श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
श्लोक १२
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रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
| रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन् | ||
| रामेति | → | राम:+ इति |
| राम: | = | भगवान राम |
| इति | = | ऐसा |
| रामभद्रेति | → | राम: + भद्र: + इति |
| राम: | = | राम |
| भद्र: | = | मंगलमय, शुभ |
| इति | = | ऐसा |
| रामचन्द्रेति | → | रामचन्द्र: + इति |
| रामचन्द्र: | = | (रामजी का नाम) रामचन्द्र |
| इति | = | इस तरह |
| वा | = | अथवा |
| स्मरन् | = | सुमिरता हुआ |
| नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति | ||
| नर: | = | पुरुष, मनुष्य |
| न | = | नहीं |
| लिप्यते | = | लिप्त होता है |
| पापैर्भुक्तिं | → | पापै:+ भुक्तिम् |
| पापै: | = | पापों से |
| भुक्तिम् | = | ((अपितु) सुखोपभोग के साधनों को |
| मुक्तिम् | = | मोक्ष को |
| च | = | तथा |
| विन्दति | = | पा लेता है |
अन्वय
राम इति रामभद्र इति वा रामचन्द्र इति स्मरन् नर: पापै: न लिप्यते भुक्तिम् च मुक्तिम् विन्दति ।
भावार्थ
हे राम ! हे रामभद्र ! अथवा हे रामचन्द्र ! इस भाँति सुमिरन करता हुआ मनुष्य पापों से लिप्त नहीं होता है । वह भोग तथा मुक्ति (दोनों) को पा लेता है ।
व्याख्या
श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के बारहवें श्लोक में राम के नाम-स्मरण अथवा नाम-जप से भोग व मुक्ति दोनों का पाना कहा गया है । इस श्लोक के अनुसार हे राम ! हे रामभद्र ! हे रामचन्द्र ! इस प्रकार पुकारता हुआ, रामजी को सुमिरता हुआ मनुष्य पापों से कलुषित नहीं होता है । दूसरी ओर वह भोग, भोजन, भवन आदि अन्य भोग्य पदार्थों व साधनों के सेवन का सौभाग्य भी पाता है । इस श्लोक के अनुसार उसके लिये मुक्ति प्राप्त करना भी अशक्य नहीं है ।ऐसी अवस्था में मन में यह प्रश्न उठता है कि भोग भोगते हुए मुक्ति अथवा मोक्ष कैसे संभव है । इसका निराकरण पहले ही लिख दिया गया है कि नरो न लिप्यते पापै: अर्थात् राम के नाम का सुमिरन करने वाला पुरुष पापों से लिप्त न होगा, दूसरे शब्दों में मनुष्य स्वयं को पापकर्मों से कलुषित न करेगा । राम मायापति हैं । माया उनकी दासी है, उनके सम्मुख विवश है । रामनाम में आसक्ति साधक को भोग-विलास के प्रति निरासक्त बनाने का सामर्थ्य रखती है । रामचरणों में अनुराग ही तो वास्तव में राग से मुक्ति दिलाता है । भक्त व विद्वान लेखक श्री सुदर्शन सिंह चक्र अपने लेख मोक्ष क्या है ? में लिखते हैं कि आसक्ति — संसार की, संसार में किसी की, अपने शरीर और नाम की भी, बन्धन है ; किन्तु आसक्ति ही बन्धन नहीं है । आसक्ति ही मोक्ष भी है, यदि आसक्ति पुरुष में अर्थात् परमात्मा में है । उनके लेख से स्पष्ट है कि मनुष्य यदि पुरुषोत्तम में प्रतिष्ठित है, तब वह सर्वतंत्र स्वतंत्र है तथा यही मोक्ष है । निरासक्त रह कर राज करने का सुंदर उदाहरण विदेहराज जनक का है, जो राजकीय भोगैश्वर्य की प्रचुरता होने पर भी सरलता से जीवनयापन करते थे, इसीलिये देह में रह कर भी विदेह कहलाये तथा भगवती सीता को पुत्री रूप में पाया ।
वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के अष्टादश सर्ग में महर्षि वसिष्ठ द्वारा चारों भाइयों के नामकरण-संस्कार का वर्णन है । उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र का नाम राम रखा । राम का नाम अपनेआप में एक तारक मन्त्र हैं । भगवान शंकर देवी पार्वती से कहते हैं कि मैं सदैव राम के नाम में रमा रहता हूँ । यह नाम विष्णुसहस्रनाम के तुल्य है । राम का दूसरा नाम श्लोक में है रामभद्र, जिसका अर्थ है हे मंगलमय राम ! भद्र का अर्थ होता है शुभ, मंगलमय । रामभद्र —यह नाम शुभत्व का संवाहक व मांगल्य का संचालक है । तत्पश्चात् अगला नाम आता है रामचन्द्र । चन्द्र शब्द मुखछवि की सुशान्त व सुनिर्मल सुन्दरता का बोध कराता है । गीतावली के अयोध्याकाण्ड में सीताजी अपने कृपानिधान सुजान प्रानपति से वन में उनके साथ स्वयं भी चलने का आग्रह करती हुईं कहती हैं कि मैं अपने नेत्ररूप चकोरों को आपके मुखचन्द्र की छवि का आदरपूर्वक पान कराऊंगी —नयन-चकोरनि मुखमयंक-छवि, सादर पान करावोंगी ॥ इस प्रकार हे राम, हे रामभद्र , हे रामचन्द्र ! इन शुभ नामों का स्मरण कीर्तन करता हुआ मनुष्य सुख-सम्पत्ति भोगता है पर पाप से निर्लिप्त रहता है । इन नामों की पुकार जापक का उद्धार करती है । आवागमन के विकट चक्र से मनुष्य त्राण पाता है । अथच ऐसे मनुष्य को भुक्ति-मुक्ति दोनों लब्ध होती है । वह जीवन का प्रेय और श्रेय दोनों पाता है ।
कलियुग केवल नाम अधारा । सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा ॥
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