शिवताण्डवस्तोत्रम्

श्लोक ९

Shloka 9 Analysis

प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा-
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ।।

प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा प्रफुल्ल + नीलपंकज +
प्रपंच + कालिम + प्रभा
प्रफुल्ल = पूर्ण विकसित
नीलपंकज = नीलकमल
प्रपंच = समूह, ढेर, राशि
कालिम = श्यामल, काली
प्रभा = दीप्ति
कालिमप्रभा = असित (काली) कान्ति
वलंबिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् अवलम्बि + कण्ठकन्दली +
रुचि + प्रबद्ध + कन्धरम्
अवलम्बि = से युक्त, (आधार लिये हुए)
कण्ठकन्दली = कण्ठ-प्रदेश, कण्ठ-नाल
रुचि = आभा, कान्ति
प्रबद्ध = सुपुष्ट
कन्धरम् = ग्रीवा, गर्दन
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
स्मरच्छिदं = स्मरः + छिदम्
स्मरः = मदन
छिदम् = समाप्त करने वाले
पुरच्छिदं = पुरः + छिदम्
पुरः = त्रिपुरासुर
छिदम् = समाप्त करने वाले
स्मरच्छिदं = स्मरः + छिदम्
स्मरः = मदन
छिदम् = समाप्त करने वाले
भवच्छिदं = भव: + छिदम्
भव: = जन्म-मरण का चक्र
छिदम् = समाप्त करने वाले
मखच्छिदम् = मख: + छिदम्
मख: = (दक्ष का) यज्ञ
छिदम् = समाप्त करने वाले
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे गज + छिद + अन्धकः + छिदम् +
तमन्तकः + छिदम् + भजे
गजः = गजासुर
अन्धकः = अन्धकासुर
तमन्तकः = यमराज
भजे = आराधना करता हूं, पूजता हूं

अन्वय

प्रफुल्ल नीलपंकज-प्रपंच कालिम-प्रभा अवलम्बि कण्ठ-कंदली रुचि प्रबद्ध कन्धरं स्मर:छिदं पुर:छिदं भव:छिदं मख:छिदं गज:छिद अन्धकःछिदं तमन्तक:छिदं भजे  ।

भावार्थ

पूर्ण विकसित नीलकमलों के ढेर से द्युतित होने वाली कालिमा सदृश श्यामलता से जिनका कण्ठ-प्रदेश सुशोभित है, मैं उनको (महादेव को) भजता हूं । मैं मदनरिपु, त्रिपुररिपु, भवभयहारी, दक्षयज्ञ के नाशक, गजासुर-अन्धकासुर के हन्ता और यमभयहारी शिव की आराधना करता हूं ।

व्याख्या

शिवताण्डवस्तोत्रम् के नवम श्लोक में रावण भगवान शिव के नीले कण्ठ की नीलाभ शोभा की समानता नीलकमलों के समूह की श्यामल प्रभा से करता है । वह कहता है कि प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा पूरे खिले हुए नीलकमलों की ढेरी जिस तरह श्यामली आभा से युक्त होती है, कुछ उसी तरह की सुनीलिमा शोभित है कण्ठनाल पर जिनकी, उन सुपुष्ट सुंदर ग्रीवा वाले भगवान शिव की मैं आराधना करता हूं । रावण के कथन को सरल शब्दों में बद्ध करें तो वह कहता है कि मैं उन नीलकण्ठ का उपासक हूं, जिनके गठीले ग्रीवा-प्रदेश पर पूर्णतया खिले हुए नीलकमलों की ढेरी जैसी असित (जो सित नहीं है अर्थात् काली) कान्ति शोभा पा रही है । पूरी तरह से विकसित नीलपंकज कहने से यह अर्थ भी व्यक्त होता है कि शिव के पूरे के पूरे ग्रीवा-प्रान्त पर, पूरी कण्ठ-कन्दली पर श्यामल द्युति फैली है । यह नीली प्रभा सतत स्मरण कराती है कि परोपकारार्थ कल्याण-निकेतन शिव ने विषपान किया था । उन्हें उनके विविध नामों से पुकारता हुआ स्तुतिगायक आगे की पंक्तियों में शिव के रक्षक रूप चित्रित करते हुए कहता है कि मैं उन शिव की पूजा करता हूँ, जो कामदेव एवं भवभय के नाशक हैं, गजासुर व अंधकासुर के हन्ता, त्रिपुर व दक्षयज्ञ के विध्वंसक हैं  तथा यमराज के भय का अन्त करने वाले हैं ।

कण्ठ-कन्दली की नीलाभ कांति के लिए स्तुतिकार ने नीलपंकज का उपमान चुना है । नीलपंकज  अर्थात् गाढ़ी नीली आभा वाला कमल का फूल । कमल का फूल भारतीय संस्कृति में युगयुगों से सर्वाधिक सुन्दर तथा पावन पुष्प माना गया है । पूजा और अन्य मांगलिक अवसरों पर इस पुष्प का प्रयोग शुभ माना जाता है । इसके पुष्प ताप को दूर करते हैं तथा मन को शान्ति देते हैं । अपने प्रत्येक प्रकृति-प्रदत्त रंग में यह पुष्प मनोरम्य है – चाहे वह श्वेत पुण्डरीक हो, रक्तिम कोकनद या पाटल वर्ण का अरविन्द हो अथवा नील वर्ण का उत्पल या इन्दीवर । नीलकमल को नीलोत्पल कहते हैं । ‘नीलोफर’ शब्द इसीका अपभ्रंश रूप है । कमल का फूल सदैव प्रस्फुटन, उन्मीलन, सद्यस्फूर्ति, blue lotus flower photoअनासक्ति और अलिप्तता का प्रतीक रहा है । कमल जल में डूबता नहीं है । समाज के बीच रह कर भी समाज के दूषणों से अप्रभावित रहने वाले व्यक्ति के लिए ‘कीचड में कमलवत्’ की उपमा दी जाती है । सरोवर में सरसिज न खिले तो कीचड को रंग और सुगंध कैसे मिले ?  समाज में कमलवत् लोग न हों तो पतितोद्धार कौन करेगा ? विषम व विकट स्थितियों में भी सुन्दर कर्मों की सुगंध बिखेरने वाले व्यक्ति आज के युग में उसी तरह कम होते जा रहे हैं जैसे लुप्त होते हुए कमल । कमलों की कई प्रजातियां भारत में लुप्त हो चुकी हैं और शेष बची हुईं लुप्त होने के कगार पर हैं । यदि इनके संरक्षण के लिए ठोस कदम न उठाये गए तो वह दिन दूर नहीं जब कमल के दर्शन केवल चित्रों में ही होंगे ।

कमल का फूल चैतन्य का भी प्रतीक है । यह सूक्ष्म शरीर के विभिन्न चक्रों के कमलों का द्योतक है । मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर आदि चक्रों से सम्पृक्त सूक्ष्म कमल (पद्म) समष्टि चेतना के आधार हैं । अध्यात्म का कमल ब्रह्मांडीय शून्य में खिलता है और अपने भीतर से शून्य होकर हम इसे विकसित कर सकते हैं । देह में वास करने वाली आत्मा देह से उसी तरह अलिप्त है जैसे पंक में पद्म । भारतीय संस्कृति और साहित्य में पूज्य, पावन व सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति या वस्तु को कमल की उपमा दी जाती है । श्रीराम के लिए गोस्वामी तुलसीदास के उद्गार हैं, “नवकंज लोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणं” तथा उनकी सांवली छटा के लिए “नवनीलनीरज सुन्दरम् ” का प्रयोग भाव-परक भी है और परंपरा-परक भी । इसी तरह की शब्दावली का प्रचुर प्रयोग हमारे साहित्य में प्राप्त होता है, उदाहरणार्थ श्रीविष्णु के लिए पद्मनाभं, कमलनयनं, ब्रह्माजी के लिए पद्मयोनि या पद्मोद्भव । देवी लक्ष्मी तो पद्मोद्भवा हैं ही, वे कमलालया व कमलासना भी हैं, देवी सरस्वती श्वेत पद्मासन-संस्थिता हैं । BLUE_LOTUS_Wallpaper_u8og1दिव्यता के अलावा काव्यों में कमल निर्मलता के प्रतीक के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है । अतः भक्त-कवि अपने निमल-ह्रदय के लिए कहता है “मम ह्रदय-कंज निवास कुरु …।” प्राचीन काव्यों में `पद्मिनी` नायिका चित्रिणी, शंखिनी और हस्तिनी से श्रेष्ठ होती हैं, नयन -सौंदर्य में भी कमलनयनी पहले आती है तब क्रमश:  मृगनयनी, मत्स्यनयनी तथा खंजननयनी ।

कमल के पौधे का सर्वांग उपयोगी और औषधीय गुणों से युक्त एवं ऊर्जाप्रदायक होने के कारण यह पुष्प किसी संजीवनी से कम नहीं है । महाकवि कालिदास की कृतियों से ज्ञात होता है कि किस प्रकार यह पुष्प तत्कालीन जीवन के दैनन्दिन के क्रिया-कलापों से सहजता से जुड़ा था । कहीं उनकी नायिका कमलनाल की डंडी से अपने अंग पर लेप लगा रही है तो कहीं व्यजन ( हवा) कर रही है, कहीं वह कमल-दल का पर्णपुट (दोना) बना कर उसमें जल पी रही है और कहीं कमलिनी-पत्र की ओट में अपना लज्जावनत मुख छुपा रही है ।

श्लोक की अंतिम दो पंक्तियों में रावण भगवान शिव के लोकरक्षक रूप का चित्रण करते हुए कहता है कि मैं उन शिव की आराधना करता हूँ , जो कामदलन और पुरमथन हैं, जो प्रजापति दक्ष के यज्ञ एवं भवपीड़ा को नष्ट करने वाले हैं, जो गजनिषूदन (गजासुर को मारने वाले) और अंधकहन्ता (अंधकासुर का वध करने वाले) हैं । यमभय (मृत्युभय) का भी अंत करने वाले शिव को मैं पूजता हूं । कामदेव की कथा सर्वज्ञात है । त्रिपुर को नष्ट करने वाला उपाख्यान संक्षेप में यहाँ दिया जा रहा है ।
Tripurantakaकुमार स्कन्द के द्वारा तारकासुर-वध के उपरान्त उसके तीन महाबली पुत्र विद्युन्माली, तारकाक्ष तथा कमलाक्ष घोर तपस्या में रत हुए । ब्रह्माजी को प्रसन्न करके जब वे अमरत्व का वर न पा सके तो वे ब्रह्माजी से बोले कि हे जगद्गुरो ! तीन पुर स्थापित करके हम लोग इस पृथ्वी पर आपकी कृपा से विचरण करें । हम एक हजार वर्ष में आपस में मिलें और यह तीनों पुर एकी भाव को प्राप्त हों । जो इन इकठ्ठे हुए पुरों को एक ही बाण से नष्ट कर दे, वही केवल हम लोगों का मृत्युस्वरूप हो । उनके यह वर प्राप्त करने के बाद दैत्य-शिल्पी मय दानव ने तीन पुरों का निर्माण किया । तारकाक्ष का स्वर्णमय पुर स्वर्गलोक में, कमलाक्ष का रजतमय पुर अंतरिक्ष में तथा विद्युन्माली का लौहमय पुर पृथ्वी पर था । दैत्यों के सुन्दर और सुदृढ़ दुर्गों से युक्त वे तीनों पुर दूसरे त्रिलोक के समान थे तथा मय दानव की माया से रचित वे अद्भुत पुर मन की पहुँच से भी परे थे, साथ ही विशालकाय, युद्ध-परायण, युयुत्सु एवं इन्द्रादि देवों का दमन करने वाले दैत्यों से सेवित थे । वे दुर्मद किन्तु शिव-भक्त असुर शिव के प्रभाव से अवध्य थे । देवगण उनके ताप व त्रास से पीड़ित थे । फलतः उन्होंने त्रिपुर-संहार के लिए शिवजी से प्रार्थना की । सदाशिव के प्रसन्न होने पर देव-शिल्पी विश्वकर्मा ने उनके लिए रथ का निर्माण किया । उस पर आरूढ़ होकर, धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर, बाण को पाशुपत अस्त्र से युक्त कर शिवजी ने जैसे ही त्रिपुर का चिंतन किया, वे तीनों पुर जुड़ गए । तब देवताओं की प्रार्थना पर उन्होंने बाण चला कर त्रिपुर (तीनों नगरों को) को दैत्यों सहित दग्ध कर दिया । इसीसे वे त्रिपुरान्तक, त्रिपुरहा, पुरारी, त्रिपुरारी व पुरमथन आदि कहलाये । अतः रावण ने पुरों का छेदन करने वाले महादेव को पुरच्छिदम् कह कर पुकारा है । मुक्तिदाता शिव के अनुग्रह से उनका भक्त बार-बार भवबंधन में नहीं पड़ता है, अतः भवभयहारी होने से उन्हें भवच्छिदम्  भी कहा है ।

रावण ने भगवान शिव को मखच्छिदम् भी कहा है । sati_and_shiva_indian-mythologyदक्षयज्ञ-ध्वंस की कथा लोक-विश्रुत है । दक्षोsगुंष्ठात्स्वयम्भुवः’ (श्रीमद्भागवत महापुराण) अर्थात् दक्ष ब्रह्माजी के अंगूठे से उत्पन्न हुए । जगदम्बा सती नाम से उनकी पुत्री बनीं । उनकी प्रजा-वृद्धि के कार्य से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें प्रजापतियों का नायक बना दिया । एक बार उनके आगमन पर शिव अपने आसान पर ही बैठे रहे, तो अपने उच्च-पद से दुर्मद हुए दक्ष ने इसे अपना अपमान समझा तथा देवसभा में ही उन्हें बहुत दुर्वचन कहे व शिवजी की ओर से मन मैला कर लिया । कालान्तर में शिव का अपमान करने के लिए दक्ष ने बृहस्पतिसव नामक यज्ञ किया । बिना निमंत्रण के सती पितृगृह गईं और वहां शिव का यज्ञ-भाग न देख कर तथा पिता द्वारा भगवान शिव का अपमान सहन न कर पाने की स्थिति में वे अत्यंत दुःखी और क्रुद्ध हुईं तथा उन्होंने स्वयं को वहीँ तत्क्षण योगाग्नि में भस्म कर दिया । समस्त दिशाओं में हाहाकार व्याप्त हो गया । तब देवर्षि नारद से सती का वृत्तांत सुनकर क्रोधाविष्ट महादेव ने अपनी जटा को महारोष से पर्वत के शिखर पर पटका, उससे उनका महाबली गण वीरभद्र समुत्पन्न हुआ । स्कन्द पुराण के अनुसार,

उद्धृत्यजटांरुद्रो लोकसंहारकारकः ।
आस्फोटयामास रुषा पर्वतस्य शिरोपरिः ।। ३३ ।।

हाथों में विविध आयुध लिये हुए और अपने रोमों से उत्पन्न किये हुए अनेक उत्तम गणों के साथ तब वीरभद्र यज्ञस्थल पर गया, जो कि गंगाद्वार के समीप कनखल पर था । वहाँ दक्ष की यज्ञशाला में महातेजस्वी वीरभद्र तथा अत्यंत क्रुद्ध गणों ने जाकर यज्ञ का संहार कर दिया । सब कुछ तहस-नहस करके दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया । श्रीमद्भागवत महापुराण ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है,

दृष्ट्वा संज्ञपनं योगं पशूनां स पतिर्मखे ।
यजमानपशोः कांस्य कायात्तेनाहरच्छिरः ।। २४ ।।

वस्तुतः दक्ष अपने अधिनायक पद के मद में उन्मत्त होकर यह भूल गया था कि उसने उन यज्ञस्वरूप महादेव का अपमान किया था जिनका अनुग्रह, जिनकी प्रसन्नता पाने के हेतु यज्ञ किये जाते हैं और जिन्हें स्मरण भर कर लेने से समस्त यज्ञ सफल हो जाते हैं -“यस्य स्मरणमात्रेणयज्ञाश्चसफलाह्ययो ” (स्कन्द पुराण). तथा जिनके बिना हव्य-कव्य , द्रव्य-मन्त्र सब कुछ अपवित्र हो जाता है, क्योंकि यह सभी कुछ शिवमय है ।

द्रव्यं मन्त्रादिकं सर्वं हव्यं कव्यं च यन्मयम् ।
विना तेन कृतं सर्वमपवित्रं भविष्यति ।।६ ।।
— स्कन्द पुराण

महादेव को मखच्छिदम् कहने का तात्पर्य यह नहीं कि वे मखनाशक हैं । वे यज्ञस्वरूप शिव वास्तव में दक्षयज्ञ के नहीं अपितु दर्पयज्ञ के संहारकर्ता हैं साथ ही वे संहारक हैं उन दैत्यों के, जो धर्म-विरुद्ध हो कर परपीड़क और त्रासदायक हैं, देवों से द्वेष रखते हैं एवं अहम् और अधर्म की सभी सीमाओं को लाँघ गये हैं । गजासुर और अन्धकासुर भी इसी कारण उनके हाथों मारे गये । इसी से उन्हें गजच्छिान्धकच्छिदम्  (गजच्छिद + अन्धकच्छिदम्)  कहा । शिव-भक्त के लिये त्रिलोकी में कुछ भी दुर्लभ या अप्राप्य नहीं है । वे यमराज के भी यमराज हैं । मार्कण्डेय मुनि स्वयं इसका उदाहरण हैं , जिनकी रक्षा  महादेव ने यमराज से की ।

इस प्रकार रावण अपने परमाराध्य के लोक रक्षक रूप की अभिव्यंजना करता हुआ, भगवान विषपायी के कल्माष कण्ठ को सुशोभित करती हुई कृष्ण प्रभा को पूर्ण विकसित नीलोत्पल-समूह की श्यामल द्युति के सदृश चित्रित करता हुआ, शिव की भक्ति से गौरवान्वित अनुभव करता हुआ उनका गुणानुवाद करता है ।

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6 comments

  1. Madhuri Savaikar says:

    आदरणीय किरण जी,
    सादर प्रणाम!
    शिव तांडव स्तोत्र का अर्थ विशद करने के लिये आपका धान्यवाद।
    मुझे यह जानने की इच्छा है, की नौवे श्लोक में प्रपंचकालिमप्रभा इस संज्ञा का कोई और अर्थ अभिप्रेत है क्या?
    क्या कवीशब्द ब्रह्मांंड की अनंत कालिमा को दर्शाते हुए यह सूचित करने का प्रयत्न कर रहा है कि प्रभू का कंठ अनंत ब्रह्मांंड की भांति श्यामल है?
    या फार क्या यह संज्ञा जग में एक कालिमा सदृश होनेवाले हालाहल का द्योतक है?
    इसपर टिप्पणी देने की कृपा करेंं

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीया माधुरीजी, सधन्यवाद नमस्कार । शिवताण्डवस्तोत्रम् की व्याख्या करने का दुस्साहस मैंने अपनी बौनी बुद्धि से किया है । इस स्तोत्र के नौवें श्लोक-विषयक आपके प्रश्न के विषय में अपनी अल्प मति से यही कहना चाहूँगी कि मैंने कथित श्लोक का जो अर्थ हृदयंगम किया, वही लिखा । आपका विचार अच्छा लगा, किन्तु मेरा विचार इससे इतर है । वह इसलिये कि आठवें श्लोक में कवि अमा-निशा की कालिमा के सदृश कण्ठ की कालिमा को चित्रित कर रहा है और जब भक्त कवि का मन इतना कह कर नहीं अघाता तो अगले श्लोक में वह कण्ठ के रंग की उपमा सुन्दरतम कुसुम-समूह से करता है । कमलपुष्प सर्वाधिक मनोरम व पावन कुसुम माने जाते हैं । भगवान के श्रीअंगों को कमलशोभा से संयुक्त किया जाता रहा है, जैसे मुखारविन्द, पादपद्म, पद्मनाभम, पद्मलोचन, करकमल, कमलनयन इत्यादि । मेरे विचार से भक्त और भावुक रावण ने इस स्तोत्र को गाया है है न कि वेदों के ज्ञाता, विद्वान रावण ने । यहाँ पूर्णविकसित कमलसमूहों की कालिमा की बात कही है और अखिल ब्रह्माण्ड में निरन्तर बृहद् होने वाली स्थितियां (जैसा कि मैंने पढ़ा है) वर्तमान हैं अर्थात् निरन्तर विकसित होने की स्थिति बनी हुई है । दूसरे शब्दों में ब्रह्माण्ड के विकास को यह कह देना कि वह पूर्ण हो गया है, भ्रामक हो सकता है । लेकिन आपके मन से निकली हुई बात का महत्व भी कम नहीं है, क्योंकि भक्त का प्रीतिपूर्ण मन अपने आराध्य को श्रेष्ठतम रूप व उपमा से सज्जित देखना चाहता है । यही कारण है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा की गई व्याख्याएं भिन्न-भिन्न भाव व आशय रूपायित करती हैं । कभी-कभी उपासक अपने उपास्य के रूपाकार में ही आपादमस्तक निमग्न हो जाते हैं तो कभी वे अपने आराध्य देव में रूपाकार से अतीत अलख निरंजन के दर्शन करते हैं । इति शुभम् ।

  2. Vikas Kumar says:

    नमस्कार महोदया जी ! कृपया सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र और सिद्ध कुंजिका स्तोत्र की भी सरल व्याख्या करके अपलोड करें। इन स्तोत्रों में से कुछ शब्दों के अर्थ पता नहीं लग रहे हैं। मेरे ख्याल से किसी भी स्तोत्र के अर्थ को समझकर ही उसे पढ़ने से लाभ प्राप्त होता है, रट्टा मारकर पढ़ने से लाभ नहीं मिलता। आपकी इस वेबसाइट पर स्तोत्रों में लिखे गए एक एक शब्द के अर्थ सुगमता से पता चल जाते हैं, ऐसा बाकी की वेबसाइट्स पर देखने पढ़ने को नहीं मिलता। यह आपका बहुत ही सराहनीय कार्य है। धन्यवाद!

    • Kiran Bhatia says:

      आदरणीय महोदय, नमस्कार । आपका सुझाव प्रशंसनीय है । इसे कार्यान्वित माँ वाक्-कल्याणी की कृपा ही कर सकती है । प्रयास करेंगे । इति शुभम् ।

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