श्रीहनुमानचालीसा
चौपाई १
Chaupai 1 Analysisजय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर ॥ १ ॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर | ||
जय हनुमान | = | हे हनुमान ! आपकी जय हो |
ज्ञान गुन सागर | = | (हे) ज्ञान और गुणों के सागर |
जय कपीस तिहुं लोक उजागर | ||
जय कपीस | = | कपीश्वर की जय हो |
तिहुं लोक | = | तीनों लोक |
उजागर | = | प्रकाशित, प्रकाशमान |
भावार्थ
हे हनुमानजी ! आपकी जय हो ! हे ज्ञान और गुणों के सागर ! आप ज्ञान और गुणों के सागर हैं । जय हो, हे कपीश्वर ! आपके प्रताप से तीनों लोक प्रकाशमान हैं अर्थात् आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैली है ।
व्याख्या
गोस्वामी तुलसीदास हनुमान चालीसा की पहली चौपाई का आरम्भ कपीश हनुमानजी की जय जयकार से करते हैं, जो ज्ञान और गुणों के सागर हैं और जिनकी उज्ज्वल कीर्ति तीनों लोकों में फैली है । गोस्वामीजी उन्हें कपीसा कह कर पुकारते हैं । कपीसा शब्द कपीश का ग्रामीण रूप है । यह कपि + ईश की सन्धि से बना है । इसमें कपि का अर्थ वानर तथा ईश का अर्थ स्वामी या सर्वश्रेष्ठ है । इस प्रकार तुलसीदासजी उनकी जय पुकारते हुए कहते हैं कि हे हनुमानजी ! आपकी जय हो ! हे ज्ञान और गुणों के सागर ! तीनों लोकों में आपकी कीर्ति का प्रकाश और प्रसार है । हे कपिश्रेष्ठ ! आपके गुणों का गान और और आपकी महिमा का मान पूरा जगत् करता है । तीनों लोकों से अभिप्राय स्वर्गलोक,पृथ्वीलोक व पाताल लोक से है । हनुमानजी रुद्र का अवतार हैं और रुद्रांश होने के कारण उनका तेज प्रखर है । क्या पृथ्वी, क्या पाताल और क्या स्वर्गलोक, कपीश्वर का रुद्रतेज सब ओर अपना पराक्रम प्रकट कर रहा है ।
हनुमानजी के गुण, चरित्र का वर्णन वेदों में भी मिलता है । वाल्मीकि रामायण में प्रसंग आता है, जिसमें श्रीराम कहते हैं कि तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि —ये गुण हनुमान में नित्य स्थित हैं । हनुमानजी को ज्ञान गुन सागर कहने से अभिप्राय यह है कि वे महायोगी, महाज्ञानी व महापण्डित हैं । सागर की ही भांति उनके ज्ञान व गुणों की थाह नहीं पाई जा सकती । तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में उनकी वन्दना करते हुए उन्हें सकलगुणनिधानम् कहा है ।
दोहा २ | अनुक्रमणिका | चौपाइ २ |
Hanuman chalisa ka janma kahaa hua hai kya aapko ptaa hai 🥺 mere javab ka answer do please 🙏 support me hanuman ji
प्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर का उपन्यास ‘मानस का हंस’ गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर आधारित है । इस उपन्यास के अनुसार काशी में १२ या १३ वर्ष की आयु में तुलसीदासजी आचार्य शेष सनातन महाराज की पाठशाला में शिक्षा ग्रहण करते हुए वहाँ गुरुजी के घर पर तीसरे तल्ले की छत पर बनी कोठरी में रहते थे । दिन के समय सहपाठी मित्रों से काशी में भयानक भूतों के होने की बातें सुनते व रात्रि के समय दिए की कंपकंपाती हिलती पतली-सी लौ में छत की मुँडेर पर पास के पीपल के पेड़ की हिलती हुई टहनियों की डरावनी छाया वे देखते और अपनी भावना में वहाँ विशालकाय ब्रह्मराक्षस को देखते तथा तब राम-राम बजरंग-बजरंग जपने लगते । लेखक का कहना है कि रामजी के प्रति परम आस्था रखने वाले बालक तुलसी सोचते और अपने मित्रों से भी कहते कि “… राम मन्त्र सिद्ध मन्त्र हैं । हमको तो वही फलता है । जिसके हनुमान और अंगद जैसे महावीर सैनिक हैं, जो नाथों के नाथ विश्वनाथ के भी इष्टदेव हैं, उनके चरण भला क्यों न गहैं ।अरे हम तो कहते हैं गंगा कि ऐसे बड़े मालिक को कष्ट देने की भी आवश्यकता नहीं, उनके परम सेवक बजरंगबली से ही हमें रक्षा मिल जाती है ! ‘भूत पिशाच निकट नहीं आवा, महावीर जब नाम सुनावै । नासें रोग हरा सब पीरा, जपत निरन्तर हनुमत बीराा । संकट से हनुमान छुड़ावै, मन-क्रम-वचन ध्यान जो लावै ।” इस उपन्यास के अनुसार इस प्रकार हनुमानजी के प्रति प्रगाढ़ आस्था को प्रकट करती हुईं बालक तुलसी के मुख से स्वयंस्फूर्त्त हो कर निकलतीं थीं । इस प्रकार इन चौपाइयों का जन्म लेखक के अनुसार काशी में हुआ । इसके अलावा इस विषय में मुझे कोई जानकारी प्राप्त नहीं है । इति शुभम् ।