शिवताण्डवस्तोत्रम्
श्लोक १
Shloka 1 Analysisजटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नःशिवः शिवम् ।।
जटाटवीगलज्जल | → | जटा + अटवी + गलद् + जल |
जटा | = | केश, बाल |
अटवी | = | वन, जंगल |
गलद् | = | बहता हुआ, टपकता हुआ |
जल | = | पानी |
प्रवाहपावितस्थले | → | प्रवाह + पावित + स्थले |
प्रवाह | = | धारा (से) |
पावित | = | पवित्र (किये गये) |
स्थले | = | स्थल पर |
गलेऽवलम्ब्य लम्बिताम् | → | गले + अवलम्ब्य + लम्बिताम् |
गले | = | गले में |
अवलम्ब्य | = | लटकाए हुए, धारण किये हुए |
लम्बितां | = | झूलती हुई |
भुजंगतुंगमालिकाम् | → | भुजंग + तुंग + मालिकाम् |
भुजंग | = | सर्प, साँप |
तुंग | = | बड़ा |
मालिकाम् | = | कण्ठहार, माला |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं | → | डमड्डमड्डमड्डमन् + निनादवत् + |
→ | डमरु +अयम् | |
डमड्डमड्डमड्डमन् | = | डम डम डम डम की ध्वनि करते हुए |
निनादवत् | = | ऊंचे घोष से युक्त |
डमरु | = | एक प्रकार की डुगडुगी या वाद्य-यंत्र |
अयम् | = | यह |
डमर्वयम् | = | डमरू बजाते हुए |
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नःशिवः शिवम् | ||
चकार | = | किया |
चण्डताण्डवम् | = | प्रचण्ड ताण्डव नृत्य |
तनोतु | = | विस्तार करें |
न: | = | हमारे |
शिव: | = | भगवान शिव |
शिवम् | = | कल्याण का |
अन्वय
जटाटवीगलज्जलप्रवाह-पावितस्थले गले लम्बितां भुजङ्गतुंगमालिकां अवलम्ब्य डमड् – डमड् – डमड् – डमन् निनादवत् डमरवयं (य:) चण्ड ताण्डवम् चकार ( सः ) शिवः नः शिवं तनोतु ।
व्याख्या
शिवताण्डवस्तोत्रम् के रचयिता दशवक्त्र रावण इस स्तोत्र का शुभारम्भ भगवान शिव के तांडव -रत रूप की अभ्यर्थना से करते हैं । शिव जिनका अंग-संग ही अपावन को पावन-सुहावन बना देता है और जो सर्पमाल, नरमुंडमाल आदि धारण करने से अमंगलवेष कहलाये जाने पर भी सदा मंगलराशि, मांगल्यधाम हैं उनके लिये स्तुतिकार का कहना है कि शिव के सघन जटा रूपी वन से निकलती हुई गंगा की चटुल तरंगों से प्रवाह-पूत स्थल पर, विशाल-विकराल भुजंगमाला अपनी ग्रीवा में धारण किये हुए शिव ने डमरू का महाघोष करते हुए प्रचण्ड तांडव किया, वे तांडव-तल्लीन शुभंकर शंकर हमारा कल्याण करें, हमारा हित-साधन करें ।
शिव की घनी जटा सघन वन-सी भासती है, अत: उसे जटाटवी अर्थात् जटा रूपी सघन वन कहा और इससे अभिप्रेत अर्थ है जटाजाल का जंगल । अटवी अथवा अटवि: का अर्थ वन होता है । संस्कृत भाषा में किसी वस्तु की सघनता अथवा सशक्तता को व्यक्त करने के लिये उसके साथ वन शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है, जैसे पुष्ट भुजाओं के बल के लिये भुजवनम् । यहां भगवान धूर्जटि के जटाजाल की सघनता, रुक्षता व जटिलता को अटवी कह कर व्यक्त किया गया है । आगे कहा है गलज्जल जिसका अर्थ है झरता-बहता जल, प्रवाहित होता हुआ जल । जटाटवीगलज्जल से अभिप्रेत है जंगल जैसे जटाजाल से निर्झरित जलधार । शिवजटा से फूट कर झरती-बहती गंगधार ऐसी दृश्यमान हो रही है जैसे वह जटा रूपी वन-कान्तार से प्रवहमान हो रही हो । और प्रवाहपावितस्थले कह कर नृत्य-स्थल की पावनता को संकेतित किया गया है । भगवान शिव के वरद पादपद्म जहां पड़ते हों, वह स्थल तो स्वयमेव ही पवित्र है, किन्तु पुण्यतोया गंगा की धवल धार से धुल कर वह स्थल प्रवाहपावित भी हो गया । पावित करना यानि पावन करना, विशुद्ध करना । रावण महिमागान करते हुए नृत्यस्थली को प्रवाह से परिपूत बता रहे हैं । गंगा वस्तुत: ब्रह्मद्रवजल है, सुरसरिता है । प्रलय-प्रचण्ड वेग से और अपनी सर्वग्रासी उन्मत्तता के उद्रेक से स्वर्ग से अवतरण करती हुई गंगा को भगवान शिव ने अपनी अलकों को खोलकर खुली जटा में धारण कर लिया था । यहाँ श्रीमद्भागवत पुराण से एक उद्धरण देना अप्रासंगिक न होगा । इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर के कुल में जन्मे राजा अंशुमन के पौत्र तथा राजा दिलीप के पुत्र राजा भगीरथ, जो ऋषि भी थे, राजर्षि कहलाए । उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती गंगा ने उन्हें दर्शन दिये । भगीरथ ने अपना अभिप्राय प्रकट करते हुए उनसे मृत्युलोक पर चलने की प्रार्थना की जिस पर गंगा ने उन्हें समझाते हुए कहा,
अन्यथा भूतलं भित्त्वा नृप यास्ये रसातलम् ।।
अर्थात् हे राजन, जिस समय मैं स्वर्ग से भूतलं पर गिरूं , उस समय मेरे वेग को धारण करने वाला कोई होना चाहिये , अन्यथा मैं पृथ्वी को फोड़कर रसातल में चली जाउंगी । तब भगीरथ ने गंगा से निवेदन किया कि
यस्मिन्नोतमिदं प्रोतं विश्वं शाटीव तन्तुषु ।।
अर्थात् समस्त प्राणियों के आत्मा रुद्रदेव आपका वेग धारण कर लेंगे । क्योंकि जैसे साड़ी सूत-धागों में ओत-प्रोत है , वैसे ही समूचा विश्व रुद्र में ओत-प्रोत है । तदुपरांत भगीरथ द्वारा शिव को प्रसन्न किये जाने पर उन्होंने ‘तथास्तु’ कह कर राजर्षि का अभीष्ट सिद्ध किया ओर उदग्र उन्मत्त वेगवती गंगा को अपनी जटा में बाँध कर सृष्टि को प्रलय-प्रवाह से बचाया ।
नृप द्वारा अनुनय -विनय किये जाने पर शिव ने अपने अलकों अर्थात् केशों की एक बंकिम लट खोल दी, जिससे हहराती-घहराती गंगा की एक उद्दाम तरंग मुक्त हो कर बह चली । इसीलिये पर्वत प्रांत से, स्रोत के पास से किशोरी हरिणी की तरह कुलाँचे मारती , बहती गंगा अलकनन्दा कहलायी । नंदा अर्थात् नंदिनी, कन्या । मानसरोवर से गंगा की सात धाराएँ निकलीं । ह्लादिनी, पावनी एवं नलिनी पू्र्व की ओर तथा सुचक्षु, सीता एवं सिन्धु पश्चिम दिशा की ओर बह चलीं । सप्तम धारा भगीरथ के पीछे पीछे बहती चली । पतितपावनी गंगा का आख्यान बहुत लंबा और चित्ताकर्षक है किन्तु इस पर और अधिक कहने से यहाँ विषयान्तर होने का भय है ।
दूसरी पंक्ति में रावण ने भगवान शिव के भुजंगभूषण रूप का चित्र उकेरा है । भुजंगतुंगमालिका अर्थात् विशाल सर्प की माला, लम्बिताम् अर्थात् झूलती हुई माला को वे गलेsवलम्ब्य यानि अपने गले में धारण किये हुए हैं । और वह प्रवाह-पूत स्थल निनादवड्डमर्वयम् भयंकर डमरुघोष से निनादित हो रहा है । आशय यह है कि उनकी ग्रीवा में झूलती विकराल सर्पमाला जहां उनके रूप को भयावह बनाती है, वहां डमरु के डम-डम करते हुए श्रुति-भीषण घोष से वातावरण विकम्पित है । आगे कहते हैं कि चकार चण्डताण्डवम् अर्थात् शिव ने प्रचण्ड ताण्डव नृत्य किया । इस प्रकार निनाद घोर में विभोर रावण का कहना है कि विशालकाय सर्पमाला अपनी ग्रीवा में झुलाते हुए व डमरु के श्रवण-भयंकर घोष को निनादित करते हुए, अपने जटारूपी सघन बन से निःसृत जलधारा द्वारा प्रवाहपूत स्थल पर जिस शिव ने चण्डताण्डव किया, वे शिव हमारा शुभ-सम्पादन करें, हमारे शिवम् का विस्तार करें । शिव शब्द का एक अन्य अर्थ शुभ तथा कल्याण भी होता है । तनोतु न: शिव: शिवम् यानि शिव हमारे शुभ का, कल्याण का विस्तार करें अर्थात् उसमें वृद्धि करें । दूसरे शब्दों में शिव सदैव हमारे हितों की रक्षा करें ।
रावण ने उस स्थल को, जहाँ शिव ने प्रचण्ड तांडव किया, के जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले कह कर पुण्यतोया देवापगा गंगा की गरिमा को भी इस प्रथम श्लोक में रेखांकित किया है । अपने आराध्य पर राक्षस-शार्दूल रावण मुग्ध है और जानता है कि डमरू का श्रवण-भैरव निनाद करते हुए, नृत्य करते हुए वे शिव सर्वतोभावेन कल्याणकारी तथा विघ्न-विदारणहार हैं एवं सच्ची निष्ठा रखने वालों पर अपनी कृपा व करुणा की वर्षा करते हैं । वे अपने वेश से भयंकर दिखनेवाले वास्तव में वे शुभंकर है ।
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अद्भुत। अति सुंदर। पठनीय व्याख्या
भगवान चंद्रमौलि का प्रसाद मानती हूँ पाठकों के शब्दों को, जो उनके प्रति प्रीति व भक्ति तो परिलक्षित करते ही हैं साथ ही मेरी प्रेरणा की निरंतरता को बनाये रखते हैं । आपका धन्यवाद ।
आदरनिय ड़ा किरण भाटिया जी ,
मेरा कोटि कोटि प्रणाम स्वीकार करें ।
मुझे वह शब्द ही नही मिल रहे जिससे मैं आपका धन्यवाद करुं ।
आपका कार्य किसी भी टिप्पनी से अत्यन्त परे है ।
अद्भुत ,
अति सुंदर ,
मै भोलेनाथ के भक्तों के चरणों की धूल से भी तुच्छ हुँ ।
आप नहीं जानती आपने मुझे क्या दे दिया है । मै अति भाग्य शाली हुँ ।
अगर आप हमारा एक कार्य कर दें तो मैं आपका एहसान जिंदगी भर नही भूल पांऊगा ।
मुझे शिव अपराध क्षमापं स्तोत्र संधि विच्छेद और अर्थ के साथ अत्यन्त शिघ्र चाहिये शिव रात्रि से पहले ।
आपकी हमारे ऊपर अति कृपा होगी ।
MY WHATSAAP NO. IS 09056720267.
अगर आपसे भेंट हो जाये तो हमारा तो जीवन ही बदल जाये ।
एक बार फिर से आपको कोटि कोटि प्रणाम ।
शिव साधक
राकेश गुप्ता ।
आदरणीय राकेश गुप्ताजी ।नमस्कार। भगवान किशोरशशिधर की कृपा से मेरे द्वारा किया गया यह लघु प्रयास आपको पठनीय और प्रशंसनीय लगा इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ।आपका अनुरोध स्वागतार्ह है व इसे अपनी सूची में शामिल कर लिया गया है । सम्प्रति `शिवमहिम्नःस्तोत्रम्` पर कार्य चल रहा है । भगवान भोलेनाथ किंकरवश्य हैं, उनकी कृपा से आगे `श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रं` पर संधि विच्छेद और शब्दार्थ एवं अन्वय के साथ काम किया सकता है। कृपया आगे भी अपने सुझाव भेज कर अनुगृहीत करें ।आपके द्वारा इतने प्रशंसात्मक शब्दों का प्रयोग मेरे लिए संकोच व असहजता का भाव उत्पन्न कर देता है । ॐ नमः शिवाय ।
इति नमस्कारान्ते।
बहुत बहुत धन्यवाद आपका जो आपने इस विषय से हमारा परिचय कराया ।।
क्या आप बात सकती हैं कि भगवान शिव के बारे में और अधिक जानने के लिए उनकी महिमा को समझने के लिए कौन सी पुस्तक उचित रहेगी ?
भगवान शिव के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए व उनकी महिमा को यथासाध्य मनोगत करने हेतु गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पत्रिका `कल्याण` तथा इन्हीं के द्वारा प्रकाशित पुराणों से भगवान् शिव-संबंधी सामग्री मिलती है, जिसमें शिव-पुराण के अलावा देवी-पुराण, कालिका-पुराण एवं भागवत-महापुराण ग्रन्थ शामिल हैं । मुझे प. श्रीराम शर्मा आचार्य की पुस्तकों से भी बहुत सहायता मिली है, विशेषकर स्कन्द-पुराण से । मेरे विचार से आपको इनकी पुस्तक `स्कन्द-पुराण`, जिसका प्रकाशन है, अखण्ड ज्योति संसथान, मथुरा, अवश्य पढ़नी चाहिए ।
धन्यवाद । इति शुभम् ।
बहुत बहुत धन्यावाद l
आदरणीय तिवारीजी, आपका स्वागत है ।
अति सुंदर व्याख्या माते । बहुत समय से इसी प्रकार की व्याख्या खोज रहा था। आज खोज पूर्ण हुई ।
धन्यवाद, डा. विक्रम यादव । जान कर प्रसन्नता हुई । इति शुभम् ।
अति सुन्दर व्याख्या
धन्यवाद । इति शुभम् ।
आज सुबह इस अनुपम रचना की अद्वितीय व्याख्या को पढ़ कर मन आनंदित हो गया.
आपका जितना भी धन्यवाद करूँ कम है.
आपने इस पेज को अपने जीवन की संपूर्ण भावनाओं के निचोड़ से तराशा है.
आप जैसे व्यक्तित्व दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि करें ऐसी मेरी ईश्वर से प्रार्थना है.
आप और अधिक श्लोकों को ऐसे ही अपने ज्ञान से तराश कर हमें प्रदान करें हमारी बस आपसे यही विनती है.
ईश्वर आपको इस कार्य को और अधिक प्राणवेग करने की शक्ति दे.
मान्यवर, सुधी पाठकों के द्वारा किये गये उत्साह-वर्द्धन में ईश्वर की अनुकम्पा के दर्शन होते हैं । आपका बहुत बहुत धन्यवाद । कृपया मेरे सदृश अपदार्थ के लिये इतने सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग न करें, सम्मानार्ह तो आप व सहृदय पाठकगण स्वयं हैं, जो लिखने की प्रेरणा देते हुए इस कार्य की गति को अबाध बनाये रखते हैं । शिवकृपा अक्षुण्ण बनी रहे हम सभी पर ! इति शुभम् ।
अत्यंत लाभप्रद व स्वयं सम्पूर्णता को दर्शाती हुई व्याख्या। हकीकतन इसके उपरान्त किसी और जगह पढने की आवश्यकता नहीं।
कृपया ‘ शिव चालीसा ‘ शिव आरती ‘ शिव कवच’ व अन्य महादेव समर्पित श्लोक – मंत्र की व्याख्या प्रदान करने की कृपा करे।
ऊँ नमः शिवाय।
आदरणीय सर्वेश सार्थकजी, बहुत बहुत धन्यवाद । अभी शिवमहिम्न:स्तोत्रम् के केवल ११ श्लोक हमने प्रकाशित किये हैं । स्तोत्र लम्बा है, अत: इसके समापन में समय लगेगा । तत्पश्चात् आपके अनुरोध पर कार्य किया जा सकता है ।
Respected Kiran Bhatia Ji…. Thanks a lot lot lot to you only as i don’t have any other word to say….
भगवान कपर्दी की कृपा है । ॐ नम: शिवाय !
आदरणिय ड़ा किरण भाटिया जी नमस्कार । प्रवाह-पूत स्थल का अर्थ उस पवित्र स्थान से है जहाँ शिव जी ने प्रचण्ड तांडव किया, एक पुस्तक में पावित स्थल को पवित्र कंठ प्रदेश को प्रच्छालित करती हुई गंगा जी कहा गया है। कृप्या स्पष्ट करें।
आदरणीय विकास शर्माजी, पू धातु का अर्थ है पवित्र करना और उसके क्रिया-रूप हैं, पवते, पावयति, पुनाति आदि । पावयति का विशेषण-रूप है पावित अर्थात् परिपूत किया गया, पवित्र किया गया, परिमार्जित किया गया । अत: प्रवाह पावित स्थल का भावार्थ प्रवाह-पूत स्थल उचित है ।
इति नमस्कारान्ते ।
ॐ नमः शिवाय 🙏
।। ॐ नम: शिवाय ।।
Great work, everybody wants to know word to word meaning when they read Sanskrit shloka, but it is difficult to search, you explain here word to word. I am very thankful to you, you did awesome work.
Thanks, Mr. Kapil. It’s God’s grace. ।। ॐ नम: शिवाय ।।