धुंआ धुंआ

मुंबई की बंद पड़ी शक्ति-मिल में सामूहिक बलात्कार के जघन्य काण्ड के बाद दुखित और आर्त्त मन से शिकार लड़की के उद्गारों को समेटने का प्रयास किया है इस कविता में ।

मत मेरे साथ चल तूं मेरे मीत
हूँ मैं तेरे साथ भी बड़ी भयभीत

अब न रही साथी वह पहले वाली बात
जब चलती हुई सुरक्षित थी मैं तेरे साथ

खंडहर सा शहर इसमें घुटती है साँस
झपटने को पड़े हैं गिद्ध नोचने को माँस

शव का नहीं उसका जो हैं पूरे ज़िंदा
परिंदा भी पर न मारे वहाँ बैठा है दरिंदा

नहीं, अकेला नहीं होता राक्षस वे छ: आठ होते हैं
क़ानून का गला घोंटते बहुत से गंदे हाथ होते हैं

इनके लिये क़ानून है खेल, मुर्दा कोई या कंकाल
जघन्य अपराध का न दुःसह दण्ड कोई तत्काल

कानून को ये समझें जैसे काकभगाऊ खेतों में
सुनवाइयां चलती रहती हैं न्यायालय के कक्षों में

कैसे बेख़ौफ़ ये, बुलंद हैं कितने इनके दैत्याकार हौसले
कितने बौने हमारे न्याय के चिराग अँधेरा जिनके तले

आत्मा पर फफोले लिए लड़की (जिए?), जब तक जिये
प्राणों का कोई डर कुछ संकट नहीं इन (नर?)पिशाचों के लिये

और सर्प `जुवेनाइल` विषैला वह `नवकिशोर `की खाल में
नहीं राह फँसाने की हिंस्रतम पशु को कठोरतम दंड जाल में ?

मुझे न्याय की दुहाई दे कर दिलासा दिया जाता है
उसकी जगह मेरे रोष को नपुंसक बनाया जाता है

भूलूं कैसे, उस वीराने में फण उठाये अजगर लहरा गये थे
दुर्दांत बर्बर दुष्कृत्य से वे मनहूस खंडहर भी थर्रा गये थे़

घिनौनी यादों के लौह-थप्पड़ों से उठ पड़ती हूँ रातों को जाग
धुंआ धुंआ जलाती है मुझे मेरे महाअपमान की भीषण आग ।

← कालिय-दमन अनुक्रमणिका चरणचिह्न →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *