श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
श्लोक ८
Shloka 8सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघूत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत् ॥८॥
सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: | ||
सुग्रीवेश: | = | सुग्रीव के स्वामी |
कटी | = | कमर |
पातु | = | रक्षित करें |
सक्थिनी | = | नितम्ब के दोनों ओर निकली हुई हड्डियां |
हनुमत्प्रभु: | = | हनुमानजी के स्वामी |
ऊरू रघूत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत् | ||
ऊरू | = | दोनों जंघाएं |
रघूत्तम: | → | रघु + उत्तम: |
रघु | = | रघुकुल में |
उत्तम: | = | श्रेष्ठ: |
पातु | = | रक्षा करें |
रक्ष:कुलविनाशकृत् | → | रक्ष:कुल + विनाशकृत् |
रक्ष:कुल | = | राक्षसों का कुल |
विनाशकृत् | = | विनष्ट करने वाले |
अन्वय
सुग्रीवेश: कटी पातु हनुमत्प्रभु: सक्थिनी (पातु) रक्ष:कुलविनाशकृत् रघूत्तम: ऊरू पातु ।
भावार्थ
सुग्रीवश्वर राम मेरी कमर की रक्षा करें व हनुमान के स्वामी मेरे दोनों सन्धिस्थान (नितम्ब के दोनों ओर निकली हुई हड्डियाँ) रक्षित करें । राक्षस-कुल विनाशक राम, रघुवंशियों में श्रेष्ठ राम मेरी दोनों जंघाओं की रक्षा करें ।
व्याख्या
श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के आठवें श्लोक में राम से प्रार्थना की गई है कि सुग्रीव के स्वामी सुग्रीवेश राम मेरे कटि-प्रदेश की रक्षा करें । सुग्रीव दीन हैं और श्रीराम हैं दीनबन्धु । सूर्य के अंश से जन्मे सुग्रीव का उल्लेख कहीं-कहीं सूर्यपुत्र के नाम से भी मिलता है । ऋष्यमूक पर्वत पर जब हनुमानजी सुग्रीव के दूत अथवा गुप्तचर बन कर रामचन्द्रजी से मिलते हैं व प्रभु राम को पहचान कर अपना कपि तन प्रकट करते है, तब प्रभु को सुग्रीव का परिचय देकर उन पर मैत्री-कृपा करने की प्रार्थना करते हैं—
ऋष्यमूक पर्वत पर रामजी व सुग्रीवजी दोनों की कथा एक दूसरे को सुना कर अग्निसाक्षी देकर बाली से संत्रस्त सुग्रीव की प्रभु से मैत्री करवाते हैं —
सुग्रीव के हितसाधन के लिये राम बाली के हृदय को बाण से बेध कर उसका वध करते हैं और इस तरह सुग्रीव को भययुक्त करते हैं साथ ही उन्हें किष्किन्धा का नरेश बना कर नया जीवन देते हैं । अपने जन के लिये राम ने यह अपयश तक लेना अंगीकार किया कि व्याध की भांति बालि को मारा । यद्यपि बाली-वध करने से प्रभु पर प्रश्न भी उठे, परन्तु भक्तवत्सल भगवान् ने वास्तव में अनुज-वधू के साथ अनुपयुक्त व्यवहार करने वाले बालि को मारकर धर्म की व सुग्रीव की रक्षा की । तुलसीदासजी ने इस संबंध में दोहावली में कहा है —
सही गारी अर्थात् गाली सही अपने दीन व विरही मित्र सुग्रीव के लिये । तत्पश्चात् सुग्रीव को वे किष्किन्धा का राजा बनाते हैं । इस प्रकार सुग्रीवेश राम से विनती की गयी है कि वे कटि-प्रदेश की रक्षा करें ।
कटि-प्रदेश के नीचे नितम्ब के दोनों ओर की हड्डियों (सक्थिनी) की रक्षा हनुमानजी के प्रभु श्रीराम करें, ऐसी प्रार्थना है । सक्थिनी नितम्ब के दोनों ओर की निकली हुई हड्डियों का वाचक है । इसे मर्मस्थान अथवा सन्धिस्थान भी कहते हैं । अंग में किसी भी सन्धि का स्थान मर्मस्थान कहलाता है । इस शब्द से नितम्ब-प्रदेश का अभिप्राय घटित होता है । यहां की रक्षा के लिये हनुमत्प्रभु: राम का स्मरण किया गया है । पवनपुत्र की महिमा का गान भले ही कर लिया जाये, किन्तु उनका बखान करना क्या किसी के लिये संभव है ? लोकगीत और भजन बड़ी सरल व सहज रीति से बहुधा हृदय की गहरी बात कह देते हैं । एक उदाहरण है —
रामचरितमानस के पाठ और रामनाम के जप के साथ हनुमान चालीसा पढ़ने का विधान यों ही अकारण नहीं बना है । भारतीय मानस में यह मान्यता दृढ़मूल है कि श्रीरामचन्द्र अपने चरित का गान, अपनी कीर्तिकथा को तब तक अपने कान में नहीं लेते, जब तक वह उनके परम भक्त व सर्वश्रेष्ठ सेवक हनुमानजी के यशगान के साथ जोड़ी न जाये । ठीक उसी प्रकार हनुमान-कथा या हनुमान-चालीसा का पाठ भी रामनाम की एक माला ( १०८ बार रामनाम का जाप ) के साथ पूरा होता है, अन्यथा वह अधूरा माना जाता है । मानस के सुन्दरकाण्ड में रामचन्द्रजी ने स्पष्टतः हनुमानजी कहा है — तुम मम प्रिय भरत हि सम भाई । ऐसे मारुतीश हनुमत्प्रभु श्रीराम मेरे नितम्ब-प्रदेश की रक्षा करें ।
बड़े बड़े भयानक दारुण दुष्ट राक्षसों को उनके कुल सहित रामचन्द्रजी ने नष्ट किया । संक्षेप में जानने के लिये गोस्वामी तुलसीदास के निम्नलिखित वचन दृष्टव्य हैं —
हति कबन्ध, बल-अंध बालि दलि, कृपासिंधु सुग्रीव बसायो ॥२॥
अर्थात् कृपासिन्धु राम ने विराध, खर-दूषण व त्रिशिरा का वध किया, शूर्पणखा को कुरूपा बना दिया तथा कबन्ध को मार कर, बल की अतिशयता से मदान्ध बालि का दलन करके सुग्रीव को बसा दिया (उसे पत्नी रूमा पुन: मिल गई व घर बस गया) । यही नहीं बालकाण्ड में वर्णन है कि किशोरावस्था में महर्षि विश्वामित्र के साथ यज्ञ-रक्षा हेतु वन में जाने पर ताड़का, सुबाहु का वध किया था । स्वर्णमृग बने हुए छद्मरूपधारी राक्षस मारीच को मारा । राक्षसेन्द्र रावण सकुटुम्ब समूल नष्ट कर दिया गया । रघुनाथजी रघुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, अतएव वे राघव, राघवेन्द्र व रघुवंशमणि आदि नामों से भी पुकारे जाते हैं । इस श्लोक में उन्हें रघूत्तम व रक्ष:कुलविनाशकृत् राम कहते हुए जंघाओं के रक्षण के लिये उनसे विनती की गई है । वे रघुकुलमणि राक्षसान्तक राम मेरे जंघा-प्रदेश की रक्षा करें ।
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