृत्युञ्जय मन्त्र्, महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रम्, शिव् ताण्डव स्तोत्रम्, शिव् महिम्नः स्तोत्रम् तथा शिव् सङ्कल्पसूक्त को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ, विस्मित कर देने वाला अनुभव रहा। आपकी कविताओं को भी पढ़ने मिला। नहीं उनका कुछ बिगड़ता बिगड़ाता… जिसका पालक हो स्वयं विधाता। सुन्दर यथार्थ का वर्णन कविता में पिराया है।

    माया से भ्रमित पुरुष अर्थात् चेतन, माया के प्रभाव से भ्रमवश बुद्धि से तादात्म्य स्थापित करता है और बुद्धिगत् धर्मों को स्वधर्म समझकर, उसकी ओर प्रवृत्त होकर सुख-दुःख भोगता है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुण द्वारा किए हुए हैं, तो भी अहङ्कार से मोहित हुए अन्तःकरण वाला पुरुष `मैं करता हूँ’ ऐसा मान लेता है। प्रमादावस्था के कारण जीवन रीतता चला जाता है। कभी चेतना जागृत अवस्था में प्रवेश नहीं कर पायी। कभी जीवन योगतन्त्र् में सुधा रूपी ज्ञानांमृत का पान नहीं कर पाया और जीवन का क्षणिक विराम मृत्यु काल कपालिनी के रूप में आच्छादित हो गयी। मद व प्रमाद की मूर्च्छा में मनुष्य मूढ़ रह जाता है और उसके कर्म ही उसकी मृत्यु का कारण बन जाते हैं। जीवन के प्रति मोह ही मृत्यु सत्ता की स्वीकार्य्यता है, यही मृत्यु का औचित्य है। जीवन का प्रमाद मृत्यु है और चैतन्यता ही अमृतता। प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद जीवन। जीवन में जो मद का भाव है, वही मूर्च्छा है। मृत्यु आगमन सचेतना अवस्था में हो तभी जीवन की निरन्तरता रहेगी। अवचेतना निरन्तरता को खण्डित करती है, जीवन की निरन्तरता का व्यवधान है। डॉक्टर किरण भाटिया जी को नमन। धन्यवाद। ॐ नमः शिवायः।

    • Kiran Bhatia says:

      सुन्दर शब्दों में अनुस्यूत आपके जीवन-मृत्यु विषयक विचार स्वागतार्ह हैं । ऐसा कदाचित् ही कोई महाभाग जीव कर पता है कि जीवनान्त में मृत्यु के समय चैतन्य अवस्था में हो । सुधी साधक जीवन पर्यन्त इसी क्षण के लिए स्वयं को तैयार करते हैं ।
      लेखन को पसंद करने के लिए भूरिशः धन्यवाद । इति नमस्कारांते ।

  4. Amber govind purwar says:

    Ma’am aap ke dwara kiye gae anuvad bahot saral hai Maine shivtandav strot ki isse saral anuvad kahianubhav nahikiya big thanks for translation. ….kya aap durga kavach ka bhi anuvad kar sakti hai

    • Kiran Bhatia says:

      मान्यवर, अभी ‘ शिवमहिम्नःस्तोत्रम् ‘ पर कार्य चल रहा है । आपने कृपा करके जो अनुरोध किया है उसे नोट कर लिया गया है । धन्यवाद । इति शुभम् ।

  5. Makarand Pimprikar says:

    मान्यवर प्रणाम!
    कृपा करके सुरा ही सुराही गटक गई इस वाक्य का अर्थ बताने की कृपा करे.
    धन्यवाद.

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय मकरन्दजी, सुराही’ जीवन का प्रतीक है व ‘सुरा’ मनुष्य के भोग-विलास के अतिरेक का । सुरा अर्थात् मदिरा, जो सेवन करने वाले को विवेकहीन व उन्मत्त कर देती है । सुराही उस घट अथवा कलश को कहते है, जिससे मदिरा को ढाल कर पिया व पिलाया जाता है । तात्पर्य यह कि भोग-विलास की अतिशयता रूपी सुरा आनन्द देने के स्थान पर व्यसन व विकार बन कर जीवन रूपी सुराही को चाट जाती है । एक साँस में जल्दी-जल्दी पी जाने को ‘गटकना’कहते हैं ।
      आशा है, कविता का आशय अब समझ में आ गया होगा । इति नमस्कारान्ते ।

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