श्रीरामरक्षास्तोत्रम्

श्लोक ५

Shloka 5

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती
कौसल्येयो = कौशल्यापुत्र (राम)
दृशौ = दोनों नेत्रों को
पातु = रक्षित करें
विश्वामित्रप्रिय: = विश्वामित्र के प्रिय
श्रुती = दोनों कानों को
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल:
घ्राणम् = नासिका, नाक को
पातु = राखें, रक्षा करें
मखत्राता मख + त्राता
मख: = यज्ञ (के)
त्राता = रक्षक, रखवाले (राम)
मुखम् = मुंह को (रक्षित करें)
सौमित्रिवत्सल: सौमित्रि + वत्सल:
सौमित्रि = सुमित्रापुत्र (के प्रति)
वत्सल: = वात्सल्यभाव रखने वाले राम

अन्वय

कौसल्येय: दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती (पातु) मखत्राता घ्राणम् पातु सौमित्रिवत्सल: मुखम् (पातु) ।

भावार्थ

कौशल्यापुत्र राम मेरे नेत्रों की रक्षा करें । विश्वामित्र के प्रिय राम कानों को राखें । यज्ञों के रखवाले राम मेरी नासिका की रक्षा करें । सुमित्रानन्दन के प्रति वात्सल्य रखने वाले अथवा वात्सल्य से भरे हुए राम मेरे मुख की रक्षा करें ।

व्याख्या


अपने शरीर की रक्षा हेतु प्रत्येक अवयव का नाम लिया जा रहा है, साथ ही श्रीराम के भी विविध पावन नामों का उच्चार हो रहा है । श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के पांचवें श्लोक में नेत्रों की रक्षा के लिये राम के कौशल्यापुत्र रूप का स्मरण करते हुए कहा जा रहा है कि मेरे दोनों नेत्रों की रक्षा 
कौसल्येय: यानि कौशल्यापुत्र राम करें । वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के दसवाँ श्लोक में रामजन्म का वर्णन करते हुए आदिकवि वाल्मीकिजी लिखते हैं कि कौसल्याजी ने दिव्य लक्षणों से युक्त राम को जन्म दिया — कौसल्याजनयद् रामं दिव्यलक्षणसंयुतम् ।  दोनों कानों की रक्षा के लिये महर्षि विश्वामित्र के प्रीतिभाजन के रूप में राम का नाम लिया जा रहा है—विश्वामित्रप्रिय: । राम विश्वामित्रजी के बहुत ही प्रिय थे । महर्षि विश्वामित्र तपोविघ्न निवारित करने के लिये अयोध्यानरेश दशरथजी से माँग कर राम-लक्ष्मण को वन में अपने आश्रम में ले आये थे । वे दोनों उन्हें बहुत प्रिय थे । राम के सौम्य स्वभाव ने मुनि का मन हर लिया था । गोस्वामी तुलसीदासजी गीतावली में लिखते हैं कि रामजी के प्रति ऋषि के मन में उठते हुए स्नेह व आनंद की सम्पत्ति उनके हृदयरूपी आश्रम में नहीं समातीं थी —गाधिसुवन-स्नेह-सुख-सम्पत्ति उर-आश्रम न समाई ॥  महर्षि विश्वामित्र शस्त्र-शिक्षा के विशेषज्ञ माने जाते हैं । उन्होंने वन में राम को बाणविद्या सिखाई  और उन्हें अनेक अद्भुत अस्त्र भी प्रदान किये — विद्या बिप्र पढ़ाई ।
आगे नासिका की रक्षा की बात आती है, जिसके हेतु राम के यज्ञरक्षक रूप का स्मरण किया गया है । अपने अनुज लक्ष्मण के साथ मिल कर महर्षि विश्वामित्र के यज्ञों की उन्होंने अभिरक्षा की थी, अत: उन्हें मखत्राता भी कहा जाता है । मख का अर्थ होता है यज्ञ और त्राता कहते हैं त्राण करने वाले यानि रक्षा करने वाले को । गोस्वामी तुलसीदास गीतावली में लिखते हैं —
मख  राखिबे  लागि  दसरथ सों मांगि आश्रमहि आने ।
प्रेम  पूजि  पाहुने  प्रानप्रिय  गाधिसुवन सनमाने ॥
—गीतावली—
अर्थात् यज्ञ की रक्षा के लिए दशरथ से माँग कर अपने आश्रम पर लाये हुए प्राणप्रिय पाहुनों (अतिथियों) को प्रेमपूर्वक पूज कर गाधिपुत्र (विश्वामित्र) ने सम्मानित किया । भयावह वन में जहां महर्षि विश्वामित्र का आश्रम (सिद्धाश्रम) था, वहाँ ताड़का, सुबाहु और मारीच आदि राक्षस नित्य उत्पात मचाते । वे योग-याग व जप-तप में निरत ऋषियों को त्रस्त करते व यज्ञों को भंग कर देते थे । उनका अन्त करने हेतु  विश्वामित्र मुनि ने राम को मार्ग में जाते हुए ताड़का को दिखा दिया और राम ने एक ही बाण से उस भयंकरी को मार गिराया—एकहि बान प्रान हरि लीन्हा । ऋषि को आश्वस्त किया और उनसे कहा कि आप जा कर निडर हो कर यज्ञ करें । तब सब मुनि मख अर्थात् यज्ञ करने में प्रवृत्त हो गये तथा प्रभु स्वयं लक्ष्मण सहित यज्ञ की रखवाली पर रहे—
होम करन लागे मुनि झारी । आप रहे मख की रखवारी ॥
—रामचरितमानस—
अर्थात् सब मुनिजन होम करने लगे, हवन-कुण्ड में आहुति देने लगे तब आप मख की रखवाली करने लगे । झारी का अर्थ  झुण्ड होता है । अभिप्राय  यह है कि समस्त मुनिगण (मुनियों के झुण्ड के झुण्ड) जब यज्ञशाला में गये तब आप धनुष-बाण हाथों में लिये हुए यज्ञरक्षा में तत्पर हुए, ताकि यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हो जाये । इसके लिये वे प्रति क्षण धनुष-बाण हाथों में लिये सन्नद्ध रहते थे ।

इस रक्षास्तोत्र में आगे मुख की रक्षा हेतु राम के लक्ष्मणवत्सल रूप को स्मरण किया है । कहा गया है कि सौमित्रिवत्सल:  मुख की रक्षा करें । सौमित्रि का अर्थ है सुमित्रानन्दन अथवा सुमित्रापुत्र । माता सुमित्रा के पुत्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों ही हैं, तथापि सुमित्रानन्दन शब्द लक्ष्मण के सन्दर्भ में सर्वत्र प्रयुक्त होता हुआ मिलता है । यही नहीं रामानुज शब्द भी लक्ष्मणजी के लिये ही रूढ़ हो गया है, जबकि भरत तथा शत्रुघ्नजी भी रामजी के अनुज हैं । शत्रुघ्नजी के लिये भरतानुज शब्द का व्यवहार प्रायः देखने को मिलता है । अपने सभी अनुजों के प्रति रामजी का असीम अनुराग था । तथापि जीवन में कठिनतम व विषम परिस्थितियों में वे लक्ष्मणजी से सतत सेवित रहे । लक्ष्मणजी भी बाल्यकाल से रामजी के अनुगत थे— लछिमन रामचरन रति मानी अर्थात् वे श्रीराम के चरणानुरागी व चरणानुगामी हुए । पूरे 

वनवास-काल में लक्ष्मणजी ने पल भर  भी निद्रा नहीं ली न हि रामजी को कभी अकेले नहीं छोड़ा, सिवाय तब जब प्रभु ने स्वयं आज्ञा दी । वे सदा प्रभु से आज्ञा पाने के लिये उनका मुख देखा करते थे । ऐसे थे सुमित्रानन्दन जिनके प्रति भ्रातृवत्सल रामजी का अटूट और अखूट अनुराग था । रामरक्षा में श्रीराम को  सौमित्रिवत्सल  नाम से पुकारते हुए विनय किया गया है कि वे मुख की रक्षा करें ।

 

श्लोक २, ३, ४ अनुक्रमणिका श्लोक ६

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