शिवसंकल्पसूक्त
श्लोक १
Shloka 1 Analysisयज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
अन्वय
यत् जाग्रतः दूरं उदैति सुप्तस्य तथा एव एति तत् दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिः एकं दैवं तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।
सरल भावार्थ
हे परमात्मा ! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाली एक ज्योति है अथवा जो मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो !
व्याख्या
शिवसंकल्पसूक्त के प्रथम मन्त्र में ऋषि कहते हैं कि जागृत अवस्था में मन दूर दूर तक गमन करता है । सदैव गतिशील रहना उसका स्वभाव है और उसकी गति की कोई सीमा भी नहीं है । मन इतनी प्रबल क्षमताओं से युक्त है कि एक स्थान पर स्थित हो कर भी सुदूर क्षितिज के परले पार पहुँच जाता है । वेगवान पदार्थों में वह सबसे अधिक वेगवान है ।
यह श्रुतिवाक्य है । उपनिषदों में कहा गया है कि मन ही चन्द्रमा है। मन ही यज्ञ का ब्रह्मा है। मृक्ति भी वही है । यहाँ मन और मन मन में उठे विचारों की अत्यन्त तीव्र और अनन्त गति की ओर संकेत है । मन और मन के विचारों को घनीभूत करके कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। उसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। वस्तुतः मन स्थिर होता है जब उसमें विघटन न हो और वह विक्षेप से रहित हो । विषयों से विभ्रांत मन विघटन की स्थिति को प्राप्त होता है । अस्थिर व चंचल मन मनुष्य को मुक्त नहीं होने देता तथा नए नए बंधनों में बांधता चला जाता है । जागृत अवस्था में जीवन-यापन करने के लिए लोक-व्यवहार एवं सांसारिक प्रपंचों में उलझा रहता है, अतः दूर दूर तक निकल जाता है, क्योंकि यही मन तो व्यक्ति को कर्म करने की प्रेरणा देता है ।
गायत्र्युपनिषद् की तृतीय कण्डिका के प्रथम श्लोक में कहा गया है ‘मन एव सविता’ अर्थात् मन ही सविता या प्रेरक तत्व है । मन की ये गतिशीलता सुप्तावस्था में भी दिखाई देती है । सुप्तावस्था में मन के शांत होने के कारण मन को अद्भुत बल मिलता है । कहते हैं कि सोते समय वह अपने सृजनहार से संयुक्त होता है, जो वास्तव में शांति का स्रोत है । श्रद्धेय विनोबा भावे अपनी पुस्तक महागुहा में प्रवेश में कहते हैं कि “… नींद में अनंत के साथ समरसता होती है ।” यहाँ से प्राप्त शांति मनुष्य के आने वाले दिन की यात्रा का पाथेय बनती है ।यही कारण है कि रात्रि में अनिद्रा की स्थिति में रहने वाला व्यक्ति अगले दिन सवेरे उठ कर क्लांत-श्रांत व उद्विग्न-सा अनुभव करता है । परमात्मा से प्राप्त सद्य शांति के अभाव को कोई भी भौतिक साधन पूरा नहीं कर सकता है । यह बात और है कि जाग जाने पर सुप्तावस्था की बातें याद नहीं रहतीं, अनुभूत होती है शांति केवल, क्योंकि वह आध्यात्मिक क्षेत्र से आती है ।
ऋषियों ने परमात्मा से प्रार्थना करते हुए मन को इन्द्रियों का प्रकाशक कहा है
मन के द्वारा सभी इन्द्रियां अपने अपने विषय का ज्ञान ग्रहण करती है । स्वाद रसना नहीं अपितु मन लेता है, नयनाभिराम दृश्य मन को मनोहर लगते हैं अन्यथा अमृतवर्षा करती चंद्रकिरणें अग्निवर्षा करती हुईं प्रतीत होती हैं । वाक् इन्द्रिय वही बोलती है व श्रवणेंद्रिय वही सुनती हैं जो मन अभिप्रेरित करता है । यही मन स्पर्शेंद्रिय से प्राप्त संवेदनों को सुखदुःखात्मक, मृदु-कठोर मनवाता है। सब इन्द्रियां निज निज कार्य करती हैं, किन्तु उनकी अनुभूतियों के ग्रहण में मन की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता । हिंदी साहित्यकार श्री बालकृष्ण भट्ट अपने निबंध ‘मन और नेत्र’ में मन को सभी इन्द्रियों का प्रभु बताते हैं तथा शास्त्रों से उदाहरण देते हैं:
इसका अर्थ यह है कि जग में मन द्वारा किया हुआ ही कृत कर्म है, न कि शरीर द्वारा किया हुआ । यह मन जीव का दिव्य माध्यम है, इन्द्रियों का प्रवर्तक है मन को दार्शनिक छठी इन्द्रिय बताते हैं और यह छठी इन्द्रिय अन्य सभी इन्द्रयों से कहीं अधिक प्रचंड है । तात्पर्य यह कि इन्द्रियां, जिन्हें ‘ज्योतियां’ कह कर पुकारा गया है, उनका प्रकाशक मन ही है । यजुर्वेद के ऋषियों ने मानवमन के भीतर स्थित इस दिव्य-ज्योति को देखा व पहचाना है, अतः उसे ज्योतिषां ज्योतिरेकम् कहते हुए ऋषि प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मा ! ऐसा हमारा मन श्रेष्ठ और कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो !
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बहन किरणजी,
अति प्रसन्नता हुई शिवसंकल्प सूक्त का अन्वय देखकर । बहन, मैं रुद्र अष्टाध्यायी को आत्मसात करना चाहता हूँ, भोले बाबा की कृपा रही तो !! मुजे शुक्ल यजुर्वेदोक्त रुद्र अष्टाध्यायी का पद पाठ एवं क्रम पाठ सीखना है, जिसके लिए मुजे संधि विग्रह की ज़रूरत पड़ेगी । मैंने हर जगह संभव प्रयास किया लेकिन मुजे कहीं भी अन्वय नहीं मिले ।
बड़ी कृपा होगी यदि आप शुक्ल यजुर्वेदोक्त रुद्र अष्टाध्यायी का अन्वय के साथ प्रकाशन करेगी, खास कर पुरुष सूक्त – शुक्ल यजुर्वेदोक्त ।
आभार ।
आदरणीय किरण परमारजी,आपका अनुरोध एक शिवभक्त के हृदय से निसृत भाव है । सम्प्रति महिषासुरमर्दिनी एवं शिवमहिम्नस्तोत्रम् पर कार्य चल रहा है । शिवकृपा जीव का शोधन करती है । यथाशीघ्र, शिवेच्छा से यह कार्य संपन्न करके पुरुषसूक्त पर विचार करेंगे, अवश्य ही । आपका हृदय से धन्यवाद ।
इति नमस्कारान्ते ।
यज्जाग्रतो दूरमुदैतिदैवं तदुसुप्तस्य_तथैवैति । दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥1॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैतिदैवं तदुसुप्तस्य_तथैवैति। दुरड़्ग्मं ज्योतिषांज्योतिरेकं तन्मेमनः #शिवसड़्क्ल्पमस्तु।।१।।
आपके अनुसार : जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और “सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है” और अन्य व्याख्यानकर्ताओं के अनुसार: आप जब जागते हो तो यह मन आपका दूर-दूर तक चला जाता है और “जब आप सोते हो तो यह आपके निकट आ जाता है!!”
आप दोनों की आधी व्याख्या मिलती है परन्तु आधी नहीं। आप दोनों के व्याख्यानों में विरोधाभास है। उपरोक्त श्लोक में भी मात्राएँ भी अलग अलग हैं!!! कुछ शब्द जुड़े हैं और कुछ शब्द अलग अलग हैं। कौन सही है यह कौन तय करेगा?
आदर्शजी, हमारे लिखे श्लोक में मात्रा आदि की कोई गलती नहीं है, पाठ शुद्ध हो इसका पूरा ध्यान रखा जाता है । दूसरा श्लोक आप स्वयं ही देख लें व वर्तनी की शुद्धता को परख लें । रही अर्थ व समझ की बात तो अन्य के विचारों में भिन्नता हो सकती है । इति शुभम् ।
यज्जाग्रतो दूरमुदैतिदैवं तदुसुप्तस्य_तथैवैति । दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥1॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैतिदैवं तदुसुप्तस्य_तथैवैति। दुरड़्ग्मं ज्योतिषांज्योतिरेकं तन्मेमनः #शिवसड़्क्ल्पमस्तु।।१।।
आपके अनुसार : जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और “सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है” और अन्य व्याख्यानकर्ताओं के अनुसार: आप जब जागते हो तो यह मन आपका दूर-दूर तक चला जाता है और “जब आप सोते हो तो यह आपके निकट आ जाता है!!”
आप दोनों की आधी व्याख्या मिलती है परन्तु आधी नहीं। आप दोनों के व्याख्यानों में विरोधाभास है। उपरोक्त श्लोक में भी मात्राएँ भी अलग अलग हैं!!! कुछ शब्द जुड़े हैं और कुछ शब्द अलग अलग हैं। कौन सही है यह कौन तय करेगा? कृपया सही उत्तर देने की कृपा करें।
‘दुरड़्ग्मं’ में दू होना चाहिये तथा दूरंगमं भी लिखा जा करता है । शेष दो शब्दों में कहीं सन्धि है और कहीं सन्धि नहीं की गई, इतना ही अन्तर है । कारण यह हो करता है कि मूलपाठ जहां से लिया गया है, वहाँ ऐसे ही लिखा गया होगा ।
व्याकरण के अनुसार अक्षर “दू” और “दु” के उच्चारण में अंतर होता है। यदि मैं मात्राओं की बात छोड़ भी दूं तब भी आपके अनुसार “मन सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है”, और अन्य व्याख्यानकर्ताओं के अनुसार “जब आप सोते हो तो यह आपके निकट आ जाता है”। आप “दूर” शब्द का प्रयोग कर रहीं हैं और अन्य “निकट” शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। आपका उत्तर संतोषजनक नहीं है।
महोदय, विचार-भिन्नता तो हो ही सकती है । नमस्कार ।
महोदया,
विषय विचारों में भिन्नता का नहीं है बल्कि विषय है “अनुवादों में भिन्नता”। अनुवादों में भिन्नता से पाठकों में भ्रम फैलता है जिस कारण फिर मतभेद उत्पन्न होते हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप का अनुवाद त्रुटिपूर्ण है अन्य का नहीं क्योंकि मैं एक अल्पज्ञ व्यक्ति हूँ और मेरे अंदर इतनी क्षमता नहीं है कि मैं किसी की त्रुटि बताऊँ। फिर भी, मैं यह जो विषय आपके सम्मुख प्रस्तुत किया है वह विचारणीय है तथा इसमें और अधिक अन्वेषण एवं अनुसंधान की आवश्यकता है।
धन्यवाद।
महोदया,
विषय विचारों में भिन्नता का नहीं है बल्कि विषय है “अनुवादों में भिन्नता”। अनुवादों में भिन्नता से पाठकों में भ्रम फैलता है जिस कारण फिर मतभेद उत्पन्न होते हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप का अनुवाद त्रुटिपूर्ण है अन्य का नहीं क्योंकि मैं एक अल्पज्ञ व्यक्ति हूँ और मेरे अंदर इतनी क्षमता नहीं है कि मैं किसी की त्रुटि बताऊँ। फिर भी, मैंने यह जो विषय आपके सम्मुख प्रस्तुत किया है वह विचारणीय है तथा इसमें और अधिक अन्वेषण एवं अनुसंधान की आवश्यकता है।
धन्यवाद।
आदरणीय महोदय, आपका कथन उचित है कि विषय विचारणीय है । मैं सहमत हूं व तद्विषयक अन्वेषण की इच्छुक भी । प्रथमदृष्ट्या श्लोककार का कथन कुछेक या अनेक पाठकों की समझ व सहमति से बाहर हो सकता है, जिसमें कुछ अनुचित नहीं ।
मैंने अपनी लघु मति से अन्वय दिया है । श्लोक के शब्द “सुप्तस्य तथैवैति” का सन्धि-विच्छेद करके “सुप्तस्य तथा एव एति” बनता है, और यह शब्द इस भाव की अभिव्यंजना करते हैं कि सुप्तावस्था में उस तरह ही चला जाता है । अनुवादक की अपनी सीमाएँ होती हैं ।
मैं अनुवाद व व्याख्या सदोष नहीं, निर्मल रखना चाहती हूं । अतएव प्रयासरत हो रही हूँ कि क्या यह मेरी त्रुटि है, और यदि है तो इसमें संशोधन करना मेरे लिये संतोषप्रद होगा, जिसमें अल्प अथवा ईषत् अधिक समय लग सकता है । इति शुभम् ।