शिवताण्डवस्तोत्रम्

श्लोक १६

Shloka 16 Analysis

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततं ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ।।

इमं हि नित्यमेवमुक्त मुत्तमोत्तमस्तवं इमं हि नित्यम् + एवम् + उक्तम्
+ उत्तमोत्तमं + स्तवं
इमं = इसे
हि = निश्चित ही, क्योंकि
नित्यम् = नियमित रूप से
एवम् = इस तरह, इस रीति से
उक्तम् = बताया हुआ, कहा गया
उत्तमोत्तमं = अति उत्तम, उत्तमातिउत्तम
स्तवं = स्तोत्र
पठन् स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम् पठन् स्मरन् ब्रुवन् + नरः
विशुद्धिम् + एति सन्ततम्
पठन् = पाठ करने वाला
स्मरन् = स्मरण करने वाला
ब्रुवन् = बोलने वाला, बताने -कहने वाला
नरः = जन, व्यक्ति
विशुद्धिम् = निर्मलता को, परम शुद्धि को
एति = प्राप्त होता है
सन्ततम् = सदैव, निरंतर
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु यातिनान्यथागतिं हरे गुरौ सुभक्तिम् + आशु
याति न + अन्यथा गतिं
हरे = शिव में (हरः = शिव)
गुरौ = गुरु में
सुभक्तिम् = सुन्दर भक्ति, भरपूर भक्ति, निर्भरा भक्ति
आशु = तुरंत, अविलम्ब
याति = आगे बढ़ता है, प्रगति करता है
= नहीं
अन्यथा = कोई अन्य, भिन्न
गतिं = आश्रय, परिणाम, फल
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम्
विमोहनं = मोह को दूर करने वाला, माया को भेदने वाला
हि = क्योंकि, निश्चित ही
देहिनां = देहधारियों का, मनुष्यों का
सुशंकरस्य = श्रीशंकर का
चिन्तनम् = ध्यान, मनन

अन्वय

( य: ) नित्यमेव उक्तं इमं उत्तमोत्तमं स्तवं हि पठन् स्मरन् ब्रुवन् स: नर: सन्ततं विशुद्धिं एति आशु हरे गुरौ सुभक्तिं याति अन्यथा गतिं न ( याति )  हि सुशंकरस्य चिन्तनं देहिनाम् विमोहनम् ( करोति ) ।

भावार्थ

जो कोई भी जन नियमित ही, इस तरह बताये गए इस उत्तमातिउत्तम स्तवन का पाठ, स्मरण अथवा वर्णन करता है, वह सदैव परम शुद्धि को प्राप्त होता है एवं (समस्त जगत के ) गुरु, भगवान हर यानि शंकर की कृपा से सुन्दर भक्ति में अविलम्ब प्रगति करता है और उसकी कोई अन्यथा गति नहीं होती । निश्चित ही है कि भगवान श्रीशंकर का चिंतन देहधारी अर्थात् मनुष्य की मोह-माया को हर लेने वाला है ।

व्याख्या

sageशिवताण्डवस्तोत्रम् के १६ वें श्लोक में इस स्तोत्र की पवित्रता पर प्रकाश डालते हुए रावण शिव-चिंतन की महत्ता को रेखांकित करता है । वह कहता है कि जो कोई भी जन नियमित ही, इस तरह बताये गए इस उत्तमातिउत्तम स्तवन का पाठ, स्मरण अथवा वर्णन करता है, वह सदैव परम शुद्धि को प्राप्त होता है अर्थात् उसका अन्त:करण निरंतर निर्मल  रहता है एवं समस्त जगत के गुरु, भगवान हर यानि शंकर की कृपा से सुन्दर भक्ति में अविलम्ब वह उपासक प्रगति करता है ।  शिवोपासक परम गति अथवा सदाशिव का सान्निध्य पाता है ।  भगवान श्रीशंकर का चिंतन देहधारी अर्थात् मनुष्य की मोह-माया को हर लेने वाला होता है, यह बात निश्चित है । निष्पाप शिवपरायण जन शिव को पाने वाला बनता है ।

प्रस्तुत श्लोक में स्तुतिकार ने इस स्तोत्र के माहात्म्य बताया है । वह इस स्तोत्र को उत्तमोत्तमं स्तवम् कहता है, जो अकारण नहीं है । गम्भीर आशय लिए हुए इस स्तोत्र पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर सुन्दर व सामान्य दिखने वाले श्लोकों के अन्तर्निहित भाव चकित कर देते हैं और यह आभास भी देते हैं कि अभी बहुत कुछ समझना शेष रह गया है । और अर्थ की पंखुडियां तो भगवान डमरुपाणि की कृपा से ही खुलती हैं ।

meditating sage in gardenमहानर्त्तक की भगवत्ता के दर्शन रावण-रचित इस स्तोत्र में होते हैं ।  सम्पूर्ण ऐश्वर्य धर्म, यश, श्री, ज्ञान, तथा वैराग्य यह छः सम्यक् पूर्ण होने पर `भग` कहे जाते हैं और इन छः की जिसमें पूर्णता है, वह भगवान है । यद्यपि भगवान की भगवत्ता तर्क का विषय नहीं है । वह  स्वयंसिद्ध है,  तथापि दार्शनिक व विचारक अपने विचार व्यक्त करने के लिये परिभाषाएं देने का उद्योग करते रहते हैं । सनातन धर्म में पुण्य-स्तोत्रों का पाठ करना, उनका मनन-चिंतन, स्मरण-श्रवण, कथन-कीर्तन आदि सुकृत्य माने जाते हैं ।रावण कहता है कि इस  स्तोत्र का जो नियम से प्रतिदिन पाठ या कथन-श्रवण-गायन आदि करता है, वह जन निरंतर निर्मल रहता है अर्थात दैहिक, मानसिक मलों से स्वच्छ हो जाता है । मन के विकार भी दूर होने लगते हैं व साधक की जागृति होती है । इसी को रावण ने विशुद्धिमेति कहा  है । विशुद्धि अर्थात् विशेष रूप से शुद्धि, जिससे यहाँ तात्पर्य मानसिक शुद्धि से है, केवल दैहिक शुद्धि ही मात्र नहीं ।

Rama-Kills-Ravanaवैदिक परंपरा आभ्यंतरिक एवं बाह्य, पूरी शुद्धि पर बल देती है । दशग्रीव केवल वीर-विक्रांत ही नहीं अपितु वेद-वेदान्तों का ज्ञाता भी था । अतएव वह विशुद्धि की बात कहता है । वाल्मीकि रामायण में श्रीरामचन्द्रजी द्वारा रावण-वध के उपरांत विलाप करते हुए विभीषण का यह कथन ध्यातव्य है –

एषोऽहिताग्निश्च महातपाश्च
वेदांतगः कर्मसु च यज्ञशूरः ।। २३ ।।
–श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (युद्ध काण्ड-१०९ वां सर्ग)

अर्थात् यह (रावण) अग्निहोत्री, महातापस, वेदज्ञ तथा यज्ञ-यागादि कर्मों में श्रेष्ट शूर तथा कर्मठ रहा है । अग्निहोत्र यानि यज्ञ ।’वाल्मीकि रामायण ‘के सुन्दर काण्ड के १८ वें सर्ग में प्राप्त वर्णन के अनुसार अशोक वाटिका में छिप कर बैठे हनुमानजी रात्रि के पिछले प्रहर में लंका में वेद-घोष सुनते हैं, जिससे पुष्टि होती है कि रावण की लंका में    वैदिक संस्कृति व रीति-नीति को समाश्रय व समादर प्राप्त था ।

षडंगवेदविदुषाम् क्रतुप्रवरयाजिनाम्
शुश्राव ब्रह्मघोषान् स विरात्रे ब्रह्मरक्षसाम ।। २ ।।

अर्थात् रात के पिछले प्रहर में, छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेदों के विद्वान तथा श्रेष्ठ यज्ञों द्वारा यजन करने वाले ब्रह्म-राक्षसों के गृहों में वेदपाठ की ध्वनि होने लगी, जिसे (हनुमानजी ने) सुना । आगे का चित्रण यह स्पष्ट करता है कि ब्रह्म मुहूर्त्त में किस प्रकार वेदोक्त-विधि से रावण की लंका में नित्य कर्म होते थे तथा मृदंग, पखावज, वीणा आदि वाद्यों की सुलहरी संगीतलहरियों के साथ प्रातः संध्या में रूद्र-स्तव तथा स्वस्ति-पाठ की गिरा से वातावरण गूंजता था ।

battleजहाँ तक दैनिक शुद्धि का प्रश्न है, हमारी संस्कृति में निद्रा से जागृत होने से ले कर स्नानोपरान्त तक के कृत्य व तदुपरान्त किये जाने कर्तव्य कर्मों के पूरे दिशा-निर्देश प्राप्त होते हैं, साथ ही मन की शुद्धि की बात आर्ष-ग्रंथों में पुष्कळता से प्राप्त होती है ।

Rama-and-Sita (1)रावण शिवाराधन करने पर बल देते हुए कहता है कि शिवाराधक  अविलम्ब उनकी कृपा से भरपूर भक्ति प्राप्त करता है । और ऐसे  निष्पाप भक्त के जीवन में शिव ही एक मात्र परम धन, परम आश्रय, परम गति और परम लक्ष्य रह जाते हैं । शिव-चिंतन वैराग को उद्दीप्त करता है । भक्ति सब को प्राप्त नहीं होती किन्तु प्रेम-प्रवण जन को इस जगत के गुरु, भगवान हर की वरदायिनी कृपा से शीघ्र लब्ध हो जाती है ।

रामचरितमानस में श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं,

जेहि पर कृपा न करहि पुरारी । सो न पाव भगति हमारी ।।

स्पष्ट है कि हरि कृपा पाने के लिए हर-कृपा आवश्यक है । रामचरित मानस के मंगलाचरण में गोस्वामी तुलसीदास ने शिवजी की गुरु के रूप में वंदना की है “वन्दे बोधमयं गुरुं श्रीशंकररूपिणम्”  शिव तुलसीदासजी के मानस गुरु हैं तथा रामचरितमानस के आचार्य हैं । तुलसीदास के अनुसार शिव-कृपा के बिना सिद्धगण भी अपने अंतर में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते ( फिर साधारण जन की तो बात ही क्या है ? ) । सर्ववेदान्तसारसंग्रह में शंकराचार्यजी शिव को ही गुरु और गुरु को ही शिव बताते हुए कहते हैं कि मोक्ष-प्राप्ति के इच्छा करने वाले मुमुक्षु इन दोनों में किंचित् भी अन्तर न देखें — “शिव एव गुरु: साक्षाद् गुरुरेव शिव: स्वयम् । उभयोरन्तरं किंचिन्न द्रष्टव्यं मुमुक्षुभि: ॥

वस्तुतः समस्त जगत शिवमाया से मोहित है तथा श्रीशंकर का चिंतन  मोहापहारी है । वे भव-भंजन हैं तो भ्रम-भंजन भी हैं । उन मायापति की करुणा ही भक्त के माया के आवरण का विदारण तथा भ्रम का निवारण कर सकती है ।

पिछला श्लोक अनुक्रमणिका अगला श्लोक

Separator-fancy

2 comments

  1. Vikas sharma says:

    आदरणीय डॉक्टर किरण भाटिया जी नमस्कार l प्रस्तुत श्लोक में शंकर जी के साथ श्री (सुशंकरस्य /श्री शंकर जी) लगाने से क्या अभिप्राय है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *